चार दिनों का ‘सरकार राज’

फिल्म के दूसरे भाग के मध्य में अभिषेक की मौत के बाद अमिताभ उसकी तस्वीर के सामने खड़े होकर रुंधे गले से कहते हैंऔर अब तू भी मुझे छोड़ कर चला गया. पीछे से एक महिला की आवाज़ आती हैतो अब हम भी चलें क्या. फिल्म के बाद एक दर्शक–फिल्म तो दरअसल डेढ़ घंटे की ही थी मगर रामू ने सोचा होगा कि डेढ़ घंटे की भी कोई फिल्म होती है भला और फिर उन्होंने उतनी ही फिल्म को रबड़ की तरह खींचकर दो घंटे का कर दिया. अजब बात है. तीन-तीन घंटे की फिल्म देखने वाला एक आम भारतीय दर्शक अमिताभ, अभिषेक और ऐश्वर्या जैसे सुपर-डुपर स्टारों के काम वाली दो घंटे की फिल्म को भी आधा घंटा लंबी बता रहा था. 

हालांकि मैं चुपचाप फिल्म देख रहा था पर मेरा मन भी चुपके से कुछ ऐसी ही बातें कर रहा था. जो रामू के मेरे जैसे फैन हैं वो उम्मीद लगाए बैठे थे कि ‘दौड़’ जैसी पकाऊ फिल्म के बाद जिस तरह से उन्होंने ‘सत्या’ बनाकर दुनिया भर को चौंका दिया था, ‘डरना मना है’, ‘नि:शब्द’ और ‘शोले’ के रीमेक्स झिलाने के बाद, वो फिर से कुछ वैसा ही कमाल कर दिखाने वाले हैं. मगर अफसोस ऐसा कुछ हो नहीं पाया. हालांकि कहींकहीं ऐसी कोशिश की गई ज़रूर लगती है मगर ये कोशिश खिचड़ी में पड़ी मेवा जैसा असर ही छोड़ पाती है.

Ash

2005 में आई रामू की सरकार बिला शक एक बढ़िया फिल्म थी, ‘गॉडफादर’ से मिलती-जुलती चीज़ों को ठाकरे परिवार से मिलती-जुलती चीज़ों में मिलाकर बनाया गया एक मस्त सा अपराध और राजनीति का कॉकटेल. उसके बाद की तीनों फिल्मों को धोबीपाट मिलने के बादखासकर शोले कोबाज़ार में रामू के भाव तेज़ी से नीचे गिर गए. अब चूंकि जल्दी से जल्दी कुछ किया जाना था तो इसके लिए सरकार के सीक्वल से बढ़िया उपाय और क्या हो सकता था. मगर फिल्म देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि शोले के रीमेक की तरह ही सरकार राजभी सरकार की एक बुरी कार्बन कॉपी मात्र ही है.

फिल्म में अंत से कुछ पहले तक कुछ भी ऐसा नहीं है जो ज़रा भी मौलिक लगे या दर्शकों के अंदर तनिक भी उत्सुकता का संचार कर पाए. मगर अंत में जब अचानक अमिताभ, फिल्म में तब तक हो चुके के पीछे का भयंकर सच बयान कर, कभी न पैदा हुई जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश करते हैं तो लगता है कि जैसे कोई फालतू का काम कर बाद में लॉजिक देकर उसे महान बनाया जा रहा हो. ऐसा लगता है कि रामू, अंत में अमिताभ के भाषण के माध्यम से जो कुछ फिल्म में घट चुका है उसे असाधारण का चोला पहनाने की कोशिश कर रहे हैं. अच्छा होता कि ये सब दर्शकों को बोलकर समझाने की बजाय कहानी में ही शामिल किया जाता.

अभिनय के मामले में शायद किसी के करने के लिए कुछ नया था ही नहीं. मुख्य पात्रों में से केवल ऐश्वर्या को छोड़कर सबने वही किया है जो सरकार में किया था. ऊपर से घटनाओं की जटिलता उससे भी कम है. हां एक खास बात और, फिल्म में अमिताभ, अभिषेक और परिवार बार-बार महाराष्ट्र के भले में अपना भला देखने वाले डॉयलॉग बोलते हैं. वे फिल्म में कोई काम करते हैं तो महाराष्ट्र के भले के लिए और नहीं करते हैं तो प्रदेश और उसके निवासियों को होने वाले अहित से बचाने के लिए. हाल ही में अमिताभ को लेकर राज ठाकरे ने जो महाराष्ट्र बनाम उत्तर प्रदेश की बहस छेड़ी थी क्या ये उसी का परिणाम तो नहीं!

संजय दुबे