कहानियां भी कैसे-कैसे सफर तय करती हैं. एक विकसित देश में उपन्यास लिखा गया, पे इट फारवर्ड, जिस पर फिल्म भी बनी इसी नाम की. ग्यारह साल के लड़के की कहानी, जिसे सामाजिक विज्ञान की क्लास में एक ऐसा प्लान बनाने का असाइनमेंट मिला जिससे दुनिया में बदलाव आ सके. सातवीं के लड़के ने प्लान बनाया, अगर किसी को कोई बड़ी मदद मिले तो वह तीन और लोगों की मदद करके उसे मिली मदद का शुक्रिया अदा करे. 320 पन्नों की यह कहानी जब कुछ समंदर पार कर हिंद पहुंची तो दक्खिन के रास्ते दाखिल हुई और वहां गजनी बनाने वाले एआर मुरुगदॉस की नजरों ने इसे तौला. समंदरों की यात्रा ने ढेर सारा नमक मिला कहानी को नमकीन बना दिया था, और दक्खिन में मसालों की कोई कमी नहीं थी. इस तरह 2006 में ग्यारह साल के लड़के की कहानी में चिरंजीवी, राजनीति, बदला और ऐक्शन आ गए और एक मसाला फिल्म बनी, ‘स्तालिन’. कुछ तालाब, नदी, नहरें पार करके फिर वह कहानी, जो अब स्तालिन थी, चंद साल बाद मुंबई पहुंची. इस बार नजर पड़ी भाई की, और उसके बाद सबसे पहले कहानी को वापस उसके पुराने देश भेजा गया और भाई के भाई सोहेल खान ने बिना कहानी के उसी कहानी पर फिल्म बनाई, ‘जय हो’.
इन ब्योरों से भरी फिल्म समीक्षा लिखने की वजह छोटी-सी जागृति फैलाना है.‘जय हो’ इतनी बार ‘थैंक्स मत बोलिए, तीन और लोगों की मदद कीजिए’ बोलती है कि इस आइडिया को आप बीइंग ह्यूमन में रचे-बसे सलमान की उपज न मान लें, डर लगता है. अब जब आप जान गए हैं, यह बताना आसान हो जाता है कि फिल्म आम लोगों को साथ लाने की बातें करती है, उससे जुड़ी भावुकता पैदा करती है, लेकिन शुरू से आखिर तक सिर्फ वन मैन शो रहती है. फिल्म को यह फैसला करने में बहुत दिक्कत होती है कि उसे असल कहानी के हिसाब से दिलों को छूता एक मानवीय ड्रामा बनना है, या सलमान के हिसाब से, दरवाजे-हड्डियां तोड़ते दक्खिनी एक्शन के कई सारे मोंटाज का छायागीत.
‘जय हो’ का सलमान देसी भीम और विदेशी हल्क के दिव्य रूप में एक आम आदमी है. असल में एक ऐनार्किस्ट, जिसका किरदार ‘तेरे नाम’ के राधे-सा है, बस प्यार इस बार उसे देश से होता है. राधे-सी ही अव्यवस्थित मानसिक अवस्था यहां भी है जो कभी उसे शेर बना देती है, और वह काटने-फाड़ने लग जाता है, तो कभी माइकल जैक्सन. फॉरन लोकेशन पर नाचते हुए टक्सिडो और साड़ी का तरल मिश्रण है, ढेर सारी मुक्का-लात है, लेकिन फिल्म के ज्यादातर हिस्से में बंदूकें नहीं हंै, जो इस फिल्म को हथियारों के विरोध में खड़ी आवाजों का नया नायक बनाती है. कृपया इस बात पर हमारा यकीन जरूर करें! फिल्म में महेश ठाकुर भी हैं, सूरज बड़जात्या वाली सौम्यता का स्पर्श देने के लिए. तब्बू हैं, क्यों हैं, पता नहीं, बस हैं. डेविड-रोहित-प्रभुदेवा वाली फिल्मों का एक-सा टेंपलेट है, जिसमें एक खास तरह के गाने और साइड-किरदार होते हैं, और जानी लीवर वाला हास्य होता है. इधर, काव्य सा हास्य सुनील शेट्टी पैदा करते हैं, सलमान की खातिर शहर के हाइवे पर ‘पर्सनल’ मिलिट्री टैंक लाकर.
‘जय हो’ अपने एक गाने की प्रथम पंक्ति को जीती है, नसों में घोलती है, किरदारों में भरती है और स्क्रिप्ट में रचती है, ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’. जय हो!