हर चीज को योजनाबद्ध ढंग से किसी एप्प के जरिए तेजी से संचालित करने की इच्छावाले समय में इस कॉलम का नाम ‘औघट घाट’ अजीब लगता है. कोई ऐसा घाट जो पानी तक पहुंचने के चालू इंतजामों से परे हो. सुनते ही मुझे ध्वनिसाम्य के कारण औघड़ की याद आई. जैसे कोई कहे चल और आपके भीतर कलकल नदी बहने लगे. मैंने संपादक से कहा, मैं सबसे पहले उन लोगों पर लिखूंगा जिनसे रातों को लखनऊ के श्मशान भैंसाकुंड में मिलता था.
अराजकतावाले बेलगाम दिन थे. भोर का तारा उगने यानी अखबारों के बंडल सड़क पर गिरने से पहले डेरे पर लौटना नहीं होता था. हम कुछ दोस्त जो कुछ भी ध्यानखींचू, वर्जित और परेशान करनेवाला था उसे जानकर, डकार न लेने का दिखावा करते हुए पचा लेना चाहते थे. अराजकता हम सभी को दुनियावी पैमाने पर तबाह कर रही थी लेकिन साथ ही दुनिया को चलाने वाले भीतर के पलंजर का स्पर्श करा रही थी इसलिए उसके सम्मोहन में बंधे थे. यह अराजकता के भीतर की व्यवस्था थी.
जाड़े की एक रात किसी दोस्त ने भैंसाकुंड में धूनी रमाए एक नए त्रिकालदर्शी औघड़ के बारे में बताया, शहर में उसके बैनर लगे हुए थे, वह सारी जिज्ञासाओं के समाधान कागज पर लिख देता था. हम तीन-चार लोग आधी रात के बाद मदिरा, मूंगफली और सिगरेटों का चढ़ावा लेकर श्मशान पहुंचे. अंधेरे में लाशों की चिराइन गंध, कुहरे में नदी की गरम सांस के साथ उठती उल्लुओं की चीख और चमगादड़ों के उड़ानवृत्त से घिरा औघड़ काले चिथड़ों में धूनी की राख के सामने बनैले कुत्तों के साथ बैठा ऊंघ रहा था.
एक चेले ने हमारे आने का प्रयोजन बताया तो उसने जागकर धूनी के सामने बैठने का उनींदा इशारा किया. इष्टदेव को मदिरा चढ़ाने के बाद उसने प्रसाद बांटा. हम लोग तंत्र-मंत्र की वाचिक और किताबी जानकारियों के आधार पर औघड़ के सत्त को टटोलने की कोशिश करते रहे. मौका पाकर एक मित्र राघवेंद्र दुबे ने शिवतांडव स्त्रोत का सस्वर पाठ करते हुए एक लघु नृत्यनाटिका भी प्रस्तुत की जिससे वह मुदित हुआ लेकिन जल्दी ही ऊब गया. उसने जम्हाई लेते हुए हाथ हिलाकर सभा बर्खास्त करते हुए अगली रात आने को कहा.
हम लोग ज्यादा भेंट और तैयारी के साथ अगली रात पहुंचे तो उसने चेले को मदिरा की बोतलों के साथ गुप्त पूजा के लिए नदी की ओर भेज दिया. वह थोड़ी देर बाद भीगी धोती में लौटा तब उन्माद से भभकती देहभाषा और मंत्रों के साथ आगे की कार्रवाई शुरू हुई. उसने झूमते हुए हम तीनों को एक-एक सादा कागज थमाया जिस पर हमें नाम, जन्मतिथि और जन्म स्थान लिखकर वापस कर देना था. औघड़ ने कागज हाथ में आते ही तेजी से घसीटकर लिखना शुरू किया.
पुतलियों को छोड़कर हमारा बाकी शरीर हिल रहा था, हम उसकी ओर दम साधे उत्कंठा में ताक रहे थे. वहां होल्डर से झूलते इकलौते बल्ब की रोशनी में अपने अज्ञात मानस और आगत को काफी देर तक पढ़ने के बाद हमने तय योजना के मुताबिक कागज आपस में बदल लिए. हमने पाया कि हम सभी एक ही भयावह पैटर्न पर घसीटे गए थे और हमारा उद्धार उन तांत्रिक अनुष्ठानों से होना था जो वही कर सकता था. थोड़ी-सी बहस के बाद तीन औघड़ों से हमारी मारपीट शुरू हो गई. पटका-पटकी से उठे धूल धक्कड़ और कुत्तों की गुर्राहट के बीच हम लोग औघड़ को भाग जाने की चेतावनी देते हुए वहां रखी एक खोपड़ी, हड्डियों, मालाओं और इकलौते बल्ब के साथ मोटरसाइकिलों से वापस लौट आए.
उस रात मैंने बहुत दुख के साथ महसूस किया कि औघड़ भी नकली होने लगे हैं. उनके गिर्द भय और रहस्य का सिर्फ एक पुरातन घेरा बचा है जिसे वे मार्केटिंग कंपनियों जैसे कौशल से बचाए रखते हैं.
यह समय जैसे उस रात का ही विस्तार है जिसमें फरेब और सस्तेपन को एक खास नीयत से ग्लैमराइज किया जा रहा है. यह खोखलेपन के महिमामंडन का समय है. जो नहीं है उसका घटाटोप प्रचार करते हुए तथाकथित पौष्टिक पावरोटी से लेकर एक प्रतापी प्रधानमंत्री तक कुछ भी बनाया जा सकता है. छवियों के खालिस प्रबंधन से विचारक, संत, लेखक, दार्शनिक, सुंदरियां और किसिम-किसिम के महानायक तैयार करनेवाले जानते हैं कि जो जितना लुंजपुंज और सारहीन होगा उतना ही पूंजी निर्भर प्रचारजीवी होगा. उसे बनाकर मुनाफा खींचना और घाटे का सौदा साबित होने पर मिटा देना आसान होगा… इस सस्तेपन को महसूसकर जो खुजली मचती है वह बहुत कीमती है.
उसकी खरोंच ही योग्य मनुष्यों को उनकी सही जगह तक ले जाने वाला यात्रापथ बनेगी.