जयपुर साहित्य उत्सव, जो कि अब जेएलएफ नाम से मशहूर है, दुनिया का सबसे बड़ा साहित्योत्व है जिसमें प्रवेश निशुल्क है. पांच दिन तक चलनेवाले इस जलसे में मामूली औपचारिकता के साथ कोई भी व्यक्ति शामिल हो सकता है. जेएलएफ खुद भी अपनी ब्रांडिंग इसी पहचान के साथ करता है.
देश भर के साहित्यिक एवं अकादमिक मंचों से होनेवाली संगोष्ठी, परिचर्चा और विमर्शों में यह चिंता जताई जाती रही है कि साहित्य और कला के प्रति लोगों की अभिरुचि तेजी से खत्म हो रही है, जेएलएफ इस चिंता को पूरी तरह ध्वस्त करता है. मसलन साल 2014 में शामिल लोगों की जो संख्या 2,20,000 थी, वह इस साल बढ़कर 2,55,000 हो गई. किसी भी साहित्यिक उत्सव में अगर साहित्य प्रेमियों की संख्या ढाई लाख से ज्यादा हो जाती है, इसका मतलब है कि इस बात के लिए आश्वस्त हुआ जा सकता है कि बहुत जल्द ही देश में कई छोटे-छोटे साहित्य गणराज्य स्थापित हो जाएंगे. फिर इस चिंता से तो मुक्ति मिल जाएगी कि देश में साहित्यिक अभिरुचि तेजी से खत्म हो रही है.
ऐसे सपाट निष्कर्ष तक पहुंचने के पहले इस उत्सव को लेकर दूसरे कई जरूरी संदर्भ हैं, जो कि संभव है परिचर्चा सत्र का हिस्सा न होने के कारण शामिल नहीं किए जाते. वैसे भी इस उत्सव को लेकर जो भी कवरेज होती रही है, वह चुस्त मीडिया मैनेजमेंट का बेहतरीन हिस्सा है. जिसे हम दुनिया का सबसे बड़ा प्रवेश निशुल्क साहित्यिक आयोजन कह रहे हैं, वह क्या सिर्फ साहित्योत्सव है? दूसरी बात सिर्फ परिचर्चा देखने-सुनने के लिए किस साहित्यिक जलसे में फीस लगाई जाती है? ये दो जरूरी सवाल हैं जिससे कि ये पूरा साहित्योत्सव नए सवालों की तरफ ले जाता है. मसलन फ्रंट लॉन में होनेवाली सारी परिचर्चा शुरू होने से पहले, जिनमें कि नोबल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल तक की बातचीत शामिल थी, ये लाइन बार-बार दुहराई गई- इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं रजनीगंधा और उसके बाद अपील कि कृपया धूम्रपान या किसी भी तरह के नशे का प्रयोग न करें. दो कार्यक्रमों के बीच के अंतराल में रजनीगंधा पान मसाला का विज्ञापन दैत्याकार एलइडी स्क्रीन पर भारी-भरकम आवाज के साथ प्रसारित होता रहा.
ऐसे अंतर्विरोधों की श्रृंखला पूरे साहित्योत्सव में मौजूद रही. जो साहित्यिक दुनिया में गैरजरूरी शोर के शामिल किए जाने के सवाल की तरफ ले जाती है. हम बाजार के उसी शोर के बीच होते हैं, जिससे राहत पाने के लिए यहां आते हैं. दरअसल जेएलएफ जिन थोड़े साहित्यिक अभिरुचि रखनेवाले लोगों के लिए साहित्योत्सव है, वह पीआर प्रैक्टिसनर्स के लिए ‘स्पॉन्सर्स डायरेक्टरी’ है. हरेक कार्यक्रम प्रायोजित होता है, वक्ता और प्रतिभागी को दिए जानेवाले पहचान पत्र से लेकर मंच और पूरा परिसर ब्रॉन्ड और उनके नाम से अटे पड़े होते हैं. पांच दिनों तक डिग्गी पैलेस एक नए सिरे से रियल एस्टेट स्पेस में तब्दील हो जाता है. ऐसा होने से मंच से जो चिंता व्यक्त की जाती है, उन्हीं समस्याओं से प्रतिभागी जूझ रहे होते हैं.
प्रत्येक परिचर्चा स्थल पर दर्जनों फूड ज्वाइंट्स मिल जाएंगे, जहां कीमत डॉलर के हिसाब से तय होती है. उसके अनुपात में आपको वॉशरूम नहीं मिलेंगे और न ही बुकशॉप क्योंकि इसे किसी ने प्रायोजित नहीं किया. पूरे साहित्योत्सव में प्रवेश द्वार के बाद सबसे लंबी कतार स्त्री-पुरुष वॉशरूम के आगे दिखेगी. ये नजारा देश के किसी भी सामुदायिक शौचालय के आगे लगनेवाली लाइन से अलग नहीं होता.
प्रायोजित अखबारों और न्यूज चैनलों में इस उत्सव को लेकर परिचर्चा सत्र से फिल्टर करके वे बातें तो फिर भी सामने आ जाती हैं और उनके लिए बेहद उपयोगी भी होतीं है, जो कि घर बैठे इसका रसास्वादन करना चाहते हैं. जो वहां जाकर पूरे कार्यक्रम को सुनना-समझना चाहते हैं, उन्हें फिर उन्हीं सवालों से टकराना होता है, जिसके प्रतिरोध में साहित्य लिखे जाते हैं. प्रायोजकों के विज्ञापनों की बमबारी जबकि सत्र में कई बार कुर्सियों के खाली रह जाने का विरोधाभास ऐसा है जहां से साहित्योत्सव एक नया अर्थ ग्रहण करता है.
ये अर्थ इस रूप में है कि जेएलएफ शामिल होनेवाले प्रतिभागियों को एक स्टेट्स देता है कि वो साहित्यिक बहसों में दिलचस्पी रखते हैं. इस पहचान पत्र के साथ भीतर वर्ल्ड ट्रेड फेयर, डिजनीलैंड जैसे किसी भी कार्यक्रम का आनंद ले सकते हैं. जहां जितनी तत्परता से धूम्रपान निषेध के जनहित में जारी लगातार विज्ञापन प्रसारित किए जाते हैं, उतने ही मनोयोग से नशे की सारी सामग्री डॉलर कीमत पर बेची जाती है. इस दौरान ये पूरा कार्यक्रम एक ऐसा द्वीप हो जाता है जहां साहित्य का झंडा दूर से लहराता दिखाई तो देता है, लेकिन वह न तो जयपुर का हिस्सा हुआ करता है, न ही साहित्य का, जिनके साहित्यिक कृतियों में होने की अनिवार्यता रचनाकार के यहां तक आने की पहचान देती है. इसे फैन्स कॉर्निवल कह सकते हैं जहां लेखक और फैन्स (पाठक) अपने लिखे और पढ़े की अंतर्वस्तु से एक हद तक मुक्त हो जाते हैं. ये नैतिक दवाब से मुक्त हो जाने का उत्सव है.