राजस्थान में पर्यटकों के रुझान की बात करें, तो यहाँ की सांस्कृतिक सम्पदा, वन्य जीव, स्थापत्य कला, अर्वाचीन काल के महल क़िले और लोक तत्त्व तथा लोक कलाएँ है। इन्हें आर्थिक विकास का वट वृक्ष कहा जाए, तो ज़्यादा तर्कसंगत होगा। पर्यटन नगरी के रूप में विकसित हो रहे कोटा के ऐतिहासिक दरवाज़ें को नया रूप देकर सहेजने-सँवारने में भी कोई कोताही नहीं बरती गयी। निकास के सभी दरवाज़ें पर उत्कीर्ण किये गये मांडणे पूरी तरह लोक कलाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। हाथी-घोड़ों के कलाकृतियों से सुसज्जित दरवाज़ें पर्यटकों को किस क़दर सम्मोहित करेंगे, कहने की ज़रूरत नहीं है। कोटा में शहरी पर्यटन से जुड़े हुए कार्यों की तादाद अपार है, तो ग्रामीण पर्यटन भी पीछे नहीं छूटा है। देशी, विदेशी पर्यटकों की ग्रामीण संस्कृति के पीछे दीवानगी देखते हुए रथकांकरा, कैथून, धर्मपुरा, दरा, धाकडख़ेड़ी पर्यटकों की अगवानी और मेहमानवाज़ी में अव्वल बन गये हैं। पिछले एक साल में अमेरिका, वर्जीनिया, अलास्का और दक्षिण भारत से आने वाले सैलानियों की कतार लगी रही।

इन गाँवों में ग्रामीण संस्कृति की तरह जीवंत हो चुकी है। पर्यटकों को टापरी के नीचे पारम्परिक चूल्हों के पास खाट और बाजोट पर बैठाकर बाजरे की रोटी, लाल मिर्च लहसुन के साथ पसंदीदा चटनी परोसी जा रही है। कोटा के आस-पास बसी हुई छोटी-छोटी टापरियाँ लालटेन के उजालों में खाटों और चौकों पर बैठकर ज्वार-बाजरे की रेाटियाँ, हाँडियों में हींग-जीरे की महक में पकते पालक, कुल्फों की सब्ज़ियों के प्रति सैलानियों में रुझान बढ़ा है। उसने चोखी ढाणी सरीखे अनेक गँवई झोकों की कतार बढ़ा दी है। शहरी चकाचौंध से ऊबे हुए सैलानियों का इनमें बढ़ता जमावड़ा इस बात की तस्दीक़ करता है कि लोग भूले हुए रहन-सहन और भोजन का असली स्वाद पाने की ललक में ढाणियों की तरफ़ दौड़ रहे हैं।
धारीवाल ने ग्राम्य पर्यटन के प्रति सैलानियों के रुझान को कोताही नहीं बरती। नतीजतन गाँवों की तरफ़ एक उन्मुक्त बदलाव स्पष्ट नज़र आने लगा है। सैलानियों की सौम्य भाषा धारीवाल के नज़रिये की पुष्टि करती नज़र आती है कि ‘यहाँ न मॉल है। न मॉल रोड है। न ही भीड़-भाड़ और गाडिय़ों की शोर-शराबा। उस गीत की पंक्तियों की तरह कि ये रातें, ये नदिया, ये मौसम और तुम। सैलानी इन गाँवों के खेतों में जा सकते हैं। अमराइयों में जा सकते हैं और खाटों पर बैठकर मोटे अनाजों की रोटी का स्वाद ले सकते हैं। यानी पारम्परिक पर्यटन से दिल भर गया हो, तो ग्रामीणों के साथ बैठकर देसी स्वाद के चटखारे ले सकते हैं। ठंडे मौसम में ग्रामीण पर्यटन कुछ और आनंद देता है। सौन्दर्य नहीं होगा, तो आकर्षण कैसे होगा?’

हालाँकि रियासत काल में भी कोटा की विशिष्ट पहचान रही है। इतिहासकार कर्नल टॉड ने एक शताब्दी पहले अपने ग्रंथ ‘एमल्स एंड एंटीविटिंज’ में कोटा के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है। लेकिन नवीनीकरण के बाद तो इसका कलात्मक वैभव चमक उठा है। किशोर सागर जलाशय में नौकायन शुरू होने के बाद वाटर टूरिज्म कोटा की ख़ास पहचान बन चुका है। उल्लेखनीय है कि कोटा का क़लम भी अपने आप में अनमोल है और वैश्विक स्तर पर प्रख्यात हो चुका है। धीरे-धीरे विलुप्त होने की स्थिति में भी स्मार्ट शहरीकरण ने इनको नये सिरे से संरक्षण दिया है। किशोर सागर तालाब की पाल पर बना लक्खी बुर्ज 18वीं शताब्दी की विरासतों में गिनी जाती है। इसे कोटा के तत्कालीन दीवान जालिम सिंह ने बनवाया था। इसकी निर्माण कथा भी दिलचस्प है। कहा जाता है कि इसके निर्माण में 1,00,000 रुपये ख़र्च हुए थे। इसके लिए इसका नाम लक्खी बुर्ज रखा गया। यह बुर्ज उस कालावधि में इतना मज़बूत था कि तोप का गोला भी उस पर असर नहीं कर सकता था। अब लगभग 2.0 लाख कीलागत से इसका जीर्णोद्धार करवाया गया है।
आज जिस तरह ‘पधारों महारो देस’ की तर्ज पर पावणों की अगवानी के लिए दरवाज़ें और द्वार अपने विरासत चरित्र से अभिन्न रूप से जोड़े गये हैं। स्पष्ट लगता है कि गम्भीर परामर्श दृष्टि के साथ ही इन पर पेशेवर हाथ आजमाये गये हैं। हवेलियों और दरवाज़ें पर लोक कला का प्रतिनिधित्व करने वाले चित्र दिखायी देते हैं। अगर शेखावाटी विश्व की सबसे बड़ी मुक्ताकाशी के रूप मे चर्चित है, तो इसकी बड़ी वजह यही है रियासतकालीन दरवाज़ें का पुराना वैभव लौटाने के लिए 11 करोड़ ख़र्च किये गये हैं। इसका मुख्य उद्देश्य पुराने कोटा में बने दरवाज़ें का हेरिटेज लुक बरक़रार रखते हुए पर्यटकों को शहर के गौरवशाली इतिहास से रू-ब-रू कराना। हालाँकि प्राचीनकाल में परकोटे के 11 दरवाज़ें थे; लेकिन जब समय के साथ कोटा ने परकोटे के बाहर पैर पसारे, तो ज़रूरत के हिसाब से दरवाज़ें हटाकर रास्ते बना दिये गये अब पुरातत्त्व विभाग के मशविरे के साथ ही दरवाज़ें का नवनिर्माण उदयपुर और जयपुर के दरवाज़ें की सार-सँभाल कर चुके कारीगरों ने ही किया है। पावणों की अगवानी की की दृष्टि से दरवाज़ें के बाहर प्रतीकात्मक मूर्तियाँ भी लगायी गयी हैं। पावणों के स्वागत के लिए ऐतिहासिक दरवाज़ें के जीर्णोद्धार के साथ जिस तरह लोकशैली के मांडणे उकेरते हुए इनका ऐतिहासिक वैभव निखारा गया है; संस्कृति की अंतर्यात्रा का आभास कराते हैं।

कला समीक्षक डॉ. राजेश कुमार व्यास कहते हैं कि, ‘कोई भी सार्वजनिक इमारत अपनी सार्थकता तभी बनाये रख सकती है, जब वहाँ संस्कृति के मूल्यों का पोषण हो। जयपुर का जवाहर कला केंद्र अपनी कला सम्पन्नता से इस बात की पुष्टि करता है। दरवाज़ें के जीवंत चित्रण के बारे में धारीवाल की मान्यता है कि कोई भी ऐतिहासिक इमारत साँस लेती भी तभी प्रतीत होती है, जब वहाँ संस्कृति से जुड़ी हमारी परम्पराओं को आधुनिक संदर्भों में गवाही देती हो।’
धारीवाल जयपुर में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की तर्ज पर इस तरह प्रयोग कर चुके हैं। धारीवाल की सौन्दर्य परिपक्वता तो उनके प्रत्येक निर्माण में झिलमिलाती है। उनका कहना है कि अनुभूति में सौन्दर्य का समावेश तभी होता है। जब कला सम्पन्न दृष्टि के साथ निर्माण करवाया जाए। धारीवाल ने कोटा में विकास का जो दृष्टिकोण अपनाया है, उसमें सौन्दर्य नवनिर्माण की अपेक्षा कला सम्पन्नता को ज़्यादा महत्त्व दिया है। उनका मानना है कि जब तक सौन्दर्यानुभूति नहीं होगी, धन का अर्जन कैसे होगा? जब तक आकृति को आँखों को सुहाने वाली नहीं होगी, सैलानियों का रुझान कैसे सम्पन्न होगा। सृजन नहीं होगा, तो अर्जन कैसे होगा?

विरासतों को सँजोते हुए नगरीय विकास का ख़ूबसूरत महल बनाना कोई आसान काम नहीं था, जबकि क़दम-क़दम पर विराटता और अहमियत को नज़र आना था। समन्वित संस्कृतियों केा गढऩे वाले धारीवाल को इस मुक़ाम पर हर क़िस्म की पाबंदियों को तोडक़र बाहर निकलना था। ख़ासकर तब, जब उन्होंने ख़ालीपन और बातों के नुकीलेपन की बदौलत यह दावा किया था। ज़ाहिर है लोगों को संशय तो था; लेकिन उनकी मशक़्क़त को लोगों नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था। हालाँकि धारीवाल के शुरुआती लफ़्ज़ काँच को तोड़ती ईंट की तरह थे। लेकिन उनमें साफ़गोई और बेतकल्लुफ़ी भी थी। कहने की ज़रूरत नहीं जब आख्यान पूरे बाँकपन के साथ ज़मीन पर उतरा, तो बेहिसाब तरीक़े से वक़्त की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा। जन कला में लोगों को झकझोरने और संवाद पैदा करने की ताक़त होती है। जिस तरह लोक कला को प्रश्रय देते हुए दरवाज़ें की सुध ली गयी है। उसने कलाकारों की शिकायतों का लहज़ा भी बदल दिया है। जो कहते थे कि अब हमारा कोई मोल नहीं रहा। निश्चित रूप से इस नव संयोजन में स्पिक मैके जैसी संस्था की पूछ-परख हुई होगी। यद्यपि दरवाज़ें की नव सज्जा में उदयपुर तथा शेखावाटी के कलाकारों का सहयोग लिया गया है। लेकिन इन सद्प्रयासों को चित्रकला के विभिन्न रूप में सम्मिलित लोक कला को नये सिरे से परिचित करवाया है। धारीवाल ने दरवाज़ें को एक हसीन क़सीदाकारी से समृद्ध कर दिया है।