मध्य प्रदेश में सत्तासीन भाजपा विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राज्य में छात्र संघ चुनाव करवाने से कतरा रही है. दरअसल पार्टी यह तो जानती है कि बीते छात्र संघ चुनावों के मुकाबले इस साल का छात्र संघ चुनाव ज्यादा अहम है और यदि वह यह चुनाव कराती है तो उसे आम चुनाव में खास भूमिका निभाने वाले युवाओं का रुझान समझ में आ जाएगा. किंतु पार्टी यह भी जानती है कि आगामी विधानसभा चुनाव के पहले होने वाले छात्र संघ चुनाव में अगर परिणाम अच्छे नहीं आए तो कुल मतदाताओं में से आधे से अधिक संख्या में मौजूद युवाओं के बीच उसकी कमजोर पकड़ का खुलासा हो जाएगा और यह मुख्य चुनाव के पहले उसके सामने अलोकप्रियता की बड़ी वजह बनेगा. इसी से जुड़ा एक जरूरी तथ्य यह भी है कि निर्वाचन आयोग ने इस बार मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिए युवाओं पर फोकस किया है और इस क्रम में उसने अब तक प्रदेश के बारह लाख से अधिक मतदाताओं को चुनाव की सूची में शामिल किया है. युवाओं के बूते सत्ता पर काबिज होने का मंसूबा पालने वाली किसी भी पार्टी के लिए यह इतना बड़ा आंकड़ा है जो उसकी जीत या हार में निर्णायक साबित हो सकता है.
पर्दे के पीछे जाएं तो चुनावी दहलीज पर खड़ी भाजपा सरकार के सामने कानून-व्यवस्था बनाये रखना भी एक बड़ी चुनौती है. इसलिए वह ऐसी कोई नयी पहल नहीं चाहती जो 2013 में कठिनाई खड़ी करें. लिहाजा सरकार के छात्र संघ चुनाव न कराने के पीछे गृह-विभाग की उस रिपोर्ट को आधार बनाया जा रहा है जिसमें उसने इन चुनावों के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा की आशंका जतायी है. दरअसल चुनावी तैयारी के नाम पर भाजपा समर्थित छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) बैतूल में एक छात्र की हत्या के ताजे प्रकरण के अलावा जगह-जगह कई प्रोफेसरों के साथ मारपीट के आरोप झेल रही है. आमतौर पर इन सभी घटनाओं को 2006 के उज्जैन में घटित प्रो सबरवाल के उस चर्चित हत्याकांड से जोड़ा जाता है जो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की साख पर भी बट्टा लगा चुका है. हालिया घटनाओं को देखते हुए पार्टी के नेता ही दबी जुबान में अब मानते हैं कि चुनाव हुए तो उन्हें अपनी ही छात्र इकाई के कार्यकर्ताओं पर लगाम लगाना मुश्किल होगा. इन नेताओं का कहना है कि यदि हिंसा की एक-दो बड़ी घटना घट गईं तो चुनाव की दहलीज पर खड़ी सरकार के पास इतना वक्त भी नहीं कि वह इनकी भरपायी कर पाएं.
भाजपा सरकार की दूसरी परेशानी हाइकोर्ट के उस फैसले से भी जुड़ी है जिसमें उसने लिंगदोह आयोग की सिफारिश के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव कराने का निर्देश दिया है. गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में दिल्ली और राजस्थान सहित बाकी कई राज्यों से अलग छात्र संघ का अप्रत्यक्ष चुनाव कराया जाता है. इस प्रक्रिया में कॉलेज प्रबंधन की चुनाव समिति ही मेरिट के आधार पर कक्षा प्रतिनिधियों की नियुक्ति करती है और फिर नियुक्त प्रतिनिधि अपने बीच से अध्यक्ष आदि चुनते हैं. भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के प्रदेश अध्यक्ष विपिन बानखेड़े का आरोप है, ‘यह प्रणाली इस हद तक सीमित और शासन के हाथों में होती है कि सरकार इस पर आसानी से दवाब बनाकर चुनाव को अपने पक्ष में कर लेती है.’ यदि इसके पहले प्रत्यक्ष प्रणाली की पृष्ठभमि देखें तो इसमें कांग्रेस की छात्र इकाई भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन ही एकतरफा जीतता रहा है. जाहिर है प्रत्यक्ष प्रणाली में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के खराब प्रदर्शन के चलते भी सरकार कोई प्रयोग नहीं आजमाना चाहती.
प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा के मुताबिक कॉलेजों के शैक्षणिक सत्रों में देरी को देखते हुए अब छात्र संघ का चुनाव करा पाना संभव भी नहीं. वे कहते हैं, ‘चुनाव हुए तो अकादमिक कैलेंडर और पीछे जाएगा.’ मगर मजेदार है कि सरकार की इस दलील पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को सख्त आपत्ति है. परिषद के क्षेत्रीय संगठन मंत्री वीडी शर्मा के मुताबिक, ‘सत्र तो हर साल ही पीछे जाते हैं. इसलिए कैलेंडर में छात्र संघ का चुनाव पहले से ही तय होने के बावजूद उन्हें न कराने की बात हजम नहीं होती.’ दरअसल परिषद के एक धड़े को मलाल है कि पार्टी के कई बड़े नेता शक्ति प्रदर्शन से लेकर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक खींचने के लिए तो उन्हें उपयोग में लाते हैं. मगर वे नहीं चाहते कि छात्र संघ में कोई युवा चुनाव जीते और उसके बाद विधायक की टिकिट के लिए अपना दावेदारी ठोंके.
वहीं यहां बड़ी संख्या में खुल रहे निजी कॉलेजों में मंहगी फीस ज्वलंत मामला बनकर उभरा है. आए दिन छात्रों की आत्महत्या के ऐसे कई मामले उजागर हुए हैं जिनका सीधा संबंध आर्थिक लाचारी से है. स्टुडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के प्रांतीय महासचिव शैलेष बोहरे के मुताबिक, ‘अधिकतर निजी कॉलेज भाजपाईयों के हैं. इसलिए शिक्षा के व्यवसायिकरण को लेकर एवीबीपी कितने भी नारे लगा लें लेकिन तजुर्बेदार भाजपा जानती है कि यदि वह चुनाव में उतरी तो सत्ता विरोधी रूख से बच नहीं पाएगी.’
प्रदेश के आठ संभागों में भाजपा की युवा बाईक रैली के फ्लॉप होने से भी पार्टी के भीतर हड़कंप है. बीते दिनों भाजपा प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा ने राजधानी भोपाल में एक लाख बाईक की रैली निकालने का दावा किया था, लेकिन इसमें पांच हजार बाईक भी नहीं आ पायीं. दरअसल भाजपा ने घोषणा-पत्र में महिला आयोग की तर्ज पर यहां युवा आयोग बनाने की बात की थी. मगर वह अपने पूरे कार्यकाल में न आयोग बना पायीं और न ही हर साल एक लाख युवाओं को रोजगार देने का अपना वादा ही पूरा कर पायीं है. प्रदेश युवक कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष मुकेश नायक के मुताबिक, ‘युवाओं के बीच सम्मोहन की राजनीति बड़ी काम देती है किंतु एक समयसीमा तक. इसके बाद यह उतनी की तेजी से उलटा असर भी दिखाती है.’ वहीं पार्टी के भीतर का ही एक तबका मानता है कि यदि सूबे में छात्र संघ के चुनाव कराये जाते तो यह यहां के एक हजार से अधिक पांरपरिक कॉलेजों के लाखों छात्रों के साथ एक सियासी लहर पैदा कर देता. जबकि भाजपा सरकार विधानसभा चुनाव के ऐन वक्त पर ठंडी पड़ी कांग्रेस को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहती जिससे कांग्रेस का युवा धड़ा सक्रिय हो और यह विपक्ष में हलचल की कोई संभावना पैदा करें.