पत्रकार पत्रकारों के बारे में तभी लिखते हैं, जब कुछ बहुत भयानक घटित होता है. उनके लिए सबसे अच्छे हालात तो यही होते हैं कि उनका नाम खबर की हेडलाइन के बड़े अक्षरों के नीचे दबा रहे. और सबसे बुरी स्थिति तब होती है जब वे ही पहले पन्ने की खबर बन जाते हैं.
‘धीरे-धीरे बहुत संवेदनशील रिपोर्टर भी बिना किसी भावुकता के पूछने लगता है, ‘कितनी गोलियां लगीं? क्या सिर एकदम कटा हुआ था? बॉडी कितनी बुरी तरह जली हुई है?’
मुंबई के पत्रकार ज्योतिर्मय डे के साथ ऐसा ही हुआ. उन्हें पिछले दिनों सरेआम गोली मार दी गई. अब मुंबई पुलिस का दावा है कि यह हत्या छोटा राजन गिरोह ने करवाई थी. डे की हत्या ने अंडरवर्ल्ड द्वारा पत्रकारों को आतंकित करने की घटनाओं के खिलाफ एक तीखे विरोध की शुरुआत कर दी है. हालांकि यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. 1982 में मुंबई माफिया के पर खबरें छापने के लिए मारुति यादव ने उल्हासनगर के पत्रकार एके नारायण की हत्या कर दी थी. नारायण के शरीर के कई टुकड़े करके उन्हें दो बक्सों में भरकर उनके घर के दरवाजे पर फेंक दिया गया था. 1997 में अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन के गुर्गों ने मुंबई के अनूप हिल्स पर क्राइम रिपोर्टर बलजीत परमार की गोली मारकर हत्या कर दी. मुंबई पुलिस को हर महीने पत्रकारों को धमकी देने और उन पर हमला करने की सैकड़ों शिकायतें मिलती हैं.
क्राइम रिपोर्टरों की दुनिया में, खास तौर पर मुंबई में, धमकी मिलने का मतलब होता है कि आप सही दिशा में काम कर रहे हैं. मुंबई में रहने वाले मतीन हफीज पिछले दस साल से अपराध की रिपोर्टिंग कर रहे हैं. 30 साल के हफीज को 2004 की वह घटना भुलाए नहीं भूलती जिसने उन्हें इस काम से जुड़े खतरों का सही मायने में अहसास करवाया था. रमजान का महीना था और हफीज गैंगस्टर से विधायक बने अरुण गवली का इंटरव्यू कर रहे थे. इंटरव्यू जबरन वसूली करने वाले सुनील घाटे के साथ गवली के संबंधों को लेकर था. सवालों से गुस्साए गवली ने हफीज को थप्पड़ मार दिया और फिर उन्हें घर से निकल जाने के लिए कहा. वे बाहर निकल ही रहे थे कि सैकड़ों लोगों ने उन्हें घेर लिया. भीड़ ने उनका फोन छीन लिया, उनकी मोटरसाइकिल तोड़ दी और चार घंटे तक उनकी पिटाई की. अंततः लगभग अचेतावस्था में हफीज को पास की पुलिस चौकी ले जाया गया. यहां उल्टे उन पर ही आरोप लगाया गया कि वे विधायक के घर में चाकू लेकर घुस गए थे. हफीज बताते हैं, ‘पुलिस ने चाकू पर मेरे फिंगर प्रिंट लेने की कोशिश की. उन्होंने यह मानने से ही इनकार कर दिया कि मैं एक रिपोर्टर हूं. जब मैंने उनमें से एक को बताया कि मैं पूरे दिन रोजे पर रहा हूं तो उसने मुझे पानी और खजूर दिया. साथ ही मां से बात करने के लिए एक फोन भी. सबसे पहले मैंने अपने संपादक से बात की. फिर मुंबई के पुलिस कमिश्नर से.’ हफीज को एफआईआर लिखवाने में आठ घंटे लगे. सात साल बाद वे हंसते हुए कहते हैं, ‘क्या अपनी खबर ऐसे भी शुरू की जा सकती है?’
हफीज अपवाद नहीं हैं. 23 साल के आनंद पिछले डेढ़ साल से एक अखबार के लिए क्राइम बीट देख रहे हैं. उनका मानना है कि संपादक युवाओं के भरोसे इस बीट को चलाते हैं. वे खतरों से खेलने की उनकी प्रवृत्ति का फायदा उठाते हैं. आनंद मानते हैं कि यह बीट सिर्फ इसलिए ही चुनौतीपूर्ण नहीं है कि यह आपके भोलेपन को समाप्त कर देती है बल्कि इसलिए भी है कि एक दिन में ही आपको बड़ी तादाद में लोगों के साथ नेटवर्किंग करनी पड़ती है. वे कहते हैं, ‘शुरुआत में पुलिस थाने में जाकर यह पूछना भी कठिन था कि एसएचओ कहां बैठते हैं.’ वक्त के साथ उन्होंने अंदरूनी कामकाज के तौर-तरीके सीख लिए. वे बताते हैं, ‘छोटा और महत्वहीन अधिकारी चाहता है कि उसे ‘सर’ कहकर बुलाया जाए. जो लोग आदेश देते हैं और जो जमीनी स्तर पर उन्हें लागू करते हैं, उनके बीच कोई समानता नहीं होती, फिर भी आपको एक साथ सबको साधना होता है.’
क्राइम रिपोर्टरों की दुनिया में, खास तौर पर मुंबई में, धमकी मिलने का मतलब होता है कि आप सही दिशा में काम कर रहे हैं
समाज की इस जटिल परत की पैमाइश के लिए आपको कोई पत्रकारिता स्कूल तैयार नहीं करता. हफीज बताते हैं कि कैसे शुरुआत में वे एक खबरी से मिलने के रोमांच में पूरी मुंबई घूम लेते थे. वे बताते हैं, ‘बाद में मुझे समझ में आया कि किसी को अपने ऑफिस के पास बुलाना ज्यादा सुरक्षित है.’ अंग्रेजी समाचार चैनल न्यूज-एक्स की ब्यूरोचीफ नीता कोल्हात्कर बताती हैं कि सात साल के क्राइम रिपोर्टिंग करियर में सबसे खरी सलाह उन्हें स्वर्गीय हेमंत करकरे से मिली थी. वह यह थी कि पुलिस का बर्ताव आपके साथ दोस्ताना हो सकता है लेकिन पुलिस आपकी दोस्त नहीं है. कोल्हात्कर कहती हैं, ‘जितनी बार पुलिस मेरी खबर का सूत्र होती है उतनी ही बार वह मेरे लिए बाधा भी होती है.’ बेंगलुरु के डेक्कन क्रॉनिकल के प्रिंसिपल करस्पांडेंट अंबरीश भट्ट का मानना है कि क्राइम रिपोर्टिंग का पहला सिद्घांत है कि पुलिस पर विश्वास मत करो. वे कहते हैं, ‘एक आलसी रिपोर्टर और एक भ्रष्ट सिपाही में एक खास रिश्ता होता है. रिपोर्टर स्टोरी को एक भी कदम आगे नहीं ले जाएगा और पुलिसवाला उसे ऐसा करने के लिए उत्साहित नहीं करेगा. स्टोरी के तीन पक्ष होते हैं- पुलिस का, आरोपित का और आरोपी का. एक क्राइम रिपोर्टर को गवाहों की भी छानबीन करनी चाहिए.’ कोबरा पोस्ट के इन्वेस्टिगेटिंग रिपोर्टर संजीव यादव कहते हैं कि पुलिस अपनी साख बचाने में ही सबसे ज्यादा व्यस्त रहती है इसलिए सबूतों को सामने लाने में रिपोर्टर को ज्यादा बड़ी भूमिका निभानी पड़ती है.
कोल्हात्कर रिपोर्टरों की तुलना डॉक्टरों से करते हुए कहती हैं कि दोनों का ही काम ‘समाज की बुराइयों को खोजना और उन्हें साफ करना है.’ अपने पेशे की मांग को पूरा करने के लिए दोनों को बाहर से कठोर होना चाहिए. आनंद कहते हैं, ‘मैंने वह घटना कवर की थी जिसमें प्रसादनगर में एक ड्राइवर ने तीन बच्चों के साथ 18 महीनों तक गैंगरेप किया था. आज से 50 साल बाद भी मैं उस घटना को याद करूंगा तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाएंगे.’ हालांकि वे यह भी कहते हैं कि धीरे-धीरे बहुत संवेदनशील रिपोर्टर भी बिना किसी भावुकता के पूछने लगता है कि कितनी गोलियां लगीं? क्या सिर एकदम कटा हुआ था? या बॉडी कितनी बुरी तरह जली है? वे कहते हैं, ‘यह स्वाभाविक है. इस तरह की पत्रकारिता आपको बदलकर रख देती है.’
अगर आपको लगता है कि अपराध की दुनिया के साथ महिलाएं तालमेल नहीं बैठा सकतीं तो आपको पूर्व क्राइम रिपोर्टर एस हुसैन जैदी की हालिया किताब ‘माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई’ जरूर पढ़नी चाहिए. इसमें वे अपराध की दुनिया के किरदारों की एक नयी जमात पेश करते हैं- कमाठीपुरा की डॉन गंगूबाई, हाजी मस्तान की सलाहकार जेनाबाई, और अशरफ जिसने अपने पति के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बाद कयामत ही ढा दी थी. हफीज का अनुमान है कि भारत में महिला क्राइम रिपोर्टरों की तादाद 20 फीसदी है, आंकड़ा 20 फीसदी भले हो मगर हफीज इसे बड़ा मानते हैं. कोल्हात्कर मानती हैं कि जागरूक मीडिया और तकनीकी विकास ने महिलाओं के लिए भी क्राइम रिपोर्टिंग की दुनिया बदल कर रख दी है. वे कहती हैं, ‘लोगों को अब खुफिया कैमरे का डर सताता है और वे फोन पर बात करना ज्यादा पसंद करते हैं. मुझे इससे कोई परेशानी नहीं होती.’
साहस के प्रदर्शन और दृढ़ निश्चय की अपनी एक अदृश्य कीमत भी होती है. राष्ट्रीय सहारा के राजीव रंजन ने अपने शुरुआती दिनों में बतौर क्राइम रिपोर्टर एक बेसहारा गर्भवती लड़की के बारे में लिखा था जो दिल्ली के अंबेडकर अस्पताल में प्रसूति के लिए आई थी लेकिन उसे भर्ती करने से इनकार कर दिया गया. जरूरी मेडिकल सहायता के अभाव में बच्चा मर गया. रंजन ने इस घटना पर इतनी बढ़िया खबर लिखी कि डॉक्टर को निलंबित कर दिया गया. कुछ साल बाद रंजन अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल गये और संयोग देखिए कि उन्हें बतौर इंचार्ज वही डॉक्टर मिला. रंजन बताते हैं कि ‘उसने मुझसे कहा कि मैंने उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी.’ हालांकि बाद में वह डॉक्टर उनकी पत्नी का केस लेने के लिए राजी हो गया. इसके कुछ ही घंटे बाद उनकी पत्नी का गर्भपात हो गया. रंजन कहते हैं, ‘हो सकता है कि वे बहुत कमजोर रही हों. . .’ लेकिन उनकी प्रवृत्ति उन्हें इस बहाने की आड़ में चैन नहीं लेने देती. वे कहते हैं, ‘मुझे अब भी नहीं समझ में आता कि मैं क्यों तैयार हो गया. मेरे भीतर ही कहीं यह भी यकीन था कि वह अपने पेशे के साथ दगा नहीं करेगा.’
शायद कभी-कभी एक क्राइम रिपोर्टर को भूलने की जरूरत सबसे ज्यादा होती है.