17 नवंबर को वार्षिक मंडला-मकरविलक्कू पर्व के साथ ही केरल के पठानमथिट्टा जिले में स्थित सबरीमाला मंदिर के द्वार खोले गये और हज़ारों श्रद्धालुओं ने दर्शन किये। अब अगले दो महीने तक मंदिर में श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहेगा। पिछले वर्ष शीर्ष अदालत की ओर से सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने के फैसले के बाद मंदिर परिसर के आसपास भारी तादाद में सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं। मंदिर की प्राचीन परंपरा से इतर जब महिलाओं ने प्रवेश न करने की कोशिश की तो हजारों श्रद्धालुओं ने उनका विरोध किया और उनको अंदर नहीं जाने दिया गया। खास बात यह है कि भगवान अयप्पा मंदिर के बाहर खास उम्र की महिलाओं को दर्शन करने से रोकने के लिए विरोध में महिला भक्त भी जुटीं।
16 नवंबर को सबरीमाला मंदिर में 10 महिलाओं ने मंदिर की परम्परा से इतर और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देकर प्रवेश करने का प्रयास किया, तो उनको पुलिस कर्मियों ने चेतावनी देते हुए मंदिर से पाँच किलोमीटर दूर पंबा से ही वापस भेज दिया।
अब जब मामला फिर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच के पास पहुँच गया है, तब दिलचस्प हो गया कि क्या सबरीमाला मामले में भी अदालत अयोध्या की तरह असाधारण फैसला सुनाएगी या फिर आधुनिक विचार पर गौर किया जाएगा। फैसले में सदियों पुरानी परंपरा हावी होगी या फिर लोगों की भावनाओं की कद्र होगी? अब यह लाख टके का सवाल कायम है।
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को प्रवेश न देने को लैंगिक भेदभाव मानकर असंविधानिक करार दिया था साथ ही सभी महिला श्रद्धालुओं को प्रवेश की अनुमति देने का निर्देश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में ऐसी किसी पाबंदी को अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार और अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया था।
शीर्ष अदालत में दायर की गयी पुनर्विचार याचिकाओं पर प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पाँच जजों की पीठ ने 14 नवंबर को सुनाए अपने 3:2 के फैसले में मामले को बड़ी बेंच के पास भेजने का निर्णय लिया है। पीठ ने यह भी कहा कि मामले में 2018 में उठाये गये सबरीमाला मंदिर में रजस्वला महिलाओं के दर्शन को लेकर उठे सभी मुद्दों पर फिर से विचार करेगी।
वहीं दूसरी ओर, केरल की पिनराई विजयन के नेतृत्व वाली वाम सरकार को दुविध में डाल दिया है कि इस फैसले के बाद वह भक्तों की माँगों का समर्थन करे या पूर्व के फैसले का स मान करे। केरल के मंत्री कडकंपल्ली सुरेंद्रन के उस बयान ने सबको आश्यर्चचकित कर दिया कि एलडीएफ सरकार उन लोगों का समर्थन नहीं करेगी, जो प्रचार के लिए पहाड़ी से मंदिर में प्रवेश करने का एलान करते हैं।
सबरीमाला में पुरुष भक्त महिलाओं का प्रवेश क्यों नहीं चाहते?
तहलका ने भगवान अयप्पा के कई पुरुष भक्तों से जानना चाहा कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को किस आधार पर दर्शन करने को प्रवेश नहीं देना चाह रहे हैं। इस मामले में सभी भक्तों ने एकमत से खास उम्र की महिलाओं का मंदिर के अनुष्ठानों का बचाव किया। सभी भक्तों की राय यही लगी कि मामले को बेवजह तूल दिया जा रहा है। प्रवेश के मामले में महिलाओं को किसी तरह से कमतर दिखाने का कतई इरादा नहीं है। जब तहलका ने केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के पुरुष और महिला भक्तों से बात की तो उन्होंने बताया कि जो लोग दक्षिण भारत के नहीं हैं, वही मामले में विवाद पैदा कर हैं। वे दक्षिण या सबरीमाला के रीति रिवाजों और इतिहास के बारे में नहीं जानते हैं। उनका मानना है कि यहां की महिला श्रद्धालु भी नहीं चाहतीं कि सदियों पुरानी परंपरा को किसी भी कीमत पर खत्म हो जाए।
भगवान अयप्पा के भक्त और केरल के पूर्व आईजी केवी मधुसूदन बताते हैं कि यह ऐसा स्थान हैं, जहाँ पर महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि समाज की सभी महिलाएं दिल से परंपरा का समर्थन और अनुपालन कर रही हैं। मामले में ‘बाहरी’ लोग अनावश्यक विवाद पैदा कर रहे हैं। मैं विरोध करने वाले लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या मंदिर में महिलाओं को दर्शन करने की अनुमति देने से हमारे समाज में लैंगिक भेद खत्म हो जाएगा? यह स्थान अद्वितीय है और लाखों लोग यहां की खास परंपरा का पालन करने के लिए पहुंचते हैं। मधुसूदन कहते हैं कि अगर यहाँ की परंपराओं के साथ के साथ छेड़छाड़ की गयी तो भक्त हतोत्साहित व निराश हो जाएंगे क्योंकि वे यहां किसी खास वजह से ही यहां आते हैं। वे कहते हैं कि कुछ लोग विद्रोही के तौर पर मशहूर होना चाहते हैं और समाज की हर चीज पर सवाल उठाना चाहते हैं। तो क्या हमें यह सब करने देना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र हमें इसकी अनुमति देता है। देशभर में भगवान अयप्पा के अनगिनत मंदिर हैं, इसलिए केवल यहां पर विरोध करने का मकसद समझ से परे है।
केरल के ही भगवान अयप्पा के एक अन्य भक्त और फाइनेंशियल मैनेजर शिवशंकर सुप्रीम कोर्ट के सितंबर 2018 के फैसले का पुरज़ोर विरोध करते हुए कहते हैं कि यह निर्णय विशुद्ध रूप से लैंगिक समानता पर आधारित था, इसमें आस्था और धार्मिक विश्वास को बिल्कुल भी तवज्जो नहीं दी गई। सदियों पुरानी परंपरा का स मान किया जाना चाहिए था। ‘स्थिति तब ज्यादा खराब हो जाती है, जबकि कोई ऐसी महिला प्रवेश करनाचाहती है जो स्वयं भगवान अयप्पा की भक्त नहीं हैं और उसे वामपंथी सरकार सहयोग देती है। लेकिन यह आश्यर्च की बात नहीं है क्योंकि सरकार ने 2008 में जब जनहित याचिका दायर की थी तब हिंदुओं की आस्था को समझे बिना ही महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था। लेकिन अब भारी विरोध और लोगों की आस्था को देखते हुए उनको एहसास हो गया है। इसलिए अब उनके रुख में बदलाव देखा जा रहा है। लोकसभा के चुनाव में भी वामपंथियों की हार को इससे जोड़ा जा रहा है।’ शिवशंकर स्पष्ट करते हैं कि मौलिक अधिकारों, आस्था और राजनीति का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि हमारे विरोध की वजह ये है कि केरल की वो महिलाएँ जो भक्त नहीं हैं और मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश कर रही हैं।
उनका मानना है कि महिलाएँ भले ही मंडला-मकरविल्लकू पर्व के अनुष्ठानों में सशरीर मंदिर न जाती हों पर उनकी बड़ी भूमिका रहती है। जब किसी परिवार पुरुष भक्त सबरीमाला में वर्थम से गुजरता है तो महिलाओं का अपने घरों में पूजा करना भी एक परंपरा है। शिवशंकर ने कहा, बेवजह इसे लैंगिक असमानता का मुद्दा बना दिया गया, जो गलत है। इसके अलावा स्वामी अयप्पा एक नैशित्का ब्रह्मचारी हैं। लेकिन कुछ लोगों ने महिला भक्तों को दर्शन करने से रोकने के लिए इसे महिलाओं की अशुद्धता से जोड़ दिया जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई।
तहलका ने जब जानना चाहा कि अगर महिलाओं को दर्शन करने की अनुमति दे दी जाती है तब भी आप सबरीमाला के दर्शन करेंगे तो इस पर शिवशंकर ने कहा कि मैं स्वामी अयप्पा का बड़ा भक्त हूं और वर्षों से मंदिर जा रहा हूं। अगर कोई महिला जिसकी भगवान अयप्पा में आस्था नहीं है, तो वो मुझे या अन्य भक्तों को मंदिर में दर्शन करने से नहीं रोक सकेगी। ‘विशिष्टता हर मंदिर की आत्मा होती है। हर साल लाखों महिलाएं आती हैं। प्रकृति के नियमों के चलते खास उम्र की महिलाअेां को ही प्रवेश करने पर रोक है। इसलिए इसे असमानता नहीं कह सकते हैं।’
उत्तर केरल के एक अन्य भक्त और सॉ टवेयर कंपनी में सीईओ एवी अरुण ने तहलका को बंगलूरु में बताया कि मंदिर में कुछ पुरुषों के प्रवेश पर भी पाबंदी है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई पुरुष भक्त बताता है कि उसके बच्चे या किसी रिश्तेदार की मौत हो गयी तो वह सबरीमाला मंदिर में दर्शन नहीं कर सकता। हर देवता की अपनी प्रकृति होती है और उसी के अनुसार पाबंदिया लगायी जाती हैं। हर आस्था के पीछे एक संकल्प होता है। यही संकल्प ही पत्थर को देवता को बना देता है। यही हर मंदिर को जीवंत बना देता है। अरुण कहते हैं कि सबरीमाला के बारे में संकल्प यह है कि देवता एक नैश्तिक ब्रह्मचारी हैं। इसलिए हम उनके संकल्प का स मान करते हैं।
विरोध के बारे में अरुण की राय ये है कि ज्यादातर प्रदर्शनकारी बाहरी (दक्षिण भारत के नहीं) हैं, और उनका सबरीमाला मंदिर की परंपराओं और अनुष्ठानों की जानकारी नहीं है। इसको ऐसे समझ सकते हैं, मान लीजिए कि एक कॉर्पोरेट ने ताजमहल की प्रतिकृति बनाई तो क्या आप उसे देखने को इच्छुक होंगे? शायद नहीं, क्योंकि आपके दिमाग में ताजमहल सिर्फ एक भौतिक संरचना नहीं है, बल्कि इसके पीछे इतिहास, आस्था और अनुभव भी जुड़े हैं। इसी तरह अगर सबरीमाला का मूल (कोर) ही बदल दिया जाए यह एक मंदिर नहीं रह जाएगा। यह सच नहीं है कि सबरीमाला मंदिर के अंदर कभी किसी महिला ने कदम नहीं रखा है। 1991 में महेंद्रम नामक भक्त ने याचिका दायर की थी, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था। तब मंदिर प्रबंधन ने कुछ वीवीआईपी महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति दी, जिस पर पक्षपात करने का आरोप लगाकर विरोध जताया गया था। तब केरल उच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर मामले में 10-50 वर्ष की आयु की महिलाओं को प्रवेश करने पर रोक लगा दी थी।
अब सबकी नज़र सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की पपीठ पर रहेगी कि सबरीमाला मामले में अंतिम फैसला क्या सुनाया जाएगा। देखना होगा कि क्या शीर्ष अदालत अयोध्या मामले की तरह ही फैसला देगी या फिर 28 सितंबर 2018 इसी मामले में अपने फैसले को बरकरार रखेगा जिसमें सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति न देने को अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आज़ादी का उल्लंघन करार दिया था।
बनाने का निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को केरल सरकार को पेरियार टाइगर रिजर्व में स्थित सबरीमाला मंदिर के श्रद्धालुओं के प्रशासन और कल्याण के लिए नये कानून का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया। ड्राफ्ट तैयार करने के लिए राज्य सरकार को जनवरी, 2020 तक का समय दिया है।
सबरीमाला मामला अब तक
1991 : भक्त महेंद्रम की ओर दायर याचिका के बाद केरल हाई कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में मासिक धर्म की महिलाओं (10-50 की उम्र) के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। महेंद्रम ने याचिका में कहा था कि मंदिर प्रबंधन ने नियमों की अनदेखी कर वीवीआईपी महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति दी।
2006 : इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन ने केरल हाई कोर्ट के फैसले को संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार और अनुच्छेद 25 के धार्मिक आज़ादी के उल्लंघन की बात कहकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सर्वोच्च अदालत ने पार्टियों को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया।
2007 : केरल की वाम सरकार ने एफिडेविट देकर महिलाओं के प्रवेश की जनहित याचिका का समर्थन किया।
2008 : सुप्रीम कोर्ट में मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा।
2017 : 17 जुलाई को पांच जजों की संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की। 19 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा मंदिर के अंदर प्रवेश कर करना मौलिक अधिकार है और उम्र संबंधी पांबदी पर सवाल उठाए।
2018 : 28 सितंबर को 4:1 के फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी की सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न देना न सिर्फ लैंगिक भेदभाव है, बल्कि यह असंवैधानिक भी है।
अक्टूबर में नेशनल अयप्पा डिवोटीज़ (वीमेंस) एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दी। अन्य पार्टी नैयर सर्विस सोसायटी और ऑल केरल ब्राह्मिंस एसोसिएशन ने भी अलग से रिव्यू याचिका दायर की।
2019 : 14 नवंबर को चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्ष वाली पांच जजों की पीठ ने मामले को 3:2 से बड़ी बेंच को सौंपने का निर्णय दिया, जो धार्मिक मुद्दों की फिर से जांच करेगी।