जब से अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के संबंधों का खुलासा किया है तब से दिल्ली शहर में हड़कंप है. राजनेता खीजे हुए हैं, बौखलाए हुए हैं. मीडिया कुछ ईर्ष्या भाव और कुछ झुंझलाहट लिए हुए है. जनता अवाक है.
ऐसा नहीं है कि इस खुलासे में कोई ऐसी बात हो जो किसी को पता नहीं थी. पिछले साल दो साल से दिल्ली का हर पत्रकार इस बारे में कुछ न कुछ जानकारी रखता था. राजनीतिक हलकों में कानाफूसी आम बात थी. जो जानकारी सार्वजनिक की गई है, वह भी किसी गुप्त स्रोत से नहीं है. अधिकांश दस्तावेज वेबसाइटों और सार्वजनिक स्रोतों से लिए गए हैं. भाजपा के अध्यक्ष तो कह चुके हैं कि ये कागजात तो उन्हें काफी पहले से उपलब्ध थे. इसलिए सवाल यह नहीं है कि यह रहस्य उद्घाटित कैसे हो गया. सवाल यह है कि जो बात सबको मालूम थी वह रहस्य कैसे बनी हुई थी. सवाल यह है कि देश के बड़े मसलों पर नेता और मीडिया मिलकर चुप्पी कैसे बनाए रखते हैं.
सवाल यह नहीं है कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ कचहरी में मामला बनेगा या नहीं, उन्हें सजा होगी या नहीं. हिंदुस्तानी कोर्ट-कचहरी का चक्कर बहुत लंबा है और दोषी को सजा दिलवाना आसान काम नहीं है. फिलहाल तो हम यह भी नहीं जानते कि वाड्रा पूरी तरह दोषी हैं भी या नहीं. अभी तक जनता के बीच आरोप आए हैं. कंपनी का इनकार आया है और वाड्रा का भी सामान्य-सा जवाब आया है. अभी कंपनी और वाड्रा की पूरी सफाई आनी बाकी है. कानून सिर्फ पहली नजर का सबूत नहीं मांगता. कानून हर तार को जोड़ने की मांग करता है. अभी यह साफ नहीं है कि वे तार जुड़ पाएंगे या नहीं. उन तारों को जोड़ने की जिम्मेदारी लेने वाले पुलिस और कानूनी तंत्र में इस मामले की स्वतंत्र जांच करने की इच्छाशक्ति बन पाएगी या नहीं.
लेकिन कानून के फैसले से ऊपर है लोकलाज का फैसला. जनता के सामने जो तथ्य आए हैं उसके बाद लोग कुछ सामान्य सवाल पूछेंगे. क्या रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ का संबंध एक सामान्य और परिश्रमी उद्योगपति की सफलता की कहानी है? क्या वाड्रा और डीएलएफ का संबंध सामान्य बिजनेस पार्टनरों का संबंध है? या कि वाड्रा की सफलता की कहानी में कुछ काला है? लोग पूछेंगे कि हरियाणा सरकार ने इस मामले में क्या एक निष्पक्ष और जनता के कल्याण के लिए चिंतित सरकार की भूमिका निभाई है या कि कहीं वाड्रा, डीएलएफ और हरियाणा सरकार में मिलीभगत की बू आती है? और जनता यह भी पूछेगी कि इस सारे मामले में इस देश के सबसे ताकतवर परिवार का कामकाज राजनीतिक मर्यादा के मानदंड पर खरा उतरता है या नहीं. कचहरी का फैसला तो पता नहीं कब आएगा, और आएगा भी कि नहीं. लेकिन अगर वाड्रा के पास अपनी सफाई में कुछ चौंकाने वाले तथ्य नहीं हैं तो ऐसा नहीं लगता कि वे जनता का फैसला अपने पक्ष में करवा पाएंगे.
इन आरोपों के बाद रॉबर्ट वाड्रा का जो भी हो, आरोप लगाने वालों का जो भी बने, राजनीति पर इसका असर हो न हो लेकिन एक बात तय है कि दिल्ली के राजनीतिक खेल के स्थापित नियमों में बदलाव होगा. बहुत अरसे से और बड़े करीने से बनाई गई चुप्पी की अदृश्य दीवार में सेंध लग गई है. अगर आज रॉबर्ट वाड्रा के बारे में बात हो सकती है तो कल किसी रंजन भट्टाचार्य के बारे में भी बात हो सकती है. इंशा अल्लाह इस देश का मीडिया मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के बारे में भी बात करने की हिम्मत जुटाएगा. राजनेताओं, मीडिया और औद्योगिक घरानों के संबंधों की बात ड्राइंग रूम की कानाफूसी से बाहर निकलेगी. और बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी. यह लोकतंत्र के लिए एक शुभ लक्षण है.
जाहिर है जब ऐसी कोई घटना होती है तो सबका ध्यान तात्कालिक परिणामों पर जाता है जैसे क्या इससे लोकसभा के चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार बनेगा. अभी से इसका जवाब देना कठिन है. बेशक इस सरकार की डूबती नैया में एक और छेद हुआ है. संभव है कि इस मामले ने तूल पकड़ा तो यूपीए की स्थिति डूबते जहाज जैसी हो सकती है और सब सहयोगी भागने की मुद्रा में आ सकते हैं लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी है.
क्या इन खुलासों के सहारे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से निकली नई पार्टी देश में स्थापित हो जाएगी? फिलहाल यह भी कहना बहुत कठिन है. अभी हमें दूसरे बड़े खुलासे का इंतजार करना होगा. लेकिन अगर दोनों खुलासे दोनों बड़ी पार्टियों को लपेटते हैं तो कहीं न कहीं जनता की सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से आस्था घटेगी. लेकिन सिर्फ बड़ी पार्टियों में आस्था गिरने भर से नई पार्टी को वोट मिलना शुरू नहीं होगा. जनता के गुस्से को वैकल्पिक राजनीति के समर्थन का आधार देने और फिर वोट में बदलने के लिए बहुत काम करने की जरूरत है. देश भर में संगठन का ताना-बाना बनाना, स्थानीय स्तर पर इकाई खड़ी करना, तमाम मुद्दों पर राय बनाना और समाज के सभी वर्गों में विश्वास पैदा करना अपने आप में बड़ी चुनौतियां हैं. सिर्फ बड़ी पार्टियों के भ्रष्टाचार का खुलासा करने से यह काम पूरा नहीं हो जाएगा. वैकल्पिक राजनीति की दिशा लंबी और कठिन है. अभी तो शुरुआत ही हुई है.