जीवन में खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ कुछ ऐसे तीखे और कटु अनुभव भी होते हैं जिनके बाद लगता है कि शिक्षा, डिग्री और समाज के लिए किए गए सारे काम बेकार हैं. बस अगर कुछ है तो आपका मजहब है जिसके आधार पर आपको बड़ी बेदर्दी के साथ नकार दिया जाता है. ऐसे अनुभवों के बाद लगता है कि समाज में अपनी राजनीति की खातिर कुछ तत्वों ने ऐसे बीज बो दिए हैं जिनकी फसल आज लहलहा रही है.
‘पुजारी जानता था कि मैं मुसलमान हूं, मगर उसने कभी गर्भगृह में बैठकर पढ़ने को मना नहीं किया’
कुछ समय पहले एक अखबार के काम से तीन महीने के लिए मुरादाबाद जाना पड़ा तो एक कमरे की भी आवश्यकता हुई. संयोग से कार्यालय के सामने ही एक कमरा खाली मिल गया. मकान मालिक से बात की और उसे तीन महीने का एडवांस किराया दे कर घर से आवश्यक सामान लेने आ गया. तीसरे दिन जब अपना सामान कमरे के सामने टिकाया तो मकान मालिक ने कमरा देने को मना कर दिया. वजह बताई कि आप मुसलमान हैं और आपने यह बात पहले नहीं बताई थी. स्टाफ के लोगों ने मकान मालिक को खूब समझाया तो वह बोला कि अगर मैंने कमरा दे दिया तो आसपास के लोग मेरा सामाजिक बहिष्कार कर देंगे. मजबूरी में कहीं और व्यवस्था करनी पड़ी.
ऐसा ही एक और कटु अनुभव पिछले दिनों हुआ. एक सेकंड हैंड गाड़ी की आवश्यकता थी. अखबार में विज्ञापन के बाद दिल्ली के जनकपुरी इलाके में एक गाड़ी के मालिक से बात हुई. गाड़ी पसंद आ गई, सौदा हो गया और भुगतान कर दिया गया. गाड़ी के सेल लेटर पर लड़के का नाम देख कर गाड़ी मालिक ने गाड़ी देने से इनकार कर दिया और पैसे वापस कर दिए. पूछने पर बताया कि वह किसी मुसलमान को अपनी गाड़ी नहीं बेचेगा.
उम्र के सातवें दशक से पहले ऐसे अनुभव कभी नहीं हुए थे. मेरा जन्म गांव में हुआ और अब भी मैं गांव में ही रह रहा हूं. गांव में हमारा एकमात्र मुसलिम परिवार था. अकेला परिवार था तो सारे खेल-कूद दूसरे बच्चों के साथ ही होते थे. गांव में एक शिव कुटी नाम से छोटा-सा मंदिर था. किशोरावस्था में चार-पांच मित्र शिव कुटी पर शाम के समय जाते थे. कुटी पर एक साधु रहते थे. उनके धूने के चारों ओर सब बैठ जाते और चिलम भर कर बारी-बारी से सब उसमें दम लगाते थे. हिंदू-मुसलमान की कोई बात न मित्रों के मन में थी और न ही साधु महाराज के मन में. हाई स्कूल और इंटर की परीक्षा से पहले तैयारी के लिए छुट्टियां होती थीं. गांव के पास एक प्राचीन मंदिर है. इन छुट्टियों में हम चार मित्र मंदिर पर जाते और वहां अपनी तैयारी करते, दोपहर में धूप तेज होने पर मंदिर के पुजारी से हमने गर्भगृह में बैठ कर पढ़ने की अनुमति ले ली थी. पुजारी इस बात को जानता था कि मैं मुसलमान हूं, मगर उसने कभी गर्भगृह में बैठ कर पढ़ने को मना नहीं किया.
इंटर के बाद प्राइमरी टीचर का प्रशिक्षण प्राप्त करके दिल्ली में नौकरी की शुरुआत की. 12 साल की सेवा के बाद डिग्री कॉलेज में भी कुछ समय नौकरी की. यहां भी मैं अकेला ही मुसलमान था. इन दोनों नौकरियों के दौरान कभी ऐसा नहीं लगा कि मुसलमान होने के नाते मुझसे कोई भेदभाव किया जा रहा है. प्रगाढ़ मित्रताएं रहीं जिनमें मजहब कभी आड़े नहीं आया. लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही. पहले बस्तियों में हिंदू-मुसलमान साथ-साथ ही रहते आए हैं. चार घर हिंदुओं के हैं तो दो घर मुसलमानों के भी हैं, मगर अब जो नई बस्तियां बस रही हैं उनमें ऐसा नहीं हो रहा. हमारे गांव के पास एक काॅलोनी विकसित हुई. हमने भी वहां मकान बनाने की सोची. काॅलोनी बसाने वालों से बात की तो उन लोगों ने साफ कह दिया कि वे किसी मुसलमान और दलित को इस कॉलोनी में नहीं बसाएंगे. ये सभी स्थानीय लोग हैं और मुझे भली प्रकार जानते भी हैं. इनका यह जवाब सुन कर मन पर क्या बीती यह मैं ही जानता हूं. अब मुसलमानों के बीच ही मकान बनाने की मजबूरी हो गई. यानी मुसलमान मुसलमानों के बीच बस रहा है, हिंदू हिंदुओं में और दलित दलितों के बीच. हर नगर में अलग-अलग टापू बनते जा रहे हैं. सेकुलर भारत के लिए यह शुभ नहीं. हालत यह है कि गांव के जिस मंदिर में बैठ कर चिलम में दम लगाते थे उसकी सीढ़ियां चढ़ते भी डर लगता है. कहीं कोई टोक न दे कि यह मुसलमान मंदिर में क्यों घुसा जा रहा है.
अब इस सब के लिए सारे हिंदू समाज को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता मगर प्रबुद्ध हिंदुओं से यह अपील तो की ही जा सकती है कि वे समाज में आ रहे इस बदलाव पर गंभीरता से विचार करें और चंद लोग जो ऐसी भावनाओं को बल प्रदान कर रहे हैं उन्हें बेनकाब करें. अंत में यही कह सकता हूं, ‘जाहिदे तंग नजर ने काफिर मुझे समझा, काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं.’