जैसे क्रिकेट विश्व कप की हार-जीत को लेकर कयासगोइयाँ थीं, वैसी ही अब पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लेकर हैं- कौन जीतेगा? हिन्दोस्तान में क्रिकेट और चुनाव दोनों ही बुख़ार लेकर आते हैं, जो हर किसी के सिर चढक़र बोलता है। विश्व कप तीसरी बार जीतने का भारत का सपना टूट गया। चुनाव में भी कई सपने पल रहे हैं। सपने जीतने के ही हैं। जब 3 दिसंबर को चुनाव के नतीजे आएँगे मौसम में और ठण्ड घुल चुकी होगी। लेकिन राजनीति की फ़िज़ाएँ गर्म होगी। काफ़ी गर्म। नतीजे के दिन कुछ के सपने टूटेंगे और कुछ के लिए यह पठाखे फोडऩे और मिठाई बाँटने का दिन होगा। हो भी क्यों नहीं। आख़िर यह नतीजे 2024 के बड़े चुनाव का गेटवे जो हैं।
पाँच राज्यों के चुनाव की एक ख़ास बात भी है। यह राज्य एक तरह से मिनी भारत का स्वरूप हैं। कैसे? राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ हिन्दी भाषी तो हैं ही, इनमें से दो राज्यों में आदिवासी समुदाय की संख्या भी काफ़ी है। तेलंगाना एक तरह से दक्षिण का प्रतिनिधित्व करता है। अर्थात् वहाँ के नतीजे से पता चल सकेगा कि दक्षिण में लोगों का मूड क्या है। और मणिपुर में हाल की भयावह घटनाओं में बाद मिजोरम के चुनाव नतीजे पूर्वोत्तर की जनता की सोच का संकेत देंगे। इस बार के चुनाव में जाति जनगणना और पुरानी पेंशन स्कीम (ओपीएस) भी काफ़ी ज़्यादा चर्चा में हैं।
जाति देश के हर समाज में महत्त्व रखती ही है, भले हम जो कहें। इस बार जाति का यह मुद्दा सामाजिक समानता से जुड़ता प्रतीत हो रहा है। और सेवानिवृत्ति के बाद घर का ख़र्चा कैसे चले, यह भी हमारे समाज की एक बड़ी चिन्ता रहती है। ऐसे में ओपीएस की चर्चा तो स्वाभाविक ही है।
क्रिकेट में देश को बड़ी उम्मीदें थीं। आख़िर भारत की टीम लगातार 10 मैच जीतकर फाइनल में पहुँची थी। लेकिन ट्रॉफी जब सामने दिख रही थी, तब जीत का दरवाज़ा बंद हो गया। क्रिकेट का यह नतीजा बताता है कि हार-जीत खेल का हिस्सा है। हार-जीत चुनाव का भी हिस्सा है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि आपने पिछले महीनों में कितने चुनाव जीते। यदि जीते, तो हार भी सकते हैं। हारे हैं, तो जीत भी सकते हैं। जैसे विश्व कप ख़त्म होने के बाद अगले बड़े टूर्नामेंट की तैयारी खिलाड़ी शुरू कर देते हैं, वैसे ही इन पाँच राज्यों के नतीजों के बाद राजनीतिक दल भी 2024 की तैयारी शुरू कर देंगे। लेकिन हार-जीत हमारे मनोविज्ञान पर असर डालती है। जीत हमारे भीतर ऊर्जा पैदा करती है। लेकिन हमें सिर्फ़ ऊर्जा नहीं जिता सकती। जैसा कि लगातार जीतने के बावजूद भारत के साथ फाइनल में हुआ। हमारी रणनीतियाँ भी हार-जीत तय करने में बड़ा रोल अदा करती हैं।
पाँच राज्यों के इन चुनावों में भी गहरी रणनीतियाँ बुनी गयी हैं। मसलन भाजपा ने सभी पाँच राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप के चेहरे पर दाँव नहीं खेला। ख़ुद के दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही राज्यों के चुनाव में अपना चेहरा बनाया है।
एक तरह से मोदी भाजपा की राजनीति के भगवान हैं। वैसे ही जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर रहे और अब विराट कोहली हैं। लेकिन क्रिकेट का भगवान होकर भी सचिन और विराट मैदान में हमेशा शतक नहीं बना पाते। वैसे ही राजनीति में कोई नेता हमेशा नहीं जीतता। हम भगवान होने या अपराजेय होने का भ्रम पाल लेते हैं। या हमारे शुभचिंतक हमें ऐसा बना देते हैं। फिर हम भी उसी भ्रम में जीने लगते हैं। राजनीति में भी बहुत-से लोग इस भ्रम में जी रहे हैं।
भाजपा की मोदी पर भरोसे या कह लीजिये अतिविश्वास की यह रणनीति उसकी अपनी सोच है। हो सकता है कि उसे लगता हो कि वह राज्यों के नेताओं के चेहरे पर चुनाव नहीं जीत पाएगी। या फिर किसी एक को आगे करके उसे यह ख़तरा दिखता है कि ऐसा करने से बग़ावत हो सकती है। लिहाज़ा नतीजों के बाद देखा जाएगा, क्या करना है। मोदी आख़िर देश की चुनावी राजनीति में एक बड़ा ब्रांड हैं। भाजपा उनके चेहरे को भला क्यों न भुनाए? लेकिन इन राज्यों में भाजपा के सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की रणनीति इसके विपरीत है। कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े और सबसे बड़े चेहरे राहुल गाँधी को प्रचार में जमकर झोंका; लेकिन चुनाव में चेहरे के रूप में क्षेत्रीय क्षत्रपों को ही रखा। मसलन राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश में कमलनाथ।
चुनाव नतीजों से पहले कहा जा सकता है कि पाँच राज्यों में मोदी की लोकप्रियता और ब्रांड नाम का मुक़ाबला कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों से हैं। न कि सीधे राहुल गाँधी और खडग़े से, जिन्होंने कांग्रेस की तमाम रणनीतियाँ बुनीं, जिनमें स्थानीय चेहरों को आगे रखने की रणनीति भी शामिल है। ऐसा नहीं कि कांग्रेस जीती, तो उसका श्रेय राहुल गाँधी या खडग़े को नहीं जाएगा। संघवाद में केंद्रीय सत्ता के साथ-साथ स्थानीय सत्ता का भी महत्त्व है। कांग्रेस भी लम्बे समय तक केंद्रीय सत्ता में एकाधिकार की शिकार रही। लेकिन वह अब सत्ता और नेतृत्व का विकेंद्रीकरण कर रही है। दुर्भाग्य से अब भाजपा इस केंद्रीकृत सत्ता का शिकार हो गयी है, जो राज्यों में उसके सांगठनिक ढाँचे को धीरे-धीरे कमज़ोर कर देगा, क्योंकि क्षेत्रीय नेतृत्व में इतना आत्मविश्वास नहीं रह जाएगा कि वह चुनाव में अपने बूते जीतने का साहस कर सके।
क्रिकेट और चुनाव में एक और समानता है। चुनावों में नेता एक-दूसरे पर ख़ूब छींटाकशी करने लगे हैं। क्रिकेट विश्व कप में भी ख़ूब स्लेजिंग हुई। अर्थात् दोनों के स्वभाव एक जैसे हैं। यह मानवीय स्वभाव है। और इसमें जब कॉर्पोरेट जुड़ जाता है, तो मामला ज़रा गम्भीर हो जाता है। अब तो चुनाव और क्रिकेट दोनों में अपशब्दों का चलन आम हो गया है। राजनीति समाज के लिए थी, जेबें भरने के लिए बन गयी। क्रिकेट भद्रजनों का खेल था, स्लेजिंग तक आ पहुँचा। मार-काट है, चुनाव में भी, क्रिकेट में भी। क्योंकि जीतना है। जीत के लिए साम-दाम-दंड-भेद सब होता है। चुनाव और क्रिकेट दोनों में नियम हैं, फिर भी टूटते हैं।
भाजपा अब तक मोदी के नाम पर आत्मविश्वास से भरी रही है। पार्टी के समर्थक तो यह भी दावा करते हैं कि मोदी ही 2029 तक देश के प्रधानमंत्री रहेंगे और शायद उससे आगे जाकर भी भाजपा की ही सत्ता रहेगी। प्रधानमंत्री मोदी तो स्वतंत्रता दिवस पर ख़ुद ही अपनी विजय का पूर्व ऐलान कर चुके हैं, जब उन्होंने कहा कि आगे जो काम हैं, शायद ईश्वर ने उनके ही नाम करने के लिए लिखे हैं।
आत्मविश्वास होना बुरी चीज़ नहीं; लेकिन अति-आत्मविश्वास नुक़सान कर देता है। जनता को तय करने दें, उसे कौन चाहिए? 10 मैच जीतकर भी भारतीय टीम क्रिकेट विश्व कप के फाइनल में उस ऑस्ट्रेलिया टीम से परास्त हो गयी, जो अपने पहले दोनों मैच हार गयी थी। बहुत-से लोग मानते हैं कि यह अति-आत्मविश्वास का नतीजा था। पाँच राज्यों के चुनाव बहुत दिलचस्प हैं। गुपचुप लहर (अंडर करंट) भी हो सकती है, किसी के पक्ष में, किसी के विरोध में!
क्रिकेट का विश्व कप हो गया, चुनाव का अभी बाक़ी है। कह सकते हैं कि 50 में से 25 ओवर अभी हो जाएँगे और 25 फाइनल के लिए बच जाएँगे। पहले के इन 25 ओवर में बनाया गया स्कोर ही फाइनल के 25 ओवर में जीत की नींव खड़ी करेगा। चुनाव नतीजों से ही प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट का चेहरा भी सामने आएगा, जैसे क्रिकेट में विराट कोहली का आया था। ज़्यादा ओवर निकल जाने पर जब रन नहीं बनते, तो बल्लेबाज़ को शॉट खेलने के लिए रिस्क लेना पड़ता है, जिसमें उसके आउट होने का ख़तरा बन जाता है। वैसा ही रिस्क चुनाव में भी है।
पाँच राज्यों में हार-जीत 2024 के फाइनल में नेताओं की बॉडी लैंग्वेज तय करेगी। इस चुनाव में जनता बॉलर की भूमिका है। वह किसको बाउंसर मारेगी और किसे गुगली, कहना कठिन है। कौन अच्छा डिफेंस करेगा या हुक करके चौका मारेगा, यह 3 दिसंबर को पता चलेगा। क्रिकेट और चुनाव दोनों आख़िरी ओवर तक देखे जाने की चीज़ हैं।