खबरों की सौदेबाजी का धंधा लोकतंत्र को बहुत महंगा पड़ रहा है
भारत में न्यूज चैनल क्रांति का एक लगभग अचर्चित पहलू देश भर में उभर आए दर्जनों क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनल हैं जिनके कामकाज और भूमिका के बारे में राष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम बात होती है. देश के अधिकांश राज्यों खासकर बड़े राज्यों में ऐसे क्षेत्रीय न्यूज चैनलों की संख्या न सिर्फ लगातार बढ़ती जा रही है बल्कि वे उन राज्यों के राज-समाज और राजनीति के एजेंडे को भी प्रभावित कर रहे हैं. इसका सबूत यह है कि अधिकांश क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनलों के मालिक सीधे या परोक्ष तौर पर उन राज्यों के बड़े नेता, मुख्यमंत्री या ताकतवर मंत्री और क्षेत्रीय दल हैं. इसके अलावा इन क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनलों के मालिकों में बड़े बिल्डर, चिट फंड कंपनियां, शराब व्यापारी और बड़े ठेकेदार, स्थानीय व्यापारी आदि शामिल हैं. इन चैनलों में लगा पैसा और उसका स्रोत हमेशा से सवालों के घेरे में रहा है. उनका मकसद और कामकाज के तौर-तरीके भी संदिग्ध रहे हैं जिसमें ब्लैकमेल से लेकर अपने वैध-अवैध धंधों को राजनीतिक संरक्षण और राज्य सरकारों से तमाम रियायतें हासिल करना शामिल है.
नतीजा सामने है. क्षेत्रीय चैनल खबरों की मंडी लगाकर बैठ गए हैं और खुलेआम खबरों का सौदा कर रहे हैं. यही नहीं, राज्य सरकारें भी बे-हिचक खबरें खरीद कर अपना चेहरा चमकाने में लगी हुई हैं. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह की सरकार ने 2007 से लेकर 2011 के बीच सहारा, जी-24, साधना और ईटीवी जैसे कई क्षेत्रीय न्यूज चैनलों को सरकारी खजाने से लाखों-करोड़ों रुपये देकर खबरें खरीदी हैं. इसके लिए इन चैनलों ने राज्य सरकार को बुलेटिन-विशेष कार्यक्रमों से लेकर लाइव प्रसारण तक और टिकर और फोन-इन आदि में जगह देने की कीमत के साथ प्रस्ताव दिया और राज्य सरकार ने उसे खुशी-खुशी खरीदा.
मजे की बात यह है कि पिछले साल इसी छत्तीसगढ़ सरकार ने ईटीवी पर विज्ञापनों के लिए ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया था. लेकिन ताजा खुलासों से साफ है कि रमन सिंह सरकार बिना किसी शर्म-संकोच के ईटीवी समेत सभी क्षेत्रीय न्यूज चैनलों पर खबर/कार्यक्रम खरीदने में लगी हुई थी. यही नहीं, सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि राज्य सरकार ने सरकारी खजाने का इस्तेमाल क्सलियों/माओवादियों के खिलाफ प्रोपेगंडा युद्ध चलाने में न्यूज चैनलों पर खबरें और समाचार कार्यक्रम खरीदकर भी किया. लेकिन उससे भी अफसोस की बात यह है कि न्यूज चैनलों को बिकी हुई ‘खबरें’ दिखाने में कोई लाज-शर्म नहीं महसूस हुई.
लेकिन यह सिर्फ छत्तीसगढ़ तक सीमित मामला नहीं है और न ही यह सिर्फ न्यूज चैनलों तक सीमित है. इस खुला खेल फर्रुखाबादी में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण भी उतने ही जोर-शोर से शामिल हैं. सच यह है कि अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय चैनलों या अखबारों और राज्य सरकारों के बीच खरीद-बिक्री का यह धंधा कहीं खुलेआम और कहीं दबे-छिपे जारी है. यही नहीं, इन चैनलों और अखबारों में से कई के मालिकों ने चैनल या अखबार के प्रभाव का इस्तेमाल इन राज्यों में माइनिंग सहित कई दूसरे व्यावसायिक धंधों को आगे बढ़ाने में किया है.
यानी राज्य सरकारों, ताकतवर व्यावसायिक समूहों और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों व अखबारों के बीच एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जिसमें खबरों को सत्ता और ताकतवर व्यावसायिक घरानों के अनुकूल बनाने से लेकर तोड़ने-मरोड़ने, दबाने और छिपाने का खेल धड़ल्ले से चल रहा है. इस कारण दर्शकों तक न सिर्फ वास्तविक खबरें नहीं पहुंच रही हैं बल्कि उन्हें बिकी हुई खबरें परोसी जा रही हैं. उन्हें अंधेरे में रखकर कीमती संसाधनों की लूट जारी है. इससे चैनलों व अखबारों और मुख्यमंत्रियों का धंधा भले चोखा चल रहा हो लेकिन यह बताने की जरूरत नहीं है कि इससे लोकतंत्र कितना गरीब और कमजोर होता जा रहा है.