बोल की लब आजाद हैं।’ यह एक ऐसा अहसास है जिसे आप ‘मंटो’ देखकर, अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी के जरिए मंटोइयत को समझ कर ही महसूस कर पाएंगे। उर्दू के मशहूर रचनाकार सआदत हसन मंटो पर मशहूर अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास ने जो फिल्म बनाई है वह लाजवाब है। मंटो की जि़ंदगी के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती।
व्यावसायिक सिनेमा से कहीं अलग लेकिन समाज और आज के तनाव से सीधी जुड़ती है यह फिल्म ‘मंटो’। इसमें नौजवान सपनीली आंखों वाले युवा की कहानी है जो चाहता है कि उसे ही नहीं, परिवार और समाज में हर किसी को न्याय मिले। वह गुजर-बसर ठीक से कर सके। लेकिन व्यवस्था, समाज के ठेकेदार और अफसर ऐसा आखिर होने क्यों दें। व्यवस्था के नाम पर लोगों को डराना, बहकाना और अपना उल्लू सीधा करना अफसरशाही की मौकापरस्ती है।
मंटो खुद लेखक थे। कम उम्र में उनकी मौत हुई। उनकी जिं़दगी को उनकी कहानियों के जरिए भी निर्देश ने फिल्म में तलाशा। हालांकि उन्होंने जो लिखा वह कम होते हुए भी हिंदुस्तान और पाकिस्तान में खासा लोकप्रिय है। उनकी कहानी खोल दो, काली सलवार, टोबा टेक सिंह, ठंडा गोश्त आदि खासी चर्चित हैं। उन कहानियों के अंशों को भी इस फिल्म में पिरोया गया है।
भारत की आज़ादी के साथ देश बंट रहा था। बेमतलब की इस कवायद से हर दिलो दिमाग बेहद परेशान था। मंटो के सामने भी सवाल था कि वे हिंदुस्तान के किस हिस्से के है। उन्हें बंबई बहुत अच्छा लगता था। यहीं वे पले-बढ़े। वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट मूवमेंट के भी एक हिस्से बन गए थे। इस्मत चुगताई से उनकी खासी बनती थी। वे थिएटर में रुचि लेने वाले युवाओं के हमसफर भी थे। वे खुद मुंबई के शानोशौकत वाली दमकती बंबई के
स्टूडियो के पिछवाड़े से आगे अंदर भी जाते। उनका इरादा होता कुछ ऐसा हासिल हो जिससे उन्हेें प्रेरणा मिले और अपना भी घर-बार चला सकें। लेकिन उनकी नाक पर गुस्सा चढ़ा दिखता। उनकी पेशानी पर बल पड़ जाते जब वे किसी के साथ या खुद के साथ अन्याय होता देखते। अपने दोस्तों, अपनी पत्नी और अपनी साथी साफिया के लिए वे बेहद महत्वपूर्ण थे। उन्होंने उस दौर में खूब लिखा। उनके लेखन पर अश्लीलता के आरोप लगे। सिगरेट, चाय और दारू के वे रसिक हो गए।
हमेशा तंगदिलों ने उन्हें निराश किया और वे वहां न पहुंच पाए जहां वे अपनी काबिलियत के चलते पहुंच सकते थे।
देश दो भागों में बंट गया। यह सच्चाई मंटो की जिं़दगी में बेहद दर्दनाक रही। वे पाकिस्तान चले गए। मंटो की ताकत यहीं छूट गई। दोस्त भी रह गए। नवाजुद्दीन ने सही तौर पर मंटोइयत अपनाया। मंटो की ऐसी उत्सुकता, प्रेम के क्षण, चाल-ढाल, उनका कुर्ता, चश्मा, मजाक, कड़वाहट और ऊब- यानी तमाम विविधता में मंटो फिल्म के पर्दे पर दिखते हैं। आप भूल जाते हैं नवाजुद्दीन को। आप फिल्म देखिए, आप भूल न सकेंगे मंटो को।