हिंदुस्तानी वह भी था जिसने आवाज़ उठाई

जब जलियांवाला बाग सामूहिक हत्याकांड हुआ था तो तब ब्रिटिश राज की वायसराय कौंसिल में केरल के चेत्तूर संकरन नैयर थे। उन्होंने हत्याओं की खबर सुनी और अपने पद से इस्तीफा देकर ब्रिटेन के इस नरसंहार के खिलाफ आवाज़ उठाई। गोविंद नैयर

ब्रिटिश सरकार ने भारत की आज़ादी के सिपाहियों या कहें तब के आंदोलनकारियों पर जो दमनकारी नीति अपनाई थी उसका सबूत 13 अप्रैल 1919 में जलियांवाला बाग में दिखा था जहां निहत्थे लोगों पर गोलियां चला कर हज़ार से ऊपर लोगों को मार दिया गया।

उस समय वायसराय एक्जक्यूटिव कौंसिल (इसकी महत्ता आज के केंद्रीय मंत्रिमंडल जितनी थी) में तब भारतीय प्रतिनिधि चेत्तूर संकरन नैयर (1857-1934) ने इस सामूहिक नरसंहार के खिलाफ अपना इस्तीफा दे दिया। उन्होंने आत्मकथा में लिखा है। ‘लगभग हर दिन मुझे शिकायतें मिलतीं, निजी और पत्रों से अमृतसर के जालियांवाला बाग में हुए नरसंहार और मार्शल ला प्रशासन की। उसी समय मैंने देखा कि लॉर्ड चेम्सफोर्ड (वायसरॉय) जो कुछ पंजाब में हो रहा था उसकी हिमायत में लगे थे। इससे मुझे धक्का लगा। मैंने इस्तीफा दे दिया।

इस इस्तीफे का तत्काल असर पड़ा। प्रेस पर लगी सेंसरशिप तुरंत हटा ली गई और पंजाब से मार्शल लॉ उठा लिया गया। राष्ट्रवादी सोच को बढ़ावा दिया गया। रॉयल कमीशन गठित किया गया। जिसकी अध्यक्षता लार्ड हंटर ने की। इस आयोग में भारतीय और अंग्रेज़ दोनों ने पंजाब में हुई उन घटनाओं की जांच पड़ताल शुरू की जो वहां हुई थीं।

संकरन नैयर के जीवनीकार केपीएस मेनन ने लिखा है, वह समय शायद संकरन नैयर का जि़ंदगी का सबसे शानदार ज्य़ादा और सुनहरा समय था। उनके सितारे चमक रहे थे। वे मद्रास से इस्तीफा देकर लौट रहे थे। हर कहीं भोज और मनोरंजन का माहौल था। जब भी ट्रेन रूकती तो रेल की पटरियों पर पटाखे बजाए जाते। यह जताने के लिए वह गोलीबारी कैसी रही होगी जो निहत्थे लोगों पर की गई।

उस ज़माने में वाइसराय एक्जक्यूटिव कौंसिल में संकरन नैयर का पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि थी। उन्होंने 1880 में वकालत शुरू की थी। वे मद्रास बार के एक योग्य सदस्य थे। उन्हें 1890 में मद्रास लेजिस्लेटिव कौंसिल में नियुक्त किया गया। उन्होंने 1896 में मलाबार मैरिज एक्ट पर अमल कराया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में भी भाग लिया। उन्होंने 1897 में भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के अमरावती सत्र में भाग लिया। वे पहले भारतीय थे जो 1907 में मद्रास सरकार के एडवोकेट जनरल नियुक्त हुए। उसी साल बाद में मद्रास हाईकोर्ट के जज भी बने।

संकरन नैयर के शब्दों में न्यायालय में उनकी छुट्टी एक तरह से नखालिस्तान सा ही था जब तक कि वे 1916 में वाइसराय की एक्टक्यूटिव कौंसिल में शिक्षा के कार्यालय  में नियुक्त नहीं हुए। यह पद भारत सरकार में तब काफी ऊंचा और सम्मानजनक थी। जिस पर पहुंचने की अभिलाषा तब की पीढ़ी के लोगों में खूब थी। संकरन के जिम्मे  30 से ज्य़ादा महकमे थे। जिनके बॉस अंग्रेज अफसर थे।

भारत राज्य के सचिव एडविन पांटेगू ने पहले सोचा कि संकरन नैयर थोड़े असहज से व्यक्ति हैं लेकिन बाद में वे उनकी सत्यनिष्ठा और मेधा से खासे प्रभावित हुए। उन्होंने माना कि उसका खासा प्रभाव है। पहले विश्वयुद्ध ब्रिटेन को सहयोग देने की बात को संकरन नैयर ने उचित मांग के रूप में माना और भारत से सहयोग की बात भी उचित मानी।

लेकिन संकरन नैयर ने मांटेगू-चेम्सफोर्ड की उस रपट पर अपनी नाराजगी जताई थी। उनका पत्र ब्रिटिश संसद में पढ़ा गया। उसे प्रभावशाली माना गया अैर 1919 में ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार के  1919 में कानून को अमल में लिया। इसके साथ ही देश में अपनी सरकार की बुनियाद पड़ी। भारत की आज़ादी के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण कदम था।

वाइसराय की एक्जक्यूटिव कौंसिल से अपना इस्तीफा देने के बाद संकरन नैयर लंदन चले गए वहां उन्होंने अंग्रेजी प्रशासन और जनता में उन अत्याचारों की कहानी बतानी शुरू की जो ब्रिटिश अधिकारी-कर्मचारी पंजाब में कर रहे थे।

मैंने तय कर लिया था कि मैं ऐसी व्यवस्था कर सकूं कि भारत में फिर जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार जैसी घटना फिर न हो। उनके प्रयासों के चलते नागरिक असंतोष को शांत करने की जबरन कार्रवाई को नरसंहार माना गया। हाउस ऑफ कामन्स में जब जलियांवाला बाग नरसंहार पर बहस हो रही थी तो चर्चिल ने उनके लिखे को पढ़ा भी।

साभार: द हिंदू