6 नवंबर को गुपकार घोषणा के लिए छ: दलों के मज़बूत पीपुल्स यूनियन गठबन्धन के नेता शीतकालीन राजधानी जम्मू भी पहुँचे। वहाँ उन्होंने अनुच्छेद-370, जिसमें जम्मू कश्मीर को भारतीय गणराज्य के भीतर विशेष दर्जे का प्रावधान था; की बहाली के लिए अपने संघर्ष को जनता से समर्थन माँगा। नेशनल कॉफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने कार्यकर्ताओं के साथ बैठक करने के लिए जम्मू की यात्रा की, तो पीडीपी की नेता और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी जम्मू पहुँचीं, जिसने वहाँ की राजनीति में हलचल पैदा कर दी। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं सहित प्रान्तीय अध्यक्ष देवेंद्र सिंह राणा ने अब्दुल्ला और उमर का पार्टी कार्यालय में स्वागत किया। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-370 को निरस्त किये जाने के बाद वे पहली बार जम्मू पहुँचे थे। कश्मीर के विपरीत, जहाँ वे किसी भी राजनीतिक गतिविधि को रोक नहीं सकते हैं; जम्मू में वे कार्यकर्ताओं को स्वतंत्र रूप से सम्बोधित कर सके और उनकी बात पिछली बैठकों से कहीं अधिक प्रभावी रही।
फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू में कहा कि वे (भाजपाई) हमें पाकिस्तान जाने के लिए कहते हैं। अगर हमें पाकिस्तान जाना होता, तो हम सन् 1947 में वहाँ जा सकते थे। हमें कोई नहीं रोक सकता था। फारूक ने आगे कहा कि उस समय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला (उनके पिता और नेकां के संस्थापक) ने लोगों को बताया था कि हमारा भाग्य महात्मा गाँधी के भारत के साथ है। हम भी यही कहते हैं कि हमारा भाग्य गाँधी के हिन्दुस्तान के साथ है; न कि भाजपा के हिन्दुस्तान के साथ।
उन्होंने आज के सत्तासीन भाजपाइयों से पूछा कि वे तब कहाँ थे, जब वह (फारूक) पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जिनेवा में भारत का मामला लड़ रहे थे। अब्दुल्ला ने कहा कि तब वाजपेयी वहाँ बोलने में सक्षम नहीं थे। आज हमें पाकिस्तानी कहा जाता है!
उमर अब्दुल्ला ने जम्मू वासियों को चेताया कि बाहर के लोग कश्मीर में ज़मीन खरीदने से पहले जम्मू में खरीदेंगे। क्योंकि कश्मीर का रास्ता जम्मू से होकर गुज़रता है। उन्होंने कहा कि नये भूमि कानूनों के तहत कृषि भूमि संरक्षित है। नये भूमि कानून में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि कृषि भूमि को गैर-कृषि भूमि में परिवर्तित करके बेचा जा सकता है।
महबूबा मुफ्ती (जो जम्मू अलग से गयीं) की बयानबाज़ी अधिक उग्र थी। उन्होंने कहा कि लोगों की आवाज़ के दमन ने जम्मू-कश्मीर में प्रेशर कुकर जैसी स्थिति पैदा कर दी है। लेकिन जब प्रेशर कुकर में विस्फोट होता है, तो यह पूरे घर को जला देता है। समय आयेगा, जब केंद्र लोगों से हाथ जोड़कर पूछेगा कि वे पूर्व राज्य की विशेष स्थिति की बहाली के अलावा और क्या चाहते हैं?
गुपकार गठबन्धन के कश्मीरियों के लिए विशेष अधिकारों की बहाली के लिए संघर्ष करने के लिए समान विचारधारा वाले दलों के साथ परामर्श करने की भी सम्भावना है। इससे पहले गठबन्धन ने लद्दाख में मुस्लिम बहुसंख्यक कारगिल का दौरा किया था; ताकि उनके संघर्ष के लिए उनका समर्थन मिल सके। गुपकार घोषणा (पीएजीडी) के एक प्रतिनिधि मण्डल ने उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में कारगिल का दौरा वहाँ के राजनीतिक समूहों से बात करने के लिए किया, जो अनुच्छेद-370 के फैसले को वापस लेना चाहते हैं और लद्दाख के फिर से जम्मू-कश्मीर के साथ जुडऩे के हक में हैं।
9 अक्टूबर को कारगिल में राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक संगठनों के एक संग्रह ने जम्मू-कश्मीर गुपकार घोषणा समूह (पीएजीडी) के नये कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के गठन की घोषणा की। कारगिल के एक वरिष्ठ नेता नेशनल कॉफ्रेंस के कमर अली अखून के अनुसार, गठबन्धन के दो एजेंडे हैं। एक, हम अनुच्छेद-370 की बहाली चाहते हैं; लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, हम लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा माँगते हैं। यह चीज़ लद्दाख को दो सोचों में विभाजित करती है; क्योंकि इसका एक और ज़िला (बौद्ध बहुमत वाला लेह) केंद्र शासित प्रदेश की स्थिति के साथ संतुष्ट है।
हालाँकि छठी अनुसूची के तहत प्रदान किये गये संवैधानिक सुरक्षा उपायों की माँग करता है। लेह हाल ही में अपनी स्वायत्त पहाड़ी ज़िला परिषद् में भाजपा को सत्ता में वापस लाया है। इससे स्थिति वास्तव में जटिल हो गयी है। लद्दाख में यह लेह बनाम कारगिल बन गया है, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह मोटे तौर पर कश्मीर बनाम जम्मू है। लेह और जम्मू में बहुमत अपनी ज़मीन की सुरक्षा चाहता है और अनुच्छेद-370 की बहाली का समर्थन नहीं करता, जबकि कश्मीर और कारगिल इसकी माँग करते हैं।
हालाँकि यह भी सच है कि हाल के महीनों में जम्मू और लेह ने अनुच्छेद-370 के बाद के हालत पर असन्तुष्टि का स्पष्ट इज़हार किया है। जनसांख्यिकीय परिवर्तन, नौकरियों की हानि, भूमि अधिकारों और पहचान की बढ़ती सम्भावना ने लोगों को असहज कर दिया है। लेकिन जम्मू में अभिव्यक्ति को मौन करते हुए लोग लेह में अपने अधिकारों के बारे में मुखर रहे हैं। वास्तव में केंद्र शासित प्रदेश में सभी दलों ने हाल में बाहरी लोगों के प्रवेश के खिलाफ एकजुटता दिखायी है। अगर केंद्र संविधान की 6वीं अनुसूची के अनुदान की तरह सुरक्षा उपायों का वादा नहीं करता, तो उसने चुनावों के बहिष्कार की धमकी दी थी। केंद्र ने कश्मीर के लिए अपने दृष्टिकोण के विपरीत लद्दाख को इन सुरक्षा माँगों का भरोसा देने में देरी नहीं लगायी। लेकिन जब तक केंद्र वास्तव में इन सुरक्षा उपायों को अनुदान नहीं देता, तब तक लेह के मन में आशंका तो बनी रहेगी।
इसी समय कारगिल में मुस्लिम, जो लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश में सबसे अधिक बहुमत में हैं; इन सुरक्षा उपायों में रुचि नहीं रखते हैं। कश्मीर में अपने समकक्षों की तरह वे भी अनुच्छेद-370 को वापस चाहते हैं और लद्दाख को फिर जम्मू-कश्मीर के साथ जोडऩे के हक में हैं।
दूसरी ओर जम्मू में भाजपा के अलावा अन्य पार्टियों में राज्य की वर्तमान घटनाओं को लेकर अलग विचार हैं। हालाँकि पैंथर्स पार्टी जैसे स्थानीय दल अनुच्छेद-370 को खत्म करने का समर्थन करते हैं; लेकिन अनुच्छेद-370 जैसी सुरक्षा की गारंटी भी जम्मू के लिए चाहते हैं। कश्मीर गठबन्धन के लिए कांग्रेस ने अनुच्छेद-370 की बहाली और कश्मीरियों के अधिकारों का समर्थन किया है। वह वास्तव में गुपकार गठबन्धन की घटक है; लेकिन उसने इसकी हालिया बैठकों में हिस्सा नहीं लिया है। ज़ाहिर है इसका कारण देश के अन्य हिस्सों में उसकी राजनीतिक मजबूरियाँ हैं।
इससे एक सम्भावना यह है कि तीनों क्षेत्र एक सामान्य न्यूनतम एजेंडे पर सहमत हो सकते हैं। और ऐसा होता है, तो यह छ: पार्टियों के गठबन्धन के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी और इससे राष्ट्रीय स्तर पर उसका मामला मज़बूत होगा। साथ ही जम्मू-कश्मीर के अधिकारों के मुद्दे पर एक व्यापक क्षेत्रीय सहयोग कश्मीर में नेताओं को राजनीतिक गतिविधि के लिए अधिक स्थान देगा। इस तरह के गठबन्धन को जम्मू और लद्दाख में प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रभावशाली स्थानीय नेताओं की भी आवश्यकता होगी।
लेकिन क्षेत्रीय सहयोग के अवसरों के बारे में अनिश्चितता अभी भी बनी हुई है। इसका कारण गहरी परस्पर विरोधी राजनीतिक संस्कृतियाँ हैं और तीनों क्षेत्रों के बड़े पैमाने पर विरोधाभासी हित हैं। यहाँ तक कि लद्दाख के मामले में, जहाँ मुसलमान थोड़े बहुमत में हैं; उनका राजनीतिक वज़न बौद्धों के लिए केंद्र के समर्थन ने हल्का किया है। इसलिए क्षेत्रीय गठजोड़ के लिए ऐसी सभी विरोधी ताकतों को सामंजस्य स्थापित करना होगा। यह एक आसान काम नहीं होगा।
नई दिल्ली पर कुछ दबाव बनाने के लिए मुख्यधारा के राजनीतिक समूह के लिए एक विकल्प विशेष दर्जे को खत्म करने के खिलाफ एक निरंतर सार्वजनिक प्रतिरोध को तेज़ करना है। लेकिन इस तरह के प्रतिरोध की गुंजाइश के बारे में वैध संदेह है, जब केंद्र ने क्षेत्र में किसी भी लोकतांत्रिक असन्तोष के लिए जगह को बहुत कम जगह छोड़ी है। और गुपकार गठबन्धन इस तथ्य के प्रति सावधान है। उन्होंने अब तक संयुक्त बयान जारी किये हैं, और खुद को एक नाम दिया है। उनकी संरचना को औपचारिक रूप दिया और एक एजेंडा पर काम किया। लेकिन शान्तिपूर्ण विरोध, सार्वजनिक रैली, एक प्रेस कॉन्फ्रेंस या किसी हद तक हड़ताल जैसे कदमों से वे दूर रहे हैं। साथ ही भले अनुच्छेद-370 की वापसी के खिलाफ पार्टियों को जनता की राय लेनी थी, केंद्र को उसकी नीति में बदलाव के लिए मजबूर करने की उनकी क्षमता न्यूनतम रहेगी। ऐसा करते हुए वे कश्मीर पर नये राष्ट्रीय सर्वसम्मति के खिलाफ होंगे; जो पूर्व राज्य के एकीकरण को एक फंतासी के रूप में देखता है। यह स्वायत्तता, स्व शासन और प्राप्त राष्ट्र के लिए अनुच्छेद-370 की बहाली की माँग करता है। बहुत कुछ इस क्षेत्र की उभरती हुई भू-राजनीति पर भी निर्भर करेगा और इस पर भी कि चीन तथा पाकिस्तान के साथ भारत के समीकरण कैसे आकार लेंगे, और यह भी कि क्या अफगानिस्तान फिर से तालिबान के हाथों में जाएगा।
इस बारे में स्थानीय स्तम्भकार नसीर अहमद का कहना है कि यह अभी भी देखा जाना बाकी है कि ये घटनाक्रम कश्मीर पर क्या प्रभाव डालेंगे? फिलहाल एक कश्मीर पर्यवेक्षक के पास भविष्य के घटनाक्रम के इंतज़ार और ईश्वर से बेहतर की प्रार्थना करने के अलावा कुछ नहीं है।
पहली बार डीडीसी चुनाव
अपने लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार कश्मीर में ज़िला विकास परिषद् (डीडीसी) के चुनाव हो रहे हैं। पहले चरण का मतदान 1 दिसंबर को होगा और मतदान प्रक्रिया 24 दिसंबर तक पूरी होगी। डीडीसी पंचायती राज्य व्यवस्था के तीसरे स्तर पर कार्य करेंगे। यह केंद्र शासित प्रदेश में पूरे 73वें संशोधन अधिनियम के कार्यान्वयन का प्रतीक है। हालाँकि देश और कश्मीर में पंचायत राज प्रणाली के बीच एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। जम्मू-कश्मीर में डीडीसी के सदस्य सीधे ज़िले के 14 क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाएँगे, और वे अकेले डीडीसी में शक्ति का प्रयोग करेंगे। वे परिषद के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को नियुक्त कर सकते हैं और निकाल सकते हैं। हालाँकि विधानसभा के सदस्य और ज़िले की सभी खण्ड विकास परिषदों के अध्यक्ष भी डीडीसी सदस्य होंगे; लेकिन वे कोई शक्ति नहीं बनाएँगे।
अतिरिक्त ज़िला विकास आयुक्त डीडीसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी होंगे। संशोधनों के अनुसार, एससी, एसटी और महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गयी हैं, जो ज़िला विकास परिषदों के प्रत्यक्ष चुनाव से भरी जाएँगी। जम्मू-कश्मीर के पंचायत सम्मेलन के अध्यक्ष शफीक मीर ने कहा कि नयी त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली ग्राम पंचायतों और बीडीसी की शक्ति को कमज़ोर करने की धमकी देती है। गुपकार गठबन्धन की पार्टियाँ मिलकर डीडीसी चुनाव लड़ेंगी।