12 फरवरी से 26 फरवरी, 2011 का समय झारखंड वालों के लिए यादगार रहेगा. यह 34वें राष्ट्रीय खेलों के आयोजन की तारीख है. राज्य की राजधानी रांची, जमशेदपुर और धनबाद के 22 चमचमाते स्टेडियमों में संपन्न हुए राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने के लिए देश भर के 6,114 खिलाड़ी जुटे थे. झारखंड सरकार सिर्फ आयोजन पर ही नहीं बल्कि इस तथ्य पर भी इतरा रही थी कि पदक तालिका में झारखंड शीर्ष पांच में शामिल है.
लेकिन इस सच्चाई से जुड़े दो और पहलू हैं. एक तो यह कि झारखंड ने ऐसे-ऐसे खेलों में पदक बटोरे थे जिन्हें देखना तो दूर झारखंड के लोगों ने उनका नाम भी शायद ही सुना हो. दूसरे, 80 प्रतिशत से ज्यादा पदक उन खिलाड़ियों के सहारे आए जो झारखंड के थे ही नहीं, उन्हें सरकार ने किराये पर बुला रखा था यानी आयातित खिलाड़ी. बताते हैं कि सरकार की सनक थी कि पदक आने चाहिए चाहे जैसे आएं. उन खेलों पर गौर करते हैं जिनमें झारखंड ने पदक जीते थे. हॉकी, तीरंदाजी, फुटबॉल, कबड्डी जैसे खेलों का तो झारखंड गढ़ ही रहा है. बॉलीबॉल, बास्केटबॉल, कुश्ती, बॉक्सिंग, जिमनास्टिक, टेबल टेनिस, जूडो, स्क्वैश, रग्बी, तलवारबाजी, घुड़सवारी जैसे खेल भी झारखंड न सही देश के किसी न किसी हिस्से में खेले जाते हैं और लोग इनके बारे में जानते भी हैं. लेकिन यहां ऐसे खेल भी हुए जिनमें हमारी राज्य स्तरीय तो छोड़िए राष्ट्रीय टीम तक नहीं है. कयाकिंग, रोइंग, कैनोइंग, ताईक्वांडो, वुशू, ट्राइथलोन, इक्विस्ट्रियन जैसे खेल जिनका नाम लेने में भी जीभ लरज जाए. झारखंड के खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों ने ये नाम ही पहली दफा सुने थे. मजे की बात है कि राज्य ने इन खेलों में पदक भले ही जीत लिया हो मगर राज्य के खिलाड़ी अब तक उन खेलों से परिचित नहीं हो सके हैं. क्यों? यह आप इस छोटे-से उदाहरण से समझ सकते हैं. झारखंड ने घुड़सवारी में भी भाग लिया था. इसका संघ आज भी मौजूद है लेकिन घोड़ा और घुड़सवार न तब थे, न अब हैं. इस संबंध में घुड़सवारी संघ के सचिव कुलदीप सिंह बस इतना ही कहते हैं, ‘एक घोड़े की कीमत पचास लाख रुपये है. हर दिन उसे खिलाने का खर्च हजार रुपये आता है. यह खर्च हम नहीं उठा सकते. अभी हमारे पास कोई ढांचा नहीं है.’ स्वाभाविक ही सवाल उठता है कि फिर संघ का क्या काम.
राष्ट्रीय खेल के समय झारखंड ओलंपिक एसोसिएशन की छत्रछाया में 30 खेल संघों का गठन हुआ था. तकनीकी विवाद में पड़कर चार खेल संघ कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं और शेष बचे 26 अस्तित्व में हैं. लेकिन इन खेल संघों के रहने का जमीनी नतीजा देखें तो राष्ट्रीय खेल के बाद से अब तक करीब 50 फीसदी खेल संघों (खोखो, रोइंग, जिमनास्टिक, नेटबॉल, हॉकी, कैनोइंग-कयाकिंग, रग्बी, टेबल टेनिस, फेंसिंग, जूडो, कराटे, वेटलिफ्टिंग, बैडमिंटन और घुड़सवारी) के खाते में एक भी खेल गतिविधि नहीं है. कइयों की तो स्थिति भी ऐसी नहीं कि वे कुछ करवा सकें. झारखंड ओलंपिक संघ के कोषाध्यक्ष मधुकांत पाठक कहते हैं, ‘खेलों के साथ सरकार फुटबॉल खेल रही है.’ पाठक एथलेटिक्स संघ के सचिव भी हैं. वे कहते हैं, ‘हमने राष्ट्रीय खेल के बाद पिछले डेढ़ सालों में तीन राष्ट्रीय चैंपियनशिप करवाई है. सरकार ने हमें वित्तीय मदद देने का भरोसा दिया था. लेकिन खेल हो जाने के बाद सरकार ने 14 लाख के बजाय अब तक सिर्फ पांच लाख 38 हजार रुपये ही दिए हैं.’ यही पाठक जिमनास्टिक संघ के भी प्रमुख हैं. जब उनसे जिमनास्टिक में ठप पड़ी गतिविधि के बारे में पूछा जाता है तो उनका सुर बदल जाता है, ‘अभी तो उस खेल की जमीन तैयार हुई है. खिलाड़ी नहीं हैं. वैसे भी जमीन के बाद ही मकान की उम्मीद की जा सकती है.’ लेकिन मकान कैसे बने जब जमीन संभालना ही बस से बाहर हो. शूटिंग संघ के अध्यक्ष संजेश मोहन ठाकुर कहते हैं, ‘यह जो भारी-भरकम इंफ्रास्ट्रकचर है उसका किराया बहुत महंगा है, ऊपर से बिजली का बिल भी 15 हजार रुपये रोज देना पड़ता है. ऐसे में भला कोई खेल संघ कैसे कोई आयोजन करेगा?’
झारखंड ने ऐसे-ऐसे खेलों में पदक जीते जिनके नाम तक लोगों ने नहीं सुने थे. ऊपर से 80 प्रतिशत से ज्यादा पदक आयातित खिलाड़ियों के सहारे आए.
31 मार्च, 2012 को समाप्त हुए वित्त वर्ष में सरकार द्वारा आवंटित खेल बजट के 80 लाख रुपये बिना किसी इस्तेमाल के वापस लौट गए. इसे देखते हुए पाठक और संजेश मोहन का संसाधनों के लिए रोना वाजिब लगता है. इस बात पर झारखंड ओलंपिक संघ के सचिव सैय्यद मतलूब हाशमी कहते हैं, ‘यह सच है कि कुछ बकाये का भुगतान सरकार ने अभी नहीं किया है. पर हर काम सरकार ही क्यों करे?’ हम हाशमी से पूछते हैं कि वे भी तो कायाकिंग, कैनोइंग और रोइंग जैसे अजूबे खेल संघों के पदाधिकारी हैं और वे तो कभी खेल से जुड़े भी नहीं रहे. बीच में ही बात काटते हुए वे कहते हैं, ‘मैं वॉलीबॉल से जुड़ा रहा हूं. लेकिन यह याद रखिए कि इस देश में अधिकांश खेल संघों के पदाधिकारियों का खेल से कोई वास्ता नहीं रहा है. एडमिनिस्ट्रेटर और खिलाड़ी में अंतर होता है. यह जरूरी नहीं है कि जो खिलाड़ी होगा वह संघ के पदाधिकारी के रूप में बेहतर काम करेगा. हमने राज्य की शान को बढ़ाया है और जिन खेलों का झारखंड के लोगों ने नाम तक नहीं सुना था उन खेलों को यहां पैदा किया है. अब इन्फ्रास्ट्रक्चर बन गया है तो हम खिलाड़ी भी पैदा कर रहे हैं. इन बातों में उलझने से कोई फायदा नहीं है कि इन खेलों की साल भर से कोई प्रतियोगिता नहीं हुई.’
हाशमी जितनी आसानी से एडमिनिस्ट्रेटर और खिलाड़ी का फर्क समझाते हैं, बात उतनी आसान नहीं है. राज्य में खेलों से जुड़ी राजनीति का एक और पहलू है जिसे शक्ति समीकरण कहा जा सकता है. ताकत का यह खेल बेमतलब के खेल संघों को अस्तित्व प्रदान करता है. राष्ट्रीय खेलों के दौरान सभी खेल संघों पर धन की बरसात हो रही थी. खेलों के बाद अब यह बहुतों के लिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का मामला बन गया है. आलम यह है कि सभी पदाधिकारी सरकार के असहयोग की तो शिकायत करते रहते हैं लेकिन वे संघ के पदों पर किसी भी तरह से जमे रहना चाहते हैं. एक-एक व्यक्ति के पास चार-चार या उससे भी ज्यादा संघों का दायित्व है. उदाहरण के लिए झारखंड ओलंपिक संघ के अध्यक्ष आरके आनंद के पास तीन खेल संघ थे (वॉलीबॉल, जिमनास्टिक और वेटलिफ्टिंग), इनमें से वेटलिफ्टिंग इन्होंने छोड़ दिया है. इसी तरह झारखंड ओलंपिक एसोसिएशन के सचिव मतलूब हाशमी छह खेल संघों में अध्यक्ष या महासचिव हैं. ओलपिक एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष मधुकांत पाठक तीन खेल संघों में अध्यक्ष या सचिव हैं. इसी तरह एक और तथ्य यह भी है कि 26 खेल संघों में से सिर्फ तीन खेल संघों के अध्यक्ष तथा 12 खेल संघों के सचिव या महासचिव ही उस खेल से जुड़े रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा खेल संघों पर काबिज होने के पीछे की राजनीति को जानना जरूरी है. जब स्टेट ओलंपिक एसोसिएशन के लिए वोटिंग होती है तो हर खेल संघ से एक पदाधिकारी (सचिव या अध्यक्ष) वोट डालता है. यानी एक संघ एक वोट. ऐसे में जिसके पास जितने ज्यादा संघ होंगे उसके पास उतने ज्यादा वोट होंगे. ऐसे में खेलों का तेल निकल रहा है. जानकार सवाल करते हैं कि एक ही संघ संभालना मुश्किल होता है तो ये पदाधिकारी 4-4 या 6-6 संघों को अपने पास रखकर खिलाड़ियों का कितना भला कर पाते होंगे.
राज्य की खेल उपनिदेशक सरोजिनी लकड़ा कहती हैं, ‘यहां के खेल संघ लंबी-लंबी बात कर दूसरे किस्म की राजनीति में ज्यादा रुचि लेते हैं. बिना कुछ किए-धरे बस पैसा बनाना चाहते हैं. हमने खेल संघों से स्पोर्ट्स कैलेंडर बनाकर भेजने को कहा था. पर अब तक किसी संघ ने नहीं भेजा है. सरकार को जितना करना चाहिए वह उससे ज्यादा कर रही है. सरकार चाहती है कि पंचायत, ब्लॉक और जिला स्तर पर खेलों को प्रोत्साहन मिले और यहां के खिलाड़ी प्रोफेशनल बनंे, ताकि बार-बार आयातित खिलाड़ियों का मुंह न तकना पड़े.’ यानी संघ गेंद सरकार के पाले में फेंक रहे हैं और सरकार ठीकरा संघों पर फोड़ रही है. इस सबमें नुकसान उन खेलों और खिलाड़ियों का हो रहा है जिनकी वजह से झारखंड की पहचान रही है और यहां के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धाक जमाते आए हैं. हॉकी को लें. इस खेल में पंजाब के बाद झारखंड के खिलाड़ियों का बोलबाला रहता आया है. पर आज राज्य का हॉकी संघ अधर में अटका हुआ है. राष्ट्रीय खेलों से पहले राज्य में महिला और पुरुष हॉकी संघ अलग-अलग थे. हालांकि महिला संघ इसके लिए तैयार नहीं था. बीच का रास्ता निकाला गया. तय हुआ कि राष्ट्रीय खेल एकीकृत संघ के तहत हो जाएं इसके बाद फिर बातचीत के जरिए रास्ता सुलझा लिया जाएगा. वह दिन बीता और आज का दिन आ गया. महिला संघ की पदाधिकारी सावित्री पूर्ति अदालत का दरवाजा खटखटा चुकी हैं. इस झगड़े की भेंट जिला से लेकर राज्य स्तर पर होने वाली हॉकी प्रतियोगिताएं चढ़ गईं हैं. डेढ़ सालों से एक भी हॉकी प्रतियोगिता आयोजित नहीं हुई है. यही हाल कबड्डी, शूटिंग आदि का भी है. ये सभी ऐसे खेल हैं जिनमें झारखंड लगातार अव्वल रहा है. शूटिंग संघ के संजेश मोहन ठाकुर कहते हैं, ‘पिछले महीने ही हमने राज्य स्तरीय शूटिंग कैंप आयोजित किया था, लेकिन यह कैंप राजधानी से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर एक कस्बाई स्कूल में हुआ क्योंकि राष्ट्रीय खेल में जो शूटिंग स्टेडियम चमकता हुआ दिखता था, रख-रखाव की कमी के कारण फिलहाल बेकार हो गया है.’ राष्ट्रीय खेल के दौरान करीब 650 करोड़ की लागत से बने अधिकांश स्टेडियम आज खंडहर बनने की राह पर हैं. स्टेडियमों के केयर टेकर मारुति ठाकुर कहते हैं, ‘रख-रखाव का खर्च भी नहीं मिल रहा है, इसलिए इनकी दुर्दशा है. अगर खेल होते तो उससे इनका रखरखाव तो बेहतर हो ही सकता था.’