हमारे वायुमंडल में कुछ अच्छी यानी अमृततुल्य, तो कुछ बुरी यानी ज़हरीली गैसें मौज़ूद हैं। पिछले कुछ दशकों में ये देखा गया है कि अच्छी गैसों की हमारे वायुमंडल में लगातार कमी हो रही है, जबकि ज़हरीली गैसें लगातार बढ़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि इन ज़हरीली गैसों की वायुमंडल में ज़रूरत नहीं है; लेकिन अगर ये ज़रूरत से ज़्यादा हों, तो घातक नुक़सान इनके चलते होने लगता है। मीथेन इसी तरह की एक ज़हरीली गैस है, जिसके बढ़ते उत्सर्जन से धरती का तापमान तो बढ़ ही रहा है, और भी बहुत-से नुक़सान धरती पर रहने वाले हर जीव को हो रहे हैं। मीथेन गैस दिखायी नहीं देती है; लेकिन जलवायु संकट ज़्यादा बढ़ाती है।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक, दुनिया में सबसे ज़्यादा मीथेन उत्सर्जन चीन करता है और दूसरा सबसे बड़ा मीथेन उत्सर्जन करने वाला देश भारत है। लेकिन भारत मीथेन उत्सर्जन को कम करना चाहता है। हालाँकि भारत मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले 130 देशों में शामिल नहीं हुआ है। लेकिन इन्फ्रारेड कैमरों से लैस हेलीकॉप्टरों एवं ड्रोन की मदद से पता चलता है कि अमेरिका के टेक्सास और न्यू मैक्सिको में पर्मियन बेसिन से बड़ी मात्रा में मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है।
इस वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा पत्र में समझौता किया गया है कि 2030 तक सामूहिक रूप से वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को कम से कम 30 प्रतिशत कम करेंगे। माना जा रहा है कि अगर ऐसा सम्भव हो सका, तो वैश्विक तापमान में 0.2 प्रतिशत की कमी आ सकती है और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने के लक्ष्य तक पहुँचने में मदद मिलेगी।
भारत में ज़्यादातर मीथेन उत्सर्जन खेती, जानवरों, लैंडफिल से होता है। ऐसे में भारत में मीथेन उत्सर्जन को करने की कोशिश से कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों की आजीविका को ख़तरे में डाल सकता है। इतना ही नहीं, ये आर्थिक संभावनाओं को प्रभावित कर सकता है। लेकिन भारत में लैंडफिलों को ख़त्म करने की दिशा में काम किया जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक, पूरे देश भर में क़रीब 3,100 से ज़्यादा लैंडफिल हैं, जिनसे बड़ी मात्रा में मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। हालाँकि मीथेन उत्सर्जन के स्रोतों को लेकर आज भी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं कि किस चीज़ से कितनी मात्रा में मीथेन उत्सर्जन होता है।
मीथेन गैस के तेज़ी से उत्सर्जन के चलते जलवायु समस्या बढ़ती जा रही है। बीमारियाँ बढ़ रही हैं और धरती के तापमान में बढ़ोतरी के चलते मौसमों में बदलाव हो रहा है। इस बार बसंत ऋतु में गर्मी होना और फिर अचानक बारिश होना, ओले पडऩा इसी मौसम परिवर्तन का नतीजा है। हालाँकि मीथेन भी प्राकृतिक गैसों का एक प्राथमिक घटक है; लेकिन ये गैस ऑक्सीजन (ष्टह्र2) की अपेक्षा 80 गुना ज़्यादा तेज़ी से धरती को गर्म करने की क्षमता रखती है।
रूस यूक्रेन युद्ध के चलते मीथेन गैस का उत्सर्जन बढ़ा है। नये शोधों के मुताबिक, रूस यूक्रेन युद्ध के चलते मीथेन उत्सर्जन में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है। इस युद्ध के बाद से देखा गया है कि दोनों देशों और उनके आसपास के देशों के तापमान में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। मीथेन गैस उतनी ही बढ़ेगी, जितना युद्ध बढ़ेगा और अगर इस युद्ध में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ, तो इस घातक गैस में और बढ़ोतरी होगी।
यह तो साफ़ है कि मीथेन गैस के उत्सर्जन को आसानी से कम नहीं किया जा सकता, क्योंकि मशीनों का उपयोग कम नहीं हो सकता। लगातार बढ़ते वाहन, हथियारों के लगातार होते परीक्षण, लगातार बढ़ता कचरा, ज़रूरी चीज़ों के उत्पादन के लिए तेज़ी से स्थापित होते उद्योग और लगातार बढ़ता कंस्ट्रक्शन इसके कारण हैं। लेकिन मीथेन गैस का इस्तेमाल ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाने में किया जा सकता है। जैसे बिजली बनाने में, पवन चक्कियाँ चलाने में, स्टोव, गैस चूल्हा आदि जलाने में। इसके लिए सबसे बेहतरीन संसाधन लैंडफिल और पशुओं से मिलने वाला गोबर है।
हालाँकि मीथेन एक से डेढ़ दशक में ख़ुद भी नष्ट होती है; लेकिन यह नष्ट होते-होते कई नुक़सान कर जाती है। इस गैस से बेंजीन जैसे ज़हरीले रसायन पैदा होते हैं। मीथेन और इस रसायन के चलते हृदय रोग, अस्थमा, खाँसी, जुकाम, जन्म दोष और अन्य गंभीर रोग होते हैं। मीथेन गैस के उत्सर्जन को रोकने के लिए सिर्फ़ समझौते करने से काम नहीं चलेगा, इसके लिए प्रत्येक देश के मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए ठोस क़दम उठाने होंगे। 130 देशों के बीच हुए समझौते का अभी तक कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया है। हालाँकि मीथेन रिसाव को ट्रैक करने के लिए मीथेनसैट लॉन्च करने की योजना इन देशों ने बनायी है; लेकिन इससे मीथेन उत्सर्जन उतना नहीं रोका जा सकेगा, जितना रुकना चाहिए। मीथेन उत्सर्जन के नतीजों के चलते ज़मीन पर ओजोन में क्रमिक कमी से दुनिया भर में अनुमानित 2,60,000 लोगों की अकाल मौत होती है। जबकि इससे ज़्यादा अस्थमा पीडि़त हो चुके हैं। मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत कम करके जहाँ दुनिया भर में 73 बिलियन घंटे के बराबर श्रम के नुक़सान को रोका जा सकता है, वहीं हर साल 25 मिलियन टन फ़सल उत्पादन का नुक़सान कम किया जा सकता है।
जहाँ तक कृषि क्षेत्र से मीथेन उत्सर्जन का सवाल है, तो उसे जैविक खेती करके काफ़ी हद तक रोका जा सकता है। फर्टिलाइजर खाद, दवाओं और कीटनाशकों के ज़्यादा इस्तेमाल से मीथेन गैस का उत्सर्जन बढ़ा है। इसके अलावा बढ़ती आबादी को रोककर या कम करके, पौधरोपण करके भी मीथेन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। इसके अलावा लीक डिटेक्शन एंड रिपेयर कार्यक्रम शुरू करके, बेहतर प्रौद्योगिकियों एवं परिचालन अभ्यासों को लागू करके और मीथेन उत्सर्जन वाले उद्योगों को प्रतिबंधित करके भी मीथेन उत्सर्जन रोका जा सकता है। मीथेन उत्सर्जन कम होने से न केवल फ़सलों का उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि दूध देने वाले पशुओं की दूध देने की क्षमता भी बढ़ेगी। बीमारियाँ कम होंगी और औसत आयु में बढ़ोतरी होगी।
आज इंसानों की औसत आयु में लगातार कमी आ रही है, जिसका एक कारण हमारे वायुमंडल में बढ़ती मीथेन गैस है। मीथेन गैस के बढऩे से न केवल हवा प्रदूषित हो रही है, बल्कि पानी भी प्रदूषित हो रहा है। ज़्यादा इंसानी आबादी के कारण भी मीथेन उत्सर्जन बढ़ रहा है। गंदगी करने से भी मीथेन गैस का उत्सर्जन बढ़ रहा है। मीथेन का उपयोग करने के लिए हर देश की सरकार को एक व्यापक नीति विकसित करने की ज़रूरत है, जिसके तहत मीथेन गैस का उत्सर्जन कम करने के अलावा इसका भी उपयोग किया जाना चाहिए। इससे काफ़ी लोगों को रोज़गार भी मिल सकेगा। इसके साथ-साथ पृथ्वी पर जीवन सुरक्षा के अलावा वातावरण सुरक्षा और फ़सल सुरक्षा के रास्ते भी खुलेंगे।
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में मीथेन गैस का बड़ा योगदान है। ऐसे में ग्रीनहाउस गैस में मौज़ूद मीथेन के अलावा कार्बन डाइ ऑक्साइड और अन्य ज़हरीली गैसों के उत्सर्जन को भी रोकने की आज सख्त ज़रूरत है। कार्बन डाइ ऑक्साइड के बाद सबसे प्रमुख ग्रीनहाउस गैस मीथेन ही है। एक अनुमान के मुताबिक, हर साल हमारे वातावरण में क़रीब 57 करोड़ टन मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है, जिसका 60 प्रतिशत हिस्से का उत्सर्जन इंसानी गतिविधियों के चलते होता हैं। बाक़ी का 40 प्रतिशत हिस्से का उत्सर्जन प्राकृतिक कारणों से होता है। ऐसा नहीं है कि मीथेन गैस से सिर्फ़ नुक़सान ही नुक़सान हैं। अगर मीथेन गैस हमारे वायुमंडल में नहीं होगी, तो जहाँ आग का जलना मुश्किल होगा, वहीं गर्मी नहीं रहेगी। इससे दुनिया का तापमान घट जाएगा और इससे भी परेशानी पैदा होगी। जीने के लिए ऊर्जा का होना बहुत ज़रूरी है। गर्मी रहने से ऊर्जा मिलती है; लेकिन अगर गर्मी का औसत ज़्यादा हो जाए, तो भी जीना मुश्किल हो जाएगा। आज लगातार बढ़ती गर्मी से दुनिया भर के लोग बेहाल हैं। इसलिए मीथेन गैस के उत्सर्जन को घटाना होगा।
आज मीथेन गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए दुनिया भर में कई तरह के अध्ययन हो रहे हैं; लेकिन इन अध्ययनों में मीथेन उत्सर्जन के जो कारण निकलकर सामने आ रहे हैं, उन्हें रोकने के लिए ठोस क़दम नहीं उठाये जा रहे हैं। हाल के दो सालों में सामने आयी रिपोट्र्स में पहली बार कोयले को मीथेन उत्सर्जन का स्रोत माना गया।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, कोयला उद्योग से हर साल क़रीब 4.2 करोड़ टन मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। मीथेन गैस के उत्सर्जन को लेकर अब तक सामने आयी रिपोट्र्स और मीथेन गैस के नुक़सानों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मीथेन गैस के उत्सर्जन को 100 प्रतिशत नहीं रोका जा सकता है, और रोका भी नहीं जाना चाहिए। क्योंकि जीने के लिए बाक़ी गैसों की तरह मीथेन गैस भी ज़रूरी है; लेकिन इसके उत्पादन को कम करना बहुत ज़रूरी है, ताकि इसका बढऩा जानलेवा न बने, जो कि काफ़ी हद तक बन भी चुका है।