लगता है लक्ष्मण रेखाएं तोड़ने का यह स्वर्ण-युग आ गया है. जिसे देखो वह अपनी मर्यादाएं तोड़कर न जाने क्या-क्या जोड़ना चाहता है.
देश की बड़ी अदालत ने नदी जोड़ने के लिए सरकार को आदेश दिया है. एक समिति बनाने को कहा है और उसकी संस्तुतियां भी एक निश्चित अवधि में सरकार के दरवाजे पर डालने के लिए कहा है. और शायद यह भी कि सरकार संस्तुतियां पाते ही तुरंत सब काम छोड़कर नदी जोड़ने में लग जाए.
यह दूसरी बार हुआ है. इससे पहले एनडीए के समय में बड़ी अदालत ने अटल जी की सरकार को कुछ ऐसा ही आदेश दिया था. तब विपक्ष में बैठी सोनिया जी और पूरी कांग्रेस उनके साथ थीं. एनडीए के भीतरी ढांचे में भी आज की तरह किसी भी घटक ने इसका कोई विरोध नहीं किया था. सबसे ऊपर बैठे राष्ट्रपति भी इस योजना को कमाल का मानते थे. प्रधानमंत्री जी ने भी देश भर की नदियों को तुरंत जोड़ देने के लिए एक भारी-भरकम व्यवस्थित ढांचा बना दिया था और उसको चलाए रखने के लिए एक भारी-भरकम राशि भी सौंप दी थी. इसके संयोजक बनाए गए थे – श्री सुरेश प्रभु. तब किसी ने मुझसे कुछ पूछा था. मेरा उत्तर दो वाक्यों का था. नदी जोड़ना प्रभु का काम है, इसमें सुरेश प्रभु न पड़ंे. सब कुछ होने के बाद भी अटल जी के समय में यह योजना लगातार टलती चली गई. इतनी टली कि यूपीए-1 और फिर निहायत कमजोर यूपीए-2 को भी पार करके वापस बड़ी अदालत के दरवाजे पर पहुंच गई. अब बड़ी अदालत ने फिर से वह पुलिंदा सरकार के दरवाजे पर फेंका है.
देश का भूगोल इसकी इजाजत नहीं देता. यदि यह कोई करने लायक काम होता तो प्रकृति ने कुछ लाख साल पहले इसे करके दिखा दिया होता. लेकिन उसने ऐसा कोई काम नहीं किया क्योंकि कुछ करोड़ साल के इतिहास में देश का उतार-चढ़ाव, पर्वत, पठार और समुद्र की खाड़ी बनी है और उसमें देश के चारों कोनों से नदियों को जोड़कर बहाने की गुंजाइश नहीं थी.
ऐसा नहीं है कि प्रकृति खुद नदी नहीं जोड़ती है. जरूर जोड़ती है लेकिन उसके लिए कुछ लाख साल धीरज के साथ काम करना होता है. हिमालय का नक्शा ऊपर से देखें तो गंगा और यमुना का उद्गम बिल्कुल पास-पास दिखाई देगा लेकिन यह पर्वत का भूगोल ही है कि दोनों नदियों को प्रकृति ने अलग-अलग घाटियों में बहाया और फिर बहुत धीरज के साथ पर्वत को काट-काटकर प्रयाग तक पहुंच कर इनको मिलाया. समाज भी प्रकृति के इस कठिन परिश्रम को समझता था इसलिए उसने ऐसी जगहों को कोई एक्स, वाई, जेड जैसे अभद्र नाम देने के बदले तीर्थ की तरह मन में बसाया.
कचहरियों का काम अन्याय सामने आने पर न्याय देने का होता है. यह काम भी किसी भावुकता के आधार पर नहीं होता. न्याय देने वाला पक्ष-विपक्ष की लंबी-लंबी दलीलें सुनता है और तब वह नीर, क्षीर, विवेक के अनुसार फैसला सुनाता है. दूध का दूध और पानी का पानी. लेकिन नदी जोड़ो प्रसंग में अदालत ने दोनों बार दूध भुला दिया और पानी को पानी से जोड़ने का आदेश दे दिया है.
यह संभव है और यह स्वाभाविक है कि अदालत का ध्यान पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों और नागरिकों की तरफ जाए. लेकिन इसमें ऐसे आदेशों से किसी ऐसे इलाकों पर कैसा अन्याय होगा, लगता है कि इसकी तरफ उसका ध्यान गया ही नहीं है. अदालत अगर अपने मुकदमों के रजिस्टरों की धूल झाड़कर देखे तो उसे पता चलेगा कि उसके यहां नदियों के पानी के बंटवारों को लेकर अनेक राज्य सरकारों के मामले पड़े हैं. इनमें से कुछ पर अभी फैसला आना बाकी है और जिन भाग्यशाली मुकदमों में फैसले सुना दिए गए हैं, उन्हें सरकारों ने मानने से इनकार कर दिया या यह अवमानना जैसा लगे तो उसे ढंग से लागू नहीं होने दिया है. यह सूची लंबी है और इसमें सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक विवाद बहता मिल जाएगा.
हमारे देश में प्रकृति ने हर जगह एक सा पानी नहीं गिराया है. जैसलमेर से लेकर चेरापूंजी में रहने वाले लोगों को जितना पानी मिला उन्होंने उसी में अपना काम बखूबी करके दिखाया था. लेकिन अब विकास का नया नारा सब जगह एक से सपने बेचना चाहता है और दुख की बात यह है कि इसमें न्याय देने वाले लोग भी शामिल होना चाह रहे हैं. ऐसे लोगों और संस्थाओं को अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाओं के भीतर रहना चाहिए और कभी रेखाओं को तोड़ना भी पड़े तो बहुत सोच-समझकर ऐसा करना चाहिए.