आखिर ऐसा क्यों है कि जब कोई वायरस या बीमारी विदेशों में फैलती है, तब ही भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सर्तकता बरती जाती है? वैसे देश में स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर राजनीति ज़्यादा होती है और आईएमए व तमाम स्वास्थ्य संगठन स्वास्थ्य सेवा के नाम पर अपने-अपने तर्क देते रहते हैं। दिल्ली सहित देश के शहरों और गाँवों के डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों से तहलका संवाददता ने बात की। उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर केंद्र और राज्य सरकारें अच्छा-खासा बजट देती हैं, लेकिन सरकारी अस्पतालों तक पैसा सही मद में नहीं पहुँच पाता है, जिससे स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा जाती है। इस समय देश-दुनिया में कोरोना वायरस को लेकर हड़कंप मचा हुआ है। ऐसे में भारत सरकार गम्भीर है, सरकारी अस्पतालों में बार्ड बनाये गये हैं। लेकिन हम उन बीमारियों से निपटने में नाकाम क्यों हैं, जिन बीमारियों से हर साल हज़ारों लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं। डॉक्टरों का ही कहना है कि भारत को चीन से सीखना चाहिए कि कोरोना वायरस से हुई मौतों पर वहाँ की सरकार गम्भीर है। चीन की सरकार हर वह प्रयास कर रही है, जिससे कोरोना वायरस पर काबू ही नहीं पाया जाए, बल्कि उसका खात्मा किया जा सके। लेकिन हमारे यहाँ बीमारी के नाम पर राजनीति होती है। इस समय दिल्ली सरकार के अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सा सेवाओं का टोटा है। केंद्र सरकार के अस्पतालों में तो दवाइयों की कमी के चलते मरीज़ों को अक्सर परेशानी होती है। वहीं केंद्र और राज्य सरकारें व्यवस्था सुधारने के लिए बचाव की कोशिश में दिखती हैं, न सेवाओं के विस्तार पर कोई पहल करती है। डॉक्टरों का कहना है कि जब भी स्वाइन फलू या डेंगू का प्रकोप होता है, तब सरकारें दवाइयों की खरीद-फरोख्त करती हैं। इतना ही नहीं विज्ञापन और मीडिया के माध्यम से शोर-शराबा शुरू कर दिया जाता है कि डेंगू और स्वाइन फलू ने दस्तक दी। ऐसे में लोगों में एक भय का माहौल बनाया जाता है, जिससे दवा कम्पनियाँ जमकर चाँदी काटती है।
सबसे गम्भीर और चौंकाने वाली बात यह है कि देश में मलेरिया, डायबिटीज, अस्थमा, बीपी, एचआईवी, हृदय रोग सहित अनेक बीमारियाँ ऐसी हैं, जिनके चलते भारत में हर रोज़ दर्ज़नों मौतें हो रही हैं; लेकिन सरकार और स्वास्थ्य विभागों को इसकी चिन्ता नहीं है। इसकी तह में जाएँ, तो पता चलता है कि दवा कम्पनियों के साथ अनेक सरकारी और गैर-सरकारी डॉक्टरों की साँठगाँठ है। अमूमन कोई भी स्वास्थ्य एजेंसी इन बीमारियों पर चर्चा तक को तैयार नहीं होती।
दिल्ली मेडिकल ऐसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष अनिल बंसल ने बताया कि देश में डॉक्टरों की कमी है, जो सरकारें जानती हैं। यही कारण है कि गाँवों-कस्बों में स्वास्थ्य सेवाएँ न होने के कारण झोलाछाप डॉक्टर मरीज़ों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। चिकुनगुनिया, हैजा, उलटी-दस्त जैसी बीमारियों के कारण मरीज़ों का हाल वे हाल रहता है, उनको पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पाती है। देश में स्वास्थ्य सेवाएँ 30 फीसदी तो सरकार के हाथों में हैं, जबकि 70 फीसदी निजी हाथों में हैं। इसमें से 30 फीसदी झोलाछाप डॉक्टरों के हाथों में है, जिसके कारण सही जाँच और बीमारी की पहचान नहीं हो पाती है। ऐसे में ये बीमारियाँ और पनप रही हैं।
नेशनल मेडिकल फोरम के चैयरमेन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि वह कई बार केंद्र और राज्य सरकारों से मिलकर लिखित में यह बात रख चुके हैं कि देश में जागरूकता के अभाव में बच्चों से बुजुर्ग तक हृदय, लीवर, किडनी और अस्थमा जैसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। ये बीमारियाँ अघोषित महामारी हैं। सरकारों को इन बीमारियों के िखलाफ ठोस कदम उठाने चाहिए, लोग स्वस्थ रह सकें। पर इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। ऐसे में भारत को चीन से सीखने की ज़रूरत है। डॉक्टर प्रेम का कहना है कि कोरोना वायरस की तरह स्वाइन फ्लू छुआछूत की बीमारी है; लेकिन इस पर तुरन्त काबू पाया जा सकता है।
स्वाइन फलू और डेंगू के नाम पर घोटालों पर रोक लगनी चाहिए। कई बार तो पुराने विज्ञापनों को नया करके अस्पतालों के बाहर लगा दिया जाता है। दवा कम्पनियाँ ऐसे ही मौकों का इंतज़ार करती हैं। जैसे ही बीमारी की आहट होती है, कम्पनियाँ सरकारी-गैर सरकारी अस्पतालों में सप्लाई शुरू कर देती हैं, जिनके मोटे दाम वसूले जाते हैं। एक सच्चाई यह भी है कि डेंगू एडीज मच्छर से होता है, उस पर काबू तक नहीं पाया गया है, जो एक साज़िश की ओर इशारा करती है। दिल्ली के लोकनायक अस्पताल व राममनोहर लोहिया अस्पताल के मरीज़ों रामकिशन तथा परम सिंह ने बताया कि इन अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाएँ बदत्तर हो गयी हैं। करोड़ों रुपये की नयी जाँच मशीनें खरीदी गयी हैं, पर आम मरीज़ों उनका लाभ नहीं मिल पा रहा है। अस्पताल के कमचारियों का कहना है कि जितनी राजनीति अस्पतालों में होती है, उतनी राजनीति शायद ही किसी महकमे में होती हो। अब अस्पतालों में सिफारिश के आधार पर मरीज़ों का इलाज होता है। एम्स में सांसदों, मंत्रियों के पत्रों के आधार पर ही लोगों के ओपीडी कार्ड बनते हैं। आलम यह है कि एम्स में बड़ी सिफारिश पर आये मरीज़ों को तत्काल भर्ती कर लिया जाता है, जबकि गरीब मरीज़ महीनों धक्के खाते रहते हैं। लेडी हाॄडग की दशा भी बहुत खराब है। यहाँ अनेक कमियाँ हैं, जिन पर किसी का ध्यान नहीं है। स्वास्थ्य कर्मचारी लीलाधर कहते हैं कि सरकार को चीन से कुछ सीखना चाहिए। चीन ने कोरोना को बड़ी गम्भीरता से लिया है।