‘क्या आपने कभी बिना तराशा हुआ हीरा देखा है?’ 70 वर्षीय नवरतन कोठारी पूछते हैं. जिस अनगढ़ हीरे की बात कोठारी कर रहे हैं वह 18वीं सदी में आमोद-प्रमोद के लिए जयपुर में बनाया गया जल महल है. इसका ऐसा नाम पड़ा मान सागर नाम की देश की सबसे बड़ी मानव निर्मित झीलों में से एक के बीचोंबीच इसके बने होने की वजह से. जब तक कोठारी ने इसे नहीं तराशा था तब तक जल महल और 17वीं सदी में बनी झील शहर भर की गंदगी को ठिकाने लगाने की जगह थे. उस वक्त यहां पक्षियों के बजाय सुअर घूमते पाए जाते थे. छह साल की कड़ी मेहनत और साफ-सफाई के बाद, वर्ष 2010 में मान सागर झील 40 से ज्यादा प्रजाति के पक्षियों के प्रवास की जगह बन गई. यहां के साफ पानी में तैरती हुई बतखें देखी जा सकती थीं और कछुए भी. जलमहल सही मायनों में महल बन चुका था. पहले की तरह भव्य और सुंदर.
मगर आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी और अनमोल विरासत को हड़पने के लिए दस्तावेजों की जालसाजी करने का आरोप लगाकर तीन याचिकाकर्ता, नवरतन कोठारी को अदालत में ले गए. राजस्थान पुलिस ने तीन बार इन आरोपों की जांच की और तीनों बार राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष किसी भी गड़बड़ी की आशंका से इनकार कर दिया. मगर अदालत ने न केवल इसे नहीं माना बल्कि कोठारी और राजनेताओं के बीच मिलीभगत को न देख पाने के लिए पुलिस को फटकार भी लगाई. 16 नवंबर, 2011 को अदालत ने कोठारी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी कर दिया. इस साल 17 मई को मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने कोठारी की कंपनी द्वारा किए गए काम को फिर पहले वाली स्थिति में पहुंचाने का फैसला सुनाया. दूसरे शब्दों में कहें तो अब हर तरह की गंदगी को सीधे ही झील में डाला जा सकता था. मगर 25 मई को सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाई कोर्ट के आदेश पर स्टे लगा दिया और कोठारी की संस्था जल महल रिसोटर्स प्रा लि को मान सागर और जल महल से संबंधित उसके काम जारी रखने की इजाजत भी दे दी. कोठारी ने कुछ गलत किया हो या नहीं मगर उनकी कहानी के इर्द-गिर्द विकास, इतिहास, संस्कृति और संरक्षण से जुड़े कई बुनियादी सवाल बुने हुए हैं – क्या हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर की कीमत समझते हैं? क्या हम अपने शहरों को कंक्रीट, लोहे और शीशे के जंगलों में तब्दील कर उन्हें एक ही जैसा बना देना चाहते हैं? या फिर हम पुरानी तहजीब, रवायत और ऐतिहासिक विरासत वाले लखनऊ, हैदराबाद, दिल्ली और जयपुर सरीखे शहरों की पहचान को बनाए रखना चाहते हैं?
1596 में राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा था. ऐसा दुबारा न हो ऐसा सोचकर आमेर के राजा मान सिंह प्रथम ने 1610 में मान सागर झील बनाने के लिए दर्भावती नदी पर एक बांध बनाया था. राजा जय सिंह ने 1727 में किलानुमा शहर जयपुर की स्थापना की. इसके बाद उन्होंने 1734 में अपने आमोद-प्रमोद के लिए जल महल का निर्माण करवाया. आजादी के बाद झील और महल राजस्थान सरकार की संपत्ति होकर धीरे-धीरे तबाह होते गए. 1962 तक आते-आते जयपुर शहर की जरूरतें इतनी बढ़ीं कि शहर की तमाम गंदगी दो नालों – नागतलाई और बृह्मपुरी – की मदद से मान सागर झील में डाली जाने लगी. झील के किनारे बसी हजरत अली कॉलोनी में रहने वाले रफीक अहमद उस समय की हालत बयान करते हुए कहते हैं, ‘जब मेरी बेटी का निकाह 21 बरस पहले हुआ था तब मेहमानों का कहना था कि खाने-पीने से अच्छा होता कि आप हमें इत्र दे देते.’
लेकिन हर कोई खुश नहीं था. जब यह महल पर्यटकों की पहली टोली की बाट जोह रहा था. ठीक उसी वक्त कुछ लोग इससे नाराज हो गए.
जल महल की दशा को सुधारने के प्रयासों की शुरुआत 1999 में तब हुई जब राज्य सरकार ने पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी के जरिए ऐसा करने की सोची. इसमें सरकार की भूमिका राष्ट्रीय झील विकास फंड के 25 करोड़ रुपये के जरिए झील को साफ करने की थी. निजी संस्था को जल महल का पुनरुद्धार करना था और झील व जल महल दोनों के रखरखाव का सालाना खर्च भी वहन करना था. इसके एवज में कंपनी को पास की 100 एकड़ जमीन पर्यटक केंद्र विकसित करने के लिए दी जानी थी जिसके एक छोटे हिस्से पर वह निर्माण कार्य कर सकती थी. नीलामी से पहले की बैठक में इस तरह के काम का लंबा अनुभव रखने वाले नीमराणा समूह जैसी कई कंपनियां शामिल हुई थीं. लेकिन जैसा कि नीमराणा के संस्थापक फ्रैंकिस वैक्जर्ग का कहना था कि इस तरह की परियोजनाओं पर काम करना काफी परेशानी भरा हो सकता है. ‘यह बेहद जटिल और खर्चे वाला काम था और हमारे पास झील को साफ करने के लिए जरूरी धन भी नहीं था. अपने अनुभवों से हम जानते हैं कि पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी में प्राइवेट का पी तो काम करता है मगर पब्लिक का पी ठीक से काम नहीं करता.’
इसलिए वे और इसमें शुरुआती रुचि दिखाने वाली ज्यादातर कंपनियां दौड़ से अपने आप ही बाहर हो गईं. आखिर में केवल तीन कंपनियां बच गईं और कोठारी के नेतृत्व वाली केजीके कंसोर्टियम ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 39 फीसदी ज्यादा बोली लगाकर नीलामी में बाजी मार ली. कंपनी ने नीलामी के लिए जरूरी न्यूनतम राशि की डेढ़ गुना – 2.5 करोड़ – दी थी. केजीके कंसोर्टियम कई कंपनियों का एक समूह था जिससे द जल महल रिजॉर्ट्स प्रा लि बनी. कोठारी की टीम को जल्दी ही अंदाजा हो गया कि पब्लिक के पी के काम न करने की वैक्जर्ग की बात सही थी. झील फंड के 25 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जब सरकार ने उन्हें 2004 में झील और जल महल सौंपे तो झील की हालत कमोबेश पहले जैसी ही थी. उस वक्त सरकार का कहना था कि अगर कोठारी झील के लिए कुछ और करना चाहते हैं तो उन्हें ऐसा अपने पैसों से करना होगा. इसके बाद परियोजना निदेशक राजीव लुंकड़ ने एक ऐसे व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की जो मानव निर्मित झीलों की दशा सुधारना जानता हो. उनकी खोज उन्हें जर्मन इंजीनियर हैरल्ड क्राफ्ट के पास ले गई. एक नजर झील पर डालने के बाद क्राफ्ट का कहना था, ‘ऐसा करना असंभव है. आप लोग पागल हैं जो इसे साफ करने की कोशिश कर रहे हैं.’ मगर क्राफ्ट ने झील का काम करना स्वीकार कर लिया. पहले पहल क्राफ्ट की टीम ने दो नालों को आपस में जोड़ने का फैसला किया ताकि सारी गंदगी एक जगह इकट्ठी की जा सके. इस पानी को ट्रीटमेंट के बाद एक सेडीमेंटेशन टैंक में भेजा गया जिसे झील के ही एक कोने में बनाया गया था. यहां से निकला पानी झील में गया. लेकिन यह काफी नहीं था. 250 एकड़ में फैली झील 1960 के बाद से लगातार गंदगी सोखती आ रही थी इसलिए इसे ठीक से साफ करने के लिए इसे पूरी तरह से खाली करने की आवश्यकता थी. इसके बाद जब पहली बारिश हुई तो आश्चर्यजनक नतीजे देखने को मिले. जल महल रिसॉर्ट के अधिकारियों ने 2007 की गर्मियों में झील के पानी की जांच विशेषज्ञों से करवाई. जांच के नतीजों में सामने आया कि टैंक में जाने से पहले जहां पानी में ऑर्गेनिक कचरे की मात्रा 450 बीओडी (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) थी वहीं बाहर निकलने वाले पानी में यह मात्र 25 बीओडी ही रह गई थी. ई-कोलाई बैक्टीरिया की संख्या में भी काफी कमी आई थी. साल 2000 में पानी में प्रति यूनिट इसकी संख्या जहां 24 लाख थी वहीं 2009 से 2011 के बीच यह प्रति यूनिट केवल 7,000 रह गई. मान सागर के आसपास रहने वाले लोग अब खुद को शान से जल महल का पड़ोसी बताने लगे थे.
इस बीच टीम अब-भी जल महल के पुनरुद्धार में व्यस्त थी. जयपुर के इतिहास पर काफी विस्तार से लिख चुके इतिहासकार गाइल्स टिलोस्टन इस पर रोशनी डालते हैं. ‘अगर आप किसी भवन को जिंदा करना चाहते हैं तो आपको उसे पूरी तरह से बदलना होगा. आप समय को उल्टा नहीं चला सकते.’ इसका मतलब था भवन की मूल संरचना को सुरक्षित रखते हुए बेहद चतुराई से इसके नये उपयोग ढूंढ़ना. बस, जल महल की आंतरिक सज्जा आनंद में रची-बसी पिछली दो सदियों की कलाकृतियों की जीती-जागती यात्रा बन गई. कला पक्ष का जिम्मा विभूति सचदेव के सिर था. उन्हें इसमें जीर्णोद्धार विशेषज्ञ मिशेल अब्दुल करीम क्राइट्स का भी सहयोग मिला. सचदेव बताते हैं कि किस तरह से उन शिल्पकारों को इस योजना के साथ जोड़ा गया जिनमें से ज्यादातर को अब तक सिर्फ टूट-फूट दुरुस्त करने का काम ही मिलता था. शिल्पकारों को संभालने वाले दीपेंद्र सिंह, यह सब कैसे हुआ, इस बारे में बताते हुए भावुक हो जाते हैं. समय और अनदेखी के कारण फर्श बुरी तरह टूटा-फूटा था, छतें उखड़ी हुई थीं और दीवारों की हालत बेहद खराब थी. इन जगहों पर बढ़िया संगमरमर और जालियां लगाई गईं जिससे भवन फिर अपने पुराने सौंदर्य में दमकने लगा. सबसे बड़ी चुनौती थी महल के बागीचे के पुनरुद्धार की जो पूरे महल की शोभा था. इसकी जिम्मेदारी क्राइट्स के सिर पर थी. उन्होंने बाग को सजाने के लिए सफेद खुशबूदार फूलों – चमेली, चंपा और श्वेत कमल – को लगाने का फैसला किया. इसका नाम रखा गया चमेली बाग. बागीचा अठारहवीं सदी के भारत की छाप है. इसमें फव्वारों और रोशनी के शानदार इस्तेमाल से भी इसे नाटकीय बनाने की कोशिश की गई है.
रोशनी का काम ध्रुवज्योति घोष के जिम्मे था. इन्हीं की कंपनी ने दिल्ली के हुमायूं मकबरे और सिडनी के ओपेरा हाउस की लाइटिंग की है. सूर्यास्त के बाद उनके द्वारा की गई प्रकाश व्यवस्था जल महल को एक अलग ही जादुई आकर्षण देती है. बागीचे का काम खत्म होने से पहले ही इसने बीबीसी द्वारा प्रायोजित पुस्तक अराउंड द वर्ल्ड इन एट्टी गार्डेन्स में अपनी जगह बना ली. झील को साफ कर लेने के बाद परियोजना के निदेशक राजीव लुंकड़ एक दिन दीपेंद्र सिंह के पास जा पहुंचे. वह शुक्रवार का दिन था. उन्होंने एक असंभव सी मांग रख दी, ‘मुझे सोमवार तक इस झील में एक नाव चाहिए?’. दीपेंद्र तुरंत बनारस के लिए रवाना हो गए. वहां उन्होंने एक नाव वाले – आशु – को अपनी नाव के साथ जयपुर आने के लिए बड़ी मुश्किल से मनाया. चार सदियों में हुए नुकसान की भरपाई छह सालों में कर ली गई थी. लेकिन हर कोई खुश नहीं था. जब यह महल पर्यटकों की पहली टोली की बाट जोह रहा था ठीक उस वक्त कुछ लोग इससे नाराज हो गए. 30 साल के भागवत गौर उच्च न्यायालय में वकालत करते हैं. उनकी नाराजगी की वजह यह बनी कि आखिर कैसे प्राकृतिक संसाधनों में शुमार की जाने वाली झील की जमीन एक निजी डेवलपर को दे दी गई. और वह भी बहुत कम पैसे में. गौर का मानना था कि ठेका देने की पूरी प्रकिया ठीक नहीं थी क्योंकि यह झील संरक्षित वन क्षेत्र के बीच में पड़ती है और परियोजना के लिए ठेका देते वक्त इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन नहीं किया गया था. गौर का आरोप था कि सरकार ने कोठारी की कंपनी को 100 एकड़ जमीन लीज पर देने के लिए झील के 13 बीघा क्षेत्र का भराव करवा दिया था. जब गौर ने इस संबंध में 2010 में राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तो उस वक्त इस 100 एकड़ जमीन की कीमत 3,500 करोड़ रुपये थी. उनके मुताबिक किराये के तौर पर इससे हर साल 2.5 करोड़ रुपये सरकार को मिलना ऊंट के मुंह में जीरे के समान है.
जल महल संरक्षित स्मारक नहीं है और यह उपेक्षा का शिकार था. ऐसे में कोई भी निजी कंपनी बगैर किसी फायदे के इसकी सेहत सुधारने का काम क्यों करेगी?
गौर का यह दावा भी था कि गाद का टैंक लगाने से झील का आर्किटेक्चर और इकोलॉजी बर्बाद हो गई है. ठेके के दस्तावेजों में कहा गया था कि इस परियोजना का काम या तो सरकारी या फिर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को दिया जाएगा. लेकिन कोठारी की कंपनी इन दोनों श्रेणियों में नहीं आती. इसका मतलब यह हुआ कि कानूनों का उल्लंघन करके दिया गया यह ठेका अवैध था. हालांकि, कोठारी के वकीलों ने इन दावों का अदालत में विरोध किया जिसका समर्थन राज्य सरकार ने भी किया. राज्य सरकार की कई एजेंसियों पर भी इस गड़बड़ी में शामिल होने का आरोप लगा है. इनका तर्क था कि मान सागर झील संरक्षित वन क्षेत्र में नहीं आती है और इस परियोजना के लिए सभी जरूरी मंजूरियां ले ली गई हैं. इन एजेंसियों और कोठारी के वकील का यह भी कहना था कि 1975 में जब जयपुर का मास्टर प्लान बना था तो उस वक्त भी इस झील को सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाली श्रेणी में रखा गया था. अगर सरकार ने लीज पर देने वाली जमीन को 100 एकड़ बनाने के लिए 13 बीघा जमीन का अधिग्रहण किया तो यह देखना चाहिए कि अब यह झील पहले की तुलना में कहीं ज्यादा क्षेत्र में फैल गई है. राजस्व विभाग के दस्तावेज बताते हैं कि पहले के 250 एकड़ की तुलना में यह झील अब 300 एकड़ से ज्यादा में है. कोठारी के वकील इस बात को भी काटते हैं कि उन्हें यह जमीन कौड़ियों के भाव सरकार ने दी थी. वे कहते हैं कि जब 2003 में कंपनी को ठेका मिला था तो उस वक्त इस जमीन की कीमत 900 करोड़ रुपये थी न कि 3,500 करोड़ रुपये. इसके अलावा इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कंपनी को सिर्फ छह फीसदी जमीन पर निर्माण कार्य करने की छूट है. इसका मतलब यह हुआ कि जितनी जमीन पर उन्हें निर्माण की छूट मिली है उसकी वास्तविक कीमत 50 करोड़ रुपये से अधिक नहीं है.
इसी तरह से वे याचिकाकर्ता के इस तर्क को भी काटते हैं कि झील से सटी किसी संपत्ति को लीज पर नहीं दिया जा सकता है. कोठारी की टीम कहती है कि जल महल संरक्षित स्मारक नहीं है और यह उपेक्षा का शिकार था. ऐसे में कोई भी निजी कंपनी बगैर किसी फायदे के इसकी सेहत सुधारने का काम क्यों करेगी? इस पूरे काम को अंजाम देने में कोठारी की कंपनी को 80 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े. सरकार ने भी झील से सटी जमीन को बेचने के बजाय यह रास्ता चुनना बेहतर समझा कि हर साल एक निश्चित रकम लेकर इसे 99 साल के लिए लीज पर दे दिया जाए. इन लोगों का यह भी कहना है कि गाद हटाने वाला ये टैंक झील की गंदगी को निकालने और इसकी इकोलॉजी को ठीक करने के मकसद से लगाया गया है न कि किसी और वजह से. ये टैंक झील के पूरे झेत्र के सिर्फ पांच फीसदी में लगा हुआ है. इसके अलावा सरकार ने साझेदारों वाली कंपनी को नीलामी में शामिल होने की अनुमति इसलिए दी क्योंकि इस कंपनी की वित्तीय व्यवस्था बिलकुल दुरुस्त थी और इससे निविदा की प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धा और बढ़ गई. हालांकि, यह बात अलग है कि कोठारी की टीम की तरफ से दिए गए तर्कों से उच्च न्यायालय संतुष्ट नहीं हुआ. अदालत ने साफ तौर पर कहा कि यह ठेका देने का तरीका गलत और असंवैधानिक था और ऐसा जनता के भरोसे को तोड़कर किया गया. लेकिन अगर कोई सिर्फ जल महल मामले की कानूनी पेंचों में ही फंसा रहेगा तो वह एक जरूरी बिंदु को समझ नहीं पाएगा. मान सागर झील और जल महल के जीर्णोद्धार की राह में सबसे बड़ी बाधा रही है राजनीति. इस पूरी कहानी के इस हिस्से की तस्वीर उतनी साफ नहीं है जितनी लगती है. सबसे पहले इस सवाल का जवाब तलाशना जरूरी है कि याचिका दायर करने वाले लोग कौन हैं और आखिर क्यों अचानक भागवत गौर को यह लगा कि जीर्णोद्धार के मुद्दे पर उन्हें कानूनी लड़ाई लड़नी चाहिए? तहलका से बातचीत में गौर ने इस बात को स्वीकार किया कि जीर्णोद्धार होने के बाद उन्होंने न तो झील में कदम रखा है और न ही जल महल में. आखिरी बार वे वहां तब गए थे जब वे पढ़ाई करते थे. झील और महल की सेहत सुधारने का काम चार साल चलने के बाद 2010 में गौर को इस बात का ख्याल आया कि कुछ गड़बड़ हो रहा है. वे कहते हैं, ‘धरोहरों को संरक्षण के लिए निजी क्षेत्र को नहीं देना चाहिए. सिर्फ जल महल ही नहीं बल्कि अलवर के नीमराणा किले को भी निजी कंपनी को दे दिया गया है. मैं इसके भी खिलाफ हूं.’
गौर ने एक सोसाइटी का गठन किया जिसका नाम रखा धरोहर बचाओ समिति (डीबीएस) और इसे 2010 के मार्च महीने में पंजीकृत कराया. इसके दो महीने बाद उन्होंने राजस्थान उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की. ऐसा लगता है कि याचिका दायर करने से मात्र दो महीने पहले ही उनकी इस मामले में दिलचस्पी जागी. गौर कहते हैं कि सोसाइटी की अनौपचारिक बैठकें पहले से हो रही थीं. लेकिन जब मामला जल महल का आया तो उन्हें लगा कि संस्था का पंजीयन करा लेना चाहिए. क्या उन्होंने यह मामला उठाने से पहले किसी पर्यावरणविद या झील विशेषज्ञ से बातचीत की थी? एक अजीबोगरीब जवाब मिलता है कि कुछ चीजों पर से पर्दा नहीं हटाया जा सकता. याचिका दायर करने के कुछ दिनों बाद गौर और डीबीएस के अध्यक्ष वेद प्रकाश शर्मा के बीच विवाद पैदा हो गया. गौर ने शर्मा पर तरह-तरह के आरोप लगाते हुए उन्हें संगठन छोड़ने के लिए कहा. इसके बाद अलग होकर शर्मा ने हेरिटेज कंजर्वेशन सोसायटी बनाई और इस परियोजना के खिलाफ एक अलग याचिका दायर की. इन दोनों याचिकाओं के दायर होने के साल भर बाद एक तीसरी याचिका प्रोफेसर केपी शर्मा ने दायर की. वे राजस्थान विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं. उन्होंने अपनी याचिका में यह कहा कि जीर्णोद्धार के बाद झील का खारापन खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. उनकी रिपोर्ट अब तीनों याचिकाओं का हिस्सा बन गई है.
वसुंधरा राजे और उनके दफ्तर को इस बात का बिल्कुल अंदाज नहीं था कि यह ईमेल उन्हें सीधे-सीधे याचिकाकर्ताओं से जोड़ देगा
वनस्पति विज्ञान के जानकार कहते हैं कि यह एक तथ्य है कि शहरी इलाके की झीलों का खारापन समय के साथ बढ़ता ही है. मान सागर झील शहर के बीचोबीच है और यहां का भूजल काफी प्रदूषित है. केपी शर्मा का यह तर्क वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है कि खारापन बढ़ने से एक दिन यह झील पूरी तरह से सूख जाएगी. जर्नल ऑफ हाइड्रोलॉजिकल रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट में प्रकाशित एक अध्ययन भी शर्मा के दावों पर पानी फेरता है. जल महल रिसॉर्ट से मिले और कुछ अपने आंकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक एबी गुप्ता और उनके तीन सहयोगियों ने यह निष्कर्ष निकाला है, ‘झील के पुनरुद्धार के लिए अपनाए गए तरीकों जैसे कि ट्रीटमेंट प्लांट से कचरा निकालना और सेडीमेंटेशन टैंक की व्यवस्था से झील के पानी की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है.’ जल महल मामले के पीछे जारी राजनीति का सुराग याचिकाकर्ताओं की पृष्ठभूमि के साथ-साथ याचिका में उनके द्वारा उठाए बिन्दुओं से भी मिलता है. अपनी याचिका में उन्होंने साफ बताया है कि कोठारी का सबसे बड़ा अपराध यह था कि उन्हें अशोक गहलोत की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार का समर्थन प्राप्त था. याचिका में इस बात को रेखांकित किया गया है कि लीज के कागजों पर गहलोत सरकार का कार्यकाल समाप्त होने से ठीक एक दिन पहले दिसंबर 2003 में हस्ताक्षर किए गए थे. उसके बाद आई भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान झील के आसपास की 100 एकड़ ज़मीन पर प्रस्तावित तमाम विकास योजनाओं पर कभी दस्तखत नहीं हुए. यह भी कहा जाता है कि कोठारी को प्रोजेक्ट दिलवाने में कल्पतरु नामक गहलोत की करीबी फर्म की मुख्य भूमिका रही. नतीजतन, एक ऐसा महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट जिसे जयपुर के एक हिस्से को उसे ही लौटाने के लिए शुरू किया गया था, राजनीतिक मल्लयुद्ध में फंस गया.
यह बात सही है कि गहलोत सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिन लीज पर दस्तखत किए हुए थे. मगर वसुंधरा राजे की सरकार ने लगभग 10 महीने तक इस प्रोजेक्ट की समीक्षा भी तो की थी. इसके बाद, 27 अक्टूबर, 2004 को लीज और लाइसेंस के कागज़ातों पर दस्तखत किए गए. दोनों नालों को मिलाने और झील की गाद हटाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय और राज्य के शहरी विकास सचिव ने भी अपनी मजूरी दे दी थी. जब मरम्मत का काम लगभग पूरा हो गया और कोठारी ने झील के आसपास की ज़मीन को विकसित करके कुछ मुनाफा कमाना चाहा, तब उन्हें तुरंत अदालती समन भेज दिए गए. हालांकि मरम्मत का काम भाजपा कार्यकाल में भी चलता रहा, पर झील के सामने बनाए जाने वाले होटल, रेस्तरां और क्राफ्ट बाज़ार अनुमति मिलने की बाट जोहते रहे. इन सभी योजनाओं को सन 2009 में कांग्रेस सरकार के आते ही स्वीकृति मिल गयी. इस मुद्दे पर राज्य विधानसभा में काफ़ी बहस भी हुई थी. फरवरी, 2011 के विधानसभा सत्र के दौरान राजस्थान पर्यटन मंत्री बीना काक ने जल महल विकास योजनाओं को सन 2006 से 2008 तक रोकने के पीछे राजे सरकार के मंतव्यों पर सवाल उठाये थे.
उन्होंने भाजपा सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि जल महल से जुड़ी सभी विकास योजनाएं इसलिए रोक दी गयीं कि प्रोजेक्ट में एक गैरकानूनी भागीदारी की मांग को पूरा नहीं किया गया था.इन सवालों ने ही तहलका को भी याचिकाकर्ताओं और वसुंधरा राजे सरकार के बीच संभावित संबंधों को टटोलने के लिए मजबूर किया.
याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने बताया कि जल महल के मुद्दे पर उनकी पूर्व-मुख्यमंत्री से कभी कोई मुलाकात ही नहीं हुई है. जब तहलका ने इस बारे में वसुंधरा राजे से बात की तो उन्होंने कहा, ‘मेरा ऑफिस आपको मामले से संबंधित सभी दस्तावेज़ भेज देगा. आप पहले उन्हें पढ़िए, फिर हम बात कर सकते हैं.’ उनके प्रेस सचिव ने तहलका को जलमहल से सम्बंधित दस्तावेजों का ईमेल भेजा. इस ईमेल में ‘जल महल समरी’ नामक एक दस्तावेज़ भी मौजूद था. राजे और उनके दफ्तर को इस बात का बिल्कुल अंदाज नहीं था कि यह ईमेल उन्हें सीधे-सीधे याचिकाकर्ताओं से जोड़ देगा. यह ईमेल राजे के ईमेल अकाउंट से फॉरवर्ड किया गया था, जहां उसके मूल सेंडर के तौर पर भागवत गौर के वकील अजय जैन का नाम था. तहलका ने जब इस बारे में पूछताछ की तो राजे के प्रेस सचिव का कहना था, ‘आप जो चाहें वह लिख सकती हैं पर हमारा याचिकाकर्ताओं से कोई संबंध नहीं है.’ एक कहानी जिसकी शुरुआत मान सागर और जल महल के जीर्णोद्धार के लिए हुई थी, अब राजनीतिक रंगमंच में तब्दील हो चुकी है. कोठारी के साथ-साथ, उन तीन सरकारी कर्मचारियों को भी अपराधी और षड्यंत्रकारी घोषित कर दिया गया जिन्होंने जल महल के जीर्णोद्धार से संबंधित कागजों पर हस्ताक्षर किए थे. लेकिन सरकार और कोठारी को इस कहानी का खलनायक मानना पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और इसके जरिए हो सकने वाले ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं.
कंज़र्वेशन आर्किटेक्ट अनिशा शेखर मुखर्जी बताती हैं कि जंतर-मंतर के संरक्षण पर काम करते वक्त उन्हें भी कोठारी जैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा था. अपने अनुभव बताते हुए वे कहती हैं, ‘हर बार जब भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का मुखिया बदलता, हमें हमारा पूरा काम उसे नए सिरे से दोबारा समझाना पड़ता था.’ आगा खान ट्रस्ट प्रोजेक्ट के निदेशक रत्नीश नंदा कहते हैं, ‘हम आज भी अपनी धरोहर को एक बोझ की तरह देखते हैं, निधि की तरह नहीं. उदाहरण के लिए, अगर आगरा यूरोप में होता, तो यहां के लोगों का जीवन स्तर काफी बेहतर होता. जबकि अभी इसका उल्टा है.’ इसी बीच कन्सेर्वेशनिस्ट गुरमीत राय एक महत्वपूर्ण बिंदु की तरफ ध्यान खींचते हैं. कल्चरल रिसोर्स कंजर्वेशन इनिशिएटिव के निदेशक के तौर पर कार्य कर रहे राय बताते हैं कि दुनिया भर में जितनी भी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप होती हैं वह सब उस देश की धरोहरों को बचाने के लिए विकसित की गई एक सोच का परिणाम होती हैं. वे कहते हैं, ‘भारत में तो हमारे पास ऐसा कोई रोड मैप ही नहीं है. मैं भी पंजाब के नाभा फोर्ट वाले प्रोजेक्ट के दौरान अदालती कार्यवाहियों में उलझ गया था. असल में वह प्रोजेक्ट नाभा के महाराज के पड़पोते ने शुरू करवाया था पर मेरे खिलाफ याचिका दायर करने वाले व्यक्ति को लगा कि मैं किले को एक मॉल में तब्दील करने जा रहा हूं. लेकिन पंजाब हाई-कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा कि धरोहर को बचाने के लिए निजी क्षेत्र का इस्तेमाल करना अच्छी बात है.’ अब सुप्रीम कोर्ट इस बात का निर्णय करेगा कि कोठारी ने जल-महल का जीर्णोद्धार करके सही किया या गलत. या फिर उन्होंने 80 करोड़ रुपये खर्च करके जल महल और उसके आसपास के क्षेत्र को जिस तरह सजाया है, उससे एक शहर के तौर पर जयपुर को कुछ वापस मिलता है या नहीं. या फिर गौर जैसे लोगों की सीवेज के नालों में झील को वापस खोलने की मांग कितनी जायज है.