तीन अक्टूबर को रांची स्थित विधानसभा सभागार में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों की बैठक थी. इसमें केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय भी थे और झारखंड कांग्रेस के प्रभारी शकील अहमद भी जो खास तौर पर बैठक में हिस्सा लेने आए थे. दरअसल हफ्ते भर पहले ही कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी दो दिन की झारखंड यात्रा करके गए थे. उसके बाद हो रही इस बैठक का मकसद था हालात की समीक्षा करना और यह भी तय करना कि राहुल गांधी द्वारा दिए गए सुझावों को कैसे चरणबद्ध तरीके से अमल में लाया जाए.
लेकिन होने कुछ और लगा. शोर-शराबा इतना कि कुछ देर के लिए लगा जैसे यह सभागार नहीं मछली बाजार हो. थोड़ी देर बाद लिखित पुरजों के जरिए शिकायतों का पुलिंदा शकील अहमद तक पहुंचा. उन्होंने राज्य में पार्टी की हालत पर पीड़ा और नाराजगी जताई. कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष फुरकान अंसारी ने कहा, ‘कांग्रेस में सब के सब नेता हैं. कार्यकर्ता रहने को कोई तैयार नहीं.’ महिला कांग्रेस की अध्यक्ष आभा सिन्हा की शिकायत थी, ‘हमारे शिष्टमंडल को राहुल जी से मिलने नहीं दिया गया, कैसे भला होगा संगठन का!’ कार्यसमिति के सदस्य प्रदीप तुलस्यान ने मर्सिया गान करते हुए कहा कि अब यहां कांग्रेस खत्म होने की राह पर है. पार्टी नेता मंजू हेंब्रम का कहना था, ‘प्रदेश के जो अध्यक्ष हैं प्रदीप बलमुचुजी, उनसे संगठन नहीं संभल रहा, उन्हें अपने लोगों की चापलूसी से फुर्सत नहीं है.’ ऐसी ही कई बातें सामने आती रहीं और सबको सुनने के बाद शकील अहमद ने कहा, ‘बस! इसी उद्देश्य से यह बैठकी लगी थी, सबकी भावनाओं से हम राहुल गांधी को अवगत करा देंगे.’
तीन अक्टूबर की इस बैठकी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य कांग्रेस में जान फूंकने के उद्देश्य से 25 और 26 सितंबर को झारखंड आए राहुल गांधी की इस कवायद का क्या असर हुआ. गौर करने वाली बात यह भी थी कि प्रदेश के 13 कांग्रेसी विधायकों में से सिर्फ तीन इस बैठक में हिस्सा लेने आए थे. और तो और, प्रदेश अध्यक्ष बलमुचु भी इसमें मौजूद नहीं थे. सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि जब गुटबाजी गले तक हो तो झारखंड में खस्ताहाल कांग्रेस उबरे भी तो कैसे.
दरअसल पिछले छह साल से कांग्रेस प्रदेश में सांगठनिक स्तर पर जड़ता की शिकार बनी हुई है. राहुल गांधी ने जो बातें झारखंड आकर कहीं कि यहां के नेता हवाई जहाज से उड़कर दिल्ली पहुंचते हैं और टिकट ले लेते हैं, वह फिलहाल रुकने वाला नहीं. लगभग तीन दशक तक कांग्रेस से जुड़े रहे कांग्रेसी नेता अरुण पांडेय कहते हैं, ‘राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगता है, उसका भद्दा रूप झारखंड में देखा जा सकता है. पिछले कुछ वर्षों में पांच कांग्रेसी दिग्गज, जो सांसद रहे हैं, उन्होंने अपने परिजनों को टिकट दिलाया. इनमें केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय तक शामिल हैं जिन्होंने विगत माह हटिया विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में अपने भाई सुनील सहाय को टिकट दिलाने के लिए कई कांग्रेसी नेताओं व वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के अरमानों का गला दबाया. हालांकि इसका नतीजा यह हुआ कि पहली बार कांग्रेस को अपने गढ़ में जमानत तक गंवानी पड़ी. वह भी तब, जब वह सीट कांग्रेसी विधायक के ही निधन के बाद खाली हुई थी.’
अरुण पांडे सुबोधकांत की बातें ज्यादा बताते हैं लेकिन फुरकान अंसारी, चंद्रशेखर दुबे जैसे नेता भी झारखंड में यही करते रहे हैं. वैसे यह भी सच है कि झारखंड में जितने भी सांसद पुत्र या परिजन मैदान में उतारे गए जनता ने उन सबको नकार दिया. सूत्र बताते हैं कि इस बार राहुल गांधी झारखंड आए तो उन्होंने कहा कि अब दिल्ली से चुनाव के वक्त नहीं बल्कि आठ माह पहले ही टिकट तय कर दिया जाएगा. इसलिए ताकि आखिरी समय में बड़े दांव-पेंच वाले नेता अपना खेल दिल्ली में न कर सकें और झारखंड में रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता सिर्फ तमाशबीन भर न रहें. लेकिन सवाल उठता है कि क्या इससे स्थिति में कोई बदलाव आएगा. राजनीतिक विश्लेषक आनंद मोहन बताते हैं, ‘टिकट बंटवारे का यह फॉर्मूला लागू हुआ तो पार्टी का और रसातल में जाना तय है. आठ माह पहले जिसे टिकट मिल जाएगा वह तो इतने समय में दिन-रात एक कर अपनी जीत के लिए आसमान से तारे तोड़ने जैसी कोशिश करेगा लेकिन जिन्हें टिकट नहीं मिलेगा उन्हें भी भीतरघात करने और हरवा देने का अभियान चलाने के लिए उतना ही समय मिलेगा.’
हालांकि कांग्रेस विधायक सौरव नारायण सिंह इस बात से इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के लिए आठ माह पहले टिकट देने का फैसला ठीक है ताकि अगर गलत उम्मीदवार का चयन भी हो गया हो और उसके खिलाफ सही शिकायतें मिलंे तो उसे बदला जा सके.’ कांग्रेस के प्रदेश महासचिव शैलेश सिन्हा भी यही बात दोहराते हैं कि उम्मीदवार को आठ माह का समय मिलने से वह घर-घर जाकर संपर्क कर सकता है, कांग्रेस के बारे में बता सकता है और जनता की कसौटी पर अपनी पहचान भी मजबूत कर सकता है.
खैर! राहुल के इस आठ माह पहले वाले फॉर्मूले का क्या असर होगा, यह फॉर्मूला लागू होगा भी नहीं, कहा नहीं जा सकता लेकिन फिलहाल साफ-साफ, सुबोधकांत और प्रदीप बलमुचु के दो गुटों में बंटी कांग्रेस के सामने यही गुटबाजी और भितरघात सबसे बड़ी बाधा की तरह खड़ी है. उसके लिए चुनौती यह भी है कि राज्य में झामुमो, आजसू और झाविमो जैसे तीन बड़े क्षेत्रीय दल हैं, जिनके खाते में कांग्रेस का परंपरागत वोट तेजी से खिसक चुका है. और इसके अलावा राज्य में भाजपा तो सत्ता में है ही!