कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है। पहले एक त्रासदी बनके और फिर एक स्वांग या तमाशा। जलियांवाला बाग शताब्दी समारोह भी कुछ ऐसा ही है। भारतीय मूल के सांसदों ने जब यह मुद्दा उठाया तो ब्रिटिश संसद में इस पर चर्चा हुई। प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे ने इस पर गहरा दुख व्यक्त किया पर माफी मांगने जैसी कोई बात नहीं हुई। हालांकि अंग्रेज़ी राज की यह एक ऐसी घटना है जो मानवता पर हुए किसी भी अत्याचार का पर्याय बन गई। इस प्रकार की किसी भी घटना के लिए आज उसे ‘एक और जलियांवाला बाग’ का नाम दे दिया जाता है। हालांकि इस कहावत से जलियांवाला कांड की त्रासदी थोड़ी कम नजऱ आती है।
जलियांवाला बाग घटना की पृष्ठभूमि 1918 से है। उस समय लार्ड चेम्सफोर्ड ने एक समिति का गठन किया था। इस समिति का काम देश, खासतौर से पंजाब और बंगाल में लगातार बढ़ रही क्रांतिकारियों की गतिविधियों पर नकेल कसना था। इस समिति के अध्यक्ष लार्ड सिडने रॉलेट थे। उन दिनों 1915 में बनी गदर पार्टी, काफी तेजी से बढ़ रही थी। अंग्रेज सरकार के लिए यह एक बड़ा खतरा था। इस समिति ने अपनी रपट अप्रैल 1918 को सरकार को सौंप दी। इस के आधार पर एक नया दमनकारी कानून रॉलेट एक्ट के रूप में सामने आया। यह कानून 10 मार्च 1919 को दिल्ली में पारित किया गया। भारतीय समाज ने इसका खुला विरोध किया। जगह-जगह प्रदर्शन और जनसभाएं होने लगी। तब महात्मा गांधी राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर रहे थे। उन्होंने 30 मार्च 1919 को देशव्यापी हड़ताल की घोषणा की। पर हड़ताल के इस नोटिस की अवधि कम थी। इस कारण हड़ताल के लिए छह अप्रैल 1919 का दिन तय किया गय। पर फिर भी दिल्ली समेत कई स्थानों पर 30 मार्च को हड़ताल रखी गई। हड़ताल के दौरान कई स्थानों पर हिंसा हुई और पुलिस ने भी काफी क्रूर रूख अपनाया।
उस समय कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन अमृतसर में करने की योजना बना रही थी। महात्मा गांधी उससे पहले कभी पंजाब नहीं आए थे। इस कारण उन्होंने छह अप्रैल से पहले अमृतसर पहुंचने की योजना बनाई। पर दिल्ली में प्रदर्शनकारियों ने उन्हें दिल्ली में घुसने भी नहीं दिया और वे वापिस जा कर पलवल में रुक गए।
अमृतसर और पंजाब में घटनाएं तेजी से घटने लगीं। नौ अप्रैल 1919 को रामनवमी थी। डाक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू का इस क्षेत्र में भारी असर था। इस कारण उस समय हिंदुओं और मुसलमानों ने मिल कर रामनवमी मनाई। इस एकता से अंग्रेज़ घबरा गए। हिंदू-मुस्लिम एकता का परिणाम वे 1857 और 1915 में गदर आंदोलन के दौरान देख चुके थें सरकार ने 10 अप्रैल को किचलू और डाक्टर सत्यपाल को उपायुक्त ने बातचीत के लिए बुलाया और गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें ऐसी जगह भेजा गया जिसका किसी को पता नहीं था। इससे लोगों में क्रोध भड़क गया। इसी वातावरण में 11 अप्रैल 1919 को कुछ लोगों ने एक अंग्रेज़ महिला शेरवुड और उसके पुरूष साथियों पर हमला कर दिया। शेरवुड को तो बचा लिया गया पर उसके कुछ पुरुष साथी मारे गए। इसके बाद एक बैठक हुई और विरोध करते हुए 25 लोग भादरी पुल पर अंग्रेज़ पुलिस के हाथों मारे गए। 13 अप्रैल 4.30 बजे नेताओं ने एक आम बैठक जलियांवाला बाग में बुलाई। इससे पहले भी जनसभाएं इसी स्थान पर होती थीं, इससे एक दिन पूर्व यानी 12 अप्रैल को जनरल डायर को जलंधर से अमृतसर भेजा गया ताकि वह पंजाब के उपराज्यपाल माइकल ओ डायर की सहायता कर सके। जनरल डायर अपनी पूरी फौज को जलियांवाला बाग ले गया और उसने निहत्थे लोगों पर गोलियों की बरसात कर दी। 10 मिनट में 1650 गोलियां चली और सैकड़ों लोग कुछ ही मिनटों में मारे गए। वहां घायलों के लिए चिकित्सा की भी कोई सुविधा नहीं थी। यदि डाक्टरी सेवा उपलब्ध होती तो कई जानें बचाई जा सकती थीं। पर पुलिस का आतंक इतना था कि 13 अप्रैल 1919 की पूरी रात लोग पानी और दवाइयों की कमी के कारण मरते रहे। केवल अगले ही दिन आम लोग बाग में पहुंच सके और घायलों की सहायता कर पाए। उसी समय मृतकों को भी निकाला गया। भगत सिंह भी 14 अप्रैल को वहां गए और खून से सनी मिट्टी का एक ‘जार’ भरकर ले गए। यह ‘जार’ आज भी उनके पुश्तैनी घर खड़करकलां के अजाबघर में रखा हुआ है। 15 अप्रैल 1919 को पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया गया। जनरल डायर ने लोगों को उस स्थान पर घुटनों के बल चलवाया जहां अंग्रेज़ महिला शेरवुड पर हमला हुआ था। इसके अलावा गुजरांवाला , लाहौर और दूसरे शहरों में भी लोगों पर भारी अत्याचार किए गए।
लेखकों और कवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा लोगों का गुस्सा उभारा। उनमें से कई रचनाओं और पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सुभद्रा कुमारी चौहान, नानक सिंह, फिरोज़दीन शराफ और कई और लेखकों ने भी अपना गुस्सा जाहिर किया। जब सैनिकों ने गोलियां बरसाई थी उस समय युवा नानक सिंह बाग में मौजूद थे । वे तो लाशों के ढेर के नीचे दब कर बच गए।
महात्मा गांधी ने 19 अप्रैल को अपना सत्यग्रह वापिस ले लिया। राविंद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेज़ी सरकार द्वारा दिया गया ‘नाइट हुड’ का खिताब लौटा दिया। लोग महीनों तक इस नरसंहार को भूल नहीं पाए।
आज जब इस घटना की शताब्दी मनाई जा रही है तो कई सवाल सामने आते हैं। इस तरह की घटनाएं उपनिवेशीय शासकों के दौर में कोई हैरान करने वाली बात नहीं है। इससे भी भयंकर हालात 1952 से 1959 के बीच केन्या में रहे। इस दौरान सरकारी आंकड़ों के अनुसार 11,000 लोग मारे गए जब अपुष्टि खबरों में यह आंकड़ा 30 लाख तक जाता है, पर लोग मानते है। कि 25,000 लोग मारे गए थे। जलियांवाला बाग में अधिकारिक आंकड़ा 370 का पर कांग्रेस की रिपोर्ट इसे लगभग 1000 बताती है। उधर राम सिंह मजीठिया की दो खंडों की पंजाबी में लिखी किताब जो 60 के दशक में छपी थी, मरने वालों की संख्या 460 बताती है। उन्होंने यह भी बताया कि मरने वालों में कितने सिख, हिंदू, मुस्लिम और ईसाई थे। बाद में अमृतसर प्रशासन ने 500 से ज़्यादा की गिनती बताई। अंग्रेज़ सरकार ने भी 50 रुपए से 100 रुपए तक की सहायता मृतकों को दी थी।
अब जब माफी की बात आई है तो अंग्रेज़ों को भय है कि उन्हें मुआवजे के रूप में भारी धन देना पड़ेगा। यह बात भी सही है कि मुआवजे की मांग क्यों नहीं की जानी चाहिए? कुछ साल पहले ब्रिटिश की एक अदालत ने सरकार को आदेश दिया था कि वह केन्या के ‘माऊ-माऊ’ आंदोलन में मारे गए लोगों के आश्रितों को लाखों पाउंड का मुआवजा दे। तब जलियांवाला बाग की घटना इससे अलग कैसे देखी जा सकती है। यह मुआवजा ब्रिटेन की सरकार ने अपनी जेब से नहीं देना है। यह तो वह पैसा है जो अंग्रेज़ों ने भारत और दूसरे देशों से अपनी सत्ता के दौरान लूटा था।
पर भारत की सरकार में इतना हौसला है कि वह अंग्रेज़ सरकार से मुआवज़ा मांग सके। भारत की सत्ताधारी पार्टी, जलियांवाला बाग नरसंहार को महत्व ही नहीं देती। नही ंतो यह कैसे हो सकता है कि 100 साला समारोह में देश का प्रमुख हिस्सा ही न ले। वहां देश के उपराष्ट्रपति को भेजा जा रहा है। इतना ही नहीं भारत की सत्ताधारी पार्टी भी अंग्रेज़ों की राह पर चल रही है। उसने अमृतसर और जलियांवाला बाग में पूरी रोक लगा रखी है ताकि श्रद्धांजलि देने वाले लोग खुले तौर पर न घूम सकें। बहुत से किसान, छात्र, मज़दूर और नौजवान जलियांवाला बाग तक मार्च करना चाहते हैं। पर उन पर कई रूकावटें लगा दी गई हैं।
आम लोगों की त्रासदी को महत्वपूर्ण लोगों के समारोह में बदल दिया गया है। इतना ही नहीं बल्कि सरकार ने रॉलेट एक्ट जैसे कई कानून बना दिए हैं। अंग्रेज़ों को तो तीन साल बाद 1922 में यह कानून वापिस लेना पड़ा था यहां डीआईआर, मीसा, यूएपीए और एएफपीएसए (अफसा) जैसे कानून दशकों से लागू हैं। इस लिहाज़ से क्या भगत सिंह सही नहीं थे, जब वे कहते थे कि क्या फर्क पड़ता है यदि पुरूषोत्तम दास थक्कर या सर तेजबहादुर सप्रू को लाई इरविन की जगह देश का वायसराय बना दिया जाए।
आज भी देश के हालात लगभग उसी तरह के बनते जा रहे हैं। देश को धर्म और संप्रदाय के नाम पर बांटा जा रहा है। देखने की बात यह है कि क्या हमने जलियांवाला बाग नरसंहार से कुछ सीख ली है?
(लेखक: जेएनयू के सेवानिवृत प्रोफेसर हैं।)