जब केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने 2009 में दोबारा राजकाज संभाला था तो कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इस सरकार की वापसी के लिए पिछले कार्यकाल के दौरान सरकार द्वारा किए गए कुछ अच्छे कार्यों को जिम्मेदार ठहराया था. कहा गया था कि संप्रग की पहली सरकार ने रोजगार गारंटी से लेकर सूचना का अधिकार तक कुछ ऐसे काम किए जिससे लोगों को काफी फायदा हुआ और इसका ईनाम जनता ने अपने वोटों के जरिए कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को दिया. संप्रग के पहले कार्यकाल में रेल मंत्री थे लालू प्रसाद यादव. 2004 में जब वे रेल मंत्री बने तो सालों से घाटे में चल रही भारतीय रेल के अचानक से फायदे में आने की खबरें सुनाई देने लगीं. अखबार और चैनल रेलवे के मुनाफे की खबरों से पट गए. संप्रग 2009 में दोबारा सत्ता में आया और बिहार में लालू की पार्टी बुरी तरह हारी. नतीजा यह हुआ कि रेल मंत्रालय लालू के हाथ से निकलकर संप्रग के नए सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख ममता बनर्जी के हाथों में चला गया.
संप्रग के दोबारा सत्ता में आने के कुछ ही महीने बाद मनमोहन सिंह सरकार को कई मोर्चों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जो लोग संप्रग की पहली सरकार की तारीफ करते हुए नहीं अघा रहे थे वे दूसरी सरकार के खिलाफ खुलकर बोलने लगे. सबसे पहले 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में धांधली सामने आई. इसके बाद राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में घोटाले की बात सामने आई. केजी बेसिन घोटाला उजागर हुआ. जिन मनमोहन सिंह की साख एक ईमानदार प्रधानमंत्री के तौर पर बनी थी, उन्हीं के राज में एक से बढ़कर एक घोटालों ने संप्रग की दूसरी सरकार को इस गठबंधन की पहली सरकार के बिल्कुल उलटा खड़ा कर दिया. कई विभागों में भयानक अराजकता दिखने लगी. रेलवे की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. पहले कार्यकाल में जहां रेलवे भारी मुनाफा कमाता हुआ दिख रहा था, वह अचानक से कर्ज के बोझ तले दबा दिखने लगा. संप्रग के दूसरे कार्यकाल में रेल मंत्रालय ममता बनर्जी के हाथ में पहुंचा तो उन्होंने श्वेत पत्र लाकर कहा कि लालू का मुनाफे का दावा खोखला था.
अभी रेलवे की हालत यह है कि जो घोषणाएं पहले से हुई हैं, उन्हें लागू करने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं. अपने बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए भी रेलवे के पास पैसे नहीं हैं और इस वजह से कई मुद्दों पर रेल मंत्रालय और योजना आयोग के बीच मतभेद की खबरें भी आती रहती हैं. कई जानकार तो इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल की नाकामी का सबसे बड़ा उदाहरण रेलवे बन गया है. बिहार के मुख्यमंत्री रहे और अभी रेलवे की स्थायी संसदीय समिति के सदस्य रामसुंदर दास कहते हैं, ‘संप्रग के दूसरे कार्यकाल में रेलवे बहुत बुरी हालत में है.’
रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष रहे आरएन मल्होत्रा कहते हैं, ‘हर रेल मंत्री पर रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप लगे हैं. रेलवे की खराब हालत के लिए इसका राजनीतिक इस्तेमाल काफी हद तक जिम्मेदार है.’ जब से ममता बनर्जी रेल मंत्री बनीं तब से उन पर यह आरोप लगते रहे कि वे रेलवे और खास तौर पर रेल बजट का इस्तेमाल पश्चिम बंगाल की सत्ता में आने के लिए कर रही हैं. वे 2009 में रेल मंत्रालय में आई थीं और उन्होंने जो तीन रेल बजट संसद में पेश किए उनमें से सभी में उन्होंने अपने गृह राज्य पश्चिम बंगाल पर खास मेहरबानी दिखाई. पिछले साल यानी वित्त वर्ष 2011-12 के लिए रेल बजट पेश करते समय भी ममता बनर्जी ने बंगाल के लिए कई घोषणाएं कीं. पश्चिम बंगाल के चुनावी माहौल को देखते हुए ममता बनर्जी ने इस राज्य को न सिर्फ नई रेलगाडि़यां दी थीं बल्कि यहां रेलवे की कई परियोजनाएं लगाने की भी घोषणा की थी. इसमें दार्जिलिंग में सॉफ्टवेयर एक्सिलेंस पार्क, नंदीग्राम में रेल इंडस्ट्रीयल पार्क और सिंगुर में मेट्रो रेल कोच कारखाना प्रमुख हैं.
पिछले साल ममता पर बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के सांसद भेदभाव का आरोप लगा रहे थे. दरअसल, रेल बजट में अपने राज्य को ज्यादा देने का चलन नया नहीं है. बिहार से रेल मंत्री बनने वाले नेताओं ने भी ऐसा किया है. अब इसे स्वाभाविक भी मान लिया गया है. रामविलास पासवान से लेकर लालू यादव तक बिहार से आने वाले सभी रेल मंत्रियों पर रेल बजट में गृह राज्य को तरजीह देने का आरोप लगा.
रेल मंत्रालय के राजनीतिक इस्तेमाल से जुड़ा एक आयाम यह भी है कि जब से देश में गठबंधन सरकारों का दौर आया है तब से प्रमुख सहयोगी दल को रेल मंत्रालय देने का चलन बन गया है. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय नीतीश कुमार को रेल मंत्री बनाया गया था जो एनडीए के प्रमुख सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के नेता हैं. इसके बाद जब कांग्रेस की अगुवाई में केंद्र में संप्रग सरकार आई तो पहले राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव तो बाद में तृणमूल की ममता बनर्जी के हाथ में रेल मंत्रालय आया.
अब सवाल यह उठता है कि आखिर रेल मंत्रालय से जुड़ी वे कौन-सी बातंे हैं जिनकी वजह से हर प्रमुख सहयोगी इस मंत्रालय को अपने हाथ में लेना चाहता हैं इस बारे में रेलवे की यात्री सेवा समिति के हाल तक सदस्य रहे रघुनाथ गुप्ता कहते हैं, ‘रेल सीधे तौर पर देश की एक बड़ी आबादी से जुड़ी हुई है. इसलिए रेल मंत्री के पास यह अवसर होता है कि वह अपने लोकलुभावन फैसलों के जरिए अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करे.’ ममता बनर्जी को इसका सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है. रेल मंत्रालय के एक अधिकारी बताते हैं, ‘ममता ने सिंगुर और नंदीग्राम के आंदोलन के जरिए पश्चिम बंगाल में अपनी खास पहचान बनाई. फिर रेलवे से संबंधित लोकलुभावन घोषणाएं करके उन्होंने बंगाल के लोगों में अपनी यह छवि बैठाई कि वे आम आदमी और गरीबों के साथ हैं, इसलिए वे रेल किराया नहीं बढ़ा रही हैं. ममता ने यह संकेत भी दिया कि जब रेल मंत्री रहकर वह अपने राज्य के लिए इतना कर सकती हैं तो फिर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद तो वे बहुत कुछ कर सकती हैं. वे अपने मकसद में कामयाब भी रहीं और पश्चिम बंगाल की जनता ने उन्हें प्रदेश की सत्ता थमा दी. मगर रेलवे की दशा जस की तस रही.’ खुद रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने दो फरवरी को पत्रकारों से बातचीत के दौरान स्वीकार किया कि रेलवे बीमार हालत में है. उनका कहना था, ‘अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो रेलवे का परिचालन और इसकी माली हालत दोनों की दशा काफी बिगड़ जाएगी.’
‘करीब 3,000 रेल पुलों की उम्र 100 साल से ज्यादा हो गई है. वैज्ञानिक ढंग से न तो इनकी मरम्मत की जा रही है और न ही इन पर निगाह रखी जा रही है’
इस बयान से साफ हो जाता है कि भारतीय परिवहन व्यवस्था की जीवन रेखा रेल संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में नाकामी का कितना बड़ा उदाहरण बन गई है. ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के महासचिव शिवगोपाल मिश्रा कहते हैं, ‘जब तक रेलवे का राजनीतिक इस्तेमाल बंद नहीं होगा तब तक भारतीय रेल का कायाकल्प नहीं हो सकता.’
अब संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल की सबसे बड़ी नाकामी रेलवे की समस्याएं एक-एक करके समझते हैं. कोई भी व्यवस्था तब ही सही ढंग से चल पाती है जब आमदनी और खर्च का एक सही संतुलन कायम रहे. भारतीय रेलवे से यह संतुलन गायब है. अभी भारतीय रेल का परिचालन औसत 95.7 फीसदी है. इसका मतलब यह हुआ कि अगर रेलवे को 100 रुपये की आमदनी हो रहे ंहैं तो इसमें 95.7 रुपये परिचालन पर खर्च हो रहे हैं. यानी रेलवे की विकास योजनाओं पर निवेश के लिए हर 100 रुपए में से बचे सिर्फ 4.3 रुपये. उल्लेखनीय है कि 2007-08 में परिचालन औसत 75.9 फीसदी था और हाल के सालों में इसमें हुई बढ़ोतरी को सीधे तौर पर रेल की राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. लेकिन अभी रेलवे को होने वाली कुल आमदनी का महज 4.3 फीसदी ही विकास योजनाओं पर निवेश के लिए बच रहा है.
हालांकि, रेलवे से जुड़े कई जानकार परिचालन औसत को बहुत ज्यादा महत्व नहीं देने की बात करते हैं. गुप्ता कहते हैं, ‘रेलवे का संचालन मुनाफा बनाने के मकसद से नहीं हो रहा. इसका मकसद जन कल्याण है.
रेलवे की खराब माली हालत का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि पिछले कुछ सालों में रेल दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ने के बावजूद रेलवे ने यात्री बीमा खरीदना बंद कर दिया है. 2009 से रेलवे ने अपनी ट्रेनों में सफर करने वाले लोगों का बीमा करवाना बंद कर दिया है क्योंकि इस पर रेलवे को हर साल औसतन 78 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे थे. इसका परिणाम यह हो रहा है कि रेल दुर्घटनाओं में जो लोग मारे जा रहे हैं या घायल हो रहे हैं उन्हें मुआवजे का भुगतान रेलवे को अपनी जेब से करना पड़ रहा है.
रेलवे में घोषणाओं का हश्र क्या होता है, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि 2011-12 का रेल बजट पेश करते हुए ममता बनर्जी ने घोषणा की थी कि 266 स्टेशनों का विकास आदर्श रेलवे स्टेशन के तौर पर किया जाएगा. लेकिन इनमें से सिर्फ नौ स्टेशनों पर ही अब तक यह काम पूरा हो पाया है. इस घोषणा के एक साल पहले यानी 2010-11 के रेल बजट में ममता ने घोषणा की थी कि 201 स्टेशनों को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाया जाएगा लेकिन दो साल गुजरने के बावजूद अब तक इनमें से सिर्फ 76 का काम ही पूरा हो पाया है. 2011-12 के रेल बजट में ममता ने 131 नई ट्रेनों की घोषणा की थी. रेल मंत्रालय की तरफ से मिली आधिकारिक सूचना के मुताबिक 31 जनवरी, 2012 तक इनमें से 70 नई ट्रेनें ही शुरू हो सकीं, जबकि 61 ट्रेनों के बारे में बताया गया कि चालू वित्त वर्ष में ही इन्हें शुरू करने की कोशिश हो रही है.
आज यह बात हर कोई स्वीकार कर रहा है कि रेलवे के बुनियादी ढांचे में जरूरी निवेश नहीं करना मौजूदा संप्रग सरकार की सबसे बड़ी गलती साबित हो रही है और इस वजह से पिछले दो साल में कई रेल दुर्घटनाएं हुई हैं. हर रोज दो करोड़ लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने वाली भारतीय रेल के लिए आज सुरक्षा सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है. कुछ महीने पहले रेल मंत्रालय ने देश के प्रख्यात परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी. इसका मकसद था रेलवे की सुरक्षा संबंधी समस्याओं काे अध्ययन और इनके समाधान की राह सुझाना. समिति की रिपोर्ट में यात्रियों को सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंचाने की रेलवे की क्षमता पर सवाल उठाया गया है. रेलवे ने प्रति व्यक्ति यात्री सुरक्षा पर महज 2.86 रुपये का निवेश किया है. यह बात भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट से सामने आई है. कैग की रिपोर्ट कहती है कि रेलवे ने सुरक्षा मद में आवंटित रकम को भी पूरी तरह से खर्च नहीं किया. यह इसलिए चिंताजनक है क्योंकि सुरक्षा खामियों की वजह से रेल दुर्घटनाएं लगातार होती रहीं.
रेल मंत्रालय के आंकड़े ही बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच कुल 2,431 रेल दुर्घटनाएं हुईं. इनमें 120 मामले टक्कर के हैं तो 1,410 पटरी से उतरने के. काकोदकर समिति की रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ 2007-08 से 2010-11 के बीच हुई रेल दुर्घटनाओं में 1,019 लोग काल के गाल में समा गए. हर साल कई लोगों की मौत ट्रेन से कटकर भी हो जाती है लेकिन रेलवे इसे अपने नेटवर्क में हुई मौतों में नहीं गिनता. काकोदकर समिति कहती है, ‘हर साल तकरीबन 15,000 लोगों की मौत ट्रेन से कटकर होती है. इसमें करीब 6,000 लोगों की जान तो सिर्फ मुंबई के लोकल नेटवर्क की वजह से जाती है. रेलवे भले ही इन मौतों को रेल दुर्घटना नहीं माने लेकिन कोई भी सभ्य समाज अपने रेल तंत्र द्वारा हो रही इतनी मौतों को स्वीकार नहीं कर सकता. ‘भारत में दुर्घटनाओं की वजह से होने वाली कुल मौतों में आठ फीसदी मौतें रेल दुर्घटनाओं की वजह से हो रही हैं. 2010 में पूरी दुनिया में हुई 50 बड़ी रेल दुर्घटनाओं में से 14 भारत में हुईं. रेल दुर्घटनाओं में सिर्फ यात्रियों की ही मौत नहीं हो रही बल्कि रेलकर्मी भी मारे जा रहे हैं. काकोदकर समिति बताती है कि 2007-08 से 2010-11 के बीच ड्यूटी के दौरान रेलवे के तकरीबन 1,600 कर्मचारी मारे गए और 8,700 कर्मचारी घायल हो गए. इनमें पटरी की मरम्मत करने से लेकर रेल कारखानों में काम करने वाले और यार्ड में काम करने वाले कर्मचारी शामिल हैं.
जब नीतीश कुमार रेल मंत्री थे तो उन्होंने 2003 में कॉरपोरेट सेफ्टी प्लान की शुरुआत की थी. इस योजना को दस साल और दो चरणों में पूरा किया जाना था. पहला चरण 2008 में पूरा होना था. कैग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 31,835 करोड़ रुपये के फंड के साथ 2003 में शुरू हुए कॉरपोरेट सेफ्टी प्लान का पहला चरण 2008 में नहीं पूरा किया जा सका. इसके तहत पुराने रेल इंजनों को बदला जाना था, पटरियों व पुलों की स्थिति सुधारी जानी थी. ऐसे में रेलवे को लेकर मौजूदा संप्रग सरकार के रवैये को देखते हुए अब इस प्लान के दूसरे चरण के 2013 तक पूरा होने की संभावना पर भी ग्रहण लग गया है. मल्होत्रा कहते हैं, ‘अगर रेलवे को यात्रियों का भरोसा वापस पाना है और अपनी ब्रांड वैल्यू बचाकर रखनी है तो सुरक्षा के मोर्चे पर सबसे अधिक तत्परता के साथ निवेश की जरूरत है. दुर्घटनाएं इस मोर्चे पर रेलवे की नाकामी बयां कर रही हैं.’
रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने भी कुछ दिन पहले कहा था, ‘सवारी और मालवाहक गाड़ियों की संख्या बढ़ने से रेलवे के बुनियादी ढांचे पर दबाव बढ़ गया है. पिछले एक दशक में इन गाड़ियों की संख्या में 30 फीसदी बढ़ोतरी हुई है.’ बुनियादी ढांचा दुरुस्त किए बगैर नई गाडि़यां चलाए जाने के रेल मंत्रालय के राजनीतिक कदम के खिलाफ दबी जुबान में विरोध जोनल रेलवे के अधिकारियों ने भी कुछ दिनों पहले किया था. इन अधिकारियों ने यह कहा था कि उनके जोन में मौजूदा क्षमता को देखते हुए और अधिक रेलगाडि़यों के परिचालन की क्षमता नहीं है. रेल मंत्रालय के ही एक अधिकारी कहते हैं, ‘कोई भी अधिकारी नई गाड़ी शुरू करने का खुलेआम विरोध इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि देश में रेल और राजनीति एक साथ चलती है. नई ट्रेनों की शुरुआत के कई फैसले राजनीतिक होते हैं.’
‘हर रेल मंत्री पर रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप लगे हैं. रेलवे की खराब हालत के लिए इसका राजनीतिक इस्तेमाल काफी हद तक जिम्मेदार है’
रेलवे कितना सुरक्षित है, इसकी पोल खोलते हुए काकोदकर समिति अपनी रिपोर्ट में कहती है, ‘देश में तकरीबन 3,000 ऐसे रेल पुल हैं जिनकी उम्र 100 साल से अधिक हो गई है. वैज्ञानिक ढंग से न तो इनकी मरम्मत की जा रही है और न ही इन पर निगाह रखी जा रही है. ऐसे में तब-तब सुरक्षा को लेकर खतरा बना रहता है जब-जब इन पुलों से होकर कोई रेलगाड़ी गुजरती है.’ रेल दुर्घटनाओं की वजह बताते हुए समिति कहती है, ‘कुल रेल दुर्घटनाओं में पटरी से उतरने की घटना की हिस्सेदारी 50 फीसदी है. पटरी से उतरने की तकरीबन 30 फीसदी घटनाएं रेल पटरियों की खराब हालत की वजह से हो रही हंै. इन पटरियों पर क्षमता से अधिक बोझ पड़ रहा है, इसलिए पटरियों में दरार आने की वजह से रेल दुर्घटना के मामले सामने आ रहे हैं.’
अहम सवाल यह है कि क्या काकोदकर समिति की सिफारिशों पर अमल किया जाएगा? जब इस समिति का गठन रेल मंत्रालय ने किया था तो रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने कहा था कि रेलवे की माली हालत खराब होने के बावजूद काकोदकर समिति की सिफारिशों को लागू करने की कोशिश की जाएगी. रेल मंत्रालय के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए इसकी संभावना कम ही लगती है. रेलवे ने पहले भी कई समितियों का गठन बड़े उत्साह के साथ किया लेकिन जब सिफारिशों को लागू करने की बात आई तो उसे कदम खींचने पड़े. उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एचआर खन्ना की अध्यक्षता वाली समिति ने रेल सुरक्षा पर 1998 में रिपोर्ट दी थी, लेकिन उस समिति की सिफारिशों पर अब तक अमल नहीं हो पाया है. दास कहते हैं, ‘जब तक इन समितियों की सिफारिशें धूल फांकती रहेंगी तब तक रेलवे की समस्याओं का समाधान संभव नहीं लगता.’
रेल हादसों की एक बड़ी वजह के तौर पर जानकार मानवरहित रेलवे क्रॉसिंगों को भी जिम्मेदार मानते हैं. ऐसी क्रॉसिंगों की संख्या अभी तकरीबन 14,896 है जो कुल रेलवे क्रॉसिंगों का 36 फीसदी है. 2004 से लेकर अब तक हुई रेल दुर्घटनाओं में से एक तिहाई के लिए यही जिम्मेदार हैं. कुल रेल दुर्घटनाओं में से 59 फीसदी मौतें मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर हुई दुर्घटनाओं में ही हुई हंै. मिश्रा कहते हैं, ‘मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर तैनाती की बात हर बार चलती है, लेकिन संसाधनों की कमी की वजह से यह योजना उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ रही जितनी तेजी से बढ़नी चाहिए थी.’
जानकार बताते हैं कि रेलवे की सुरक्षा से संबंधित कार्यों को पूरा करने के लिए कम से कम 70,000 करोड़ रुपये की जरूरत है. पैसे के अभाव में रेलवे सुरक्षा संबंधी बंदोबस्त नहीं कर पा रहा है. रेल दुर्घटनाओं को रोकने के मकसद से कोंकण रेलवे ने 1999 में ही टक्कर रोकने वाला उपकरण विकसित किया था, लेकिन धन नहीं होने की वजह से इन उपकरणों को ट्रेनों में नहीं लगाया जा सका है. दुनिया के कई प्रमुख देशों में रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए जीएसएमआर नाम की तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके जरिए रेल पटरी पर ट्रेन की रफ्तार खुद-ब-खुद निर्धारित होती है और रेड सिग्नल पार करने व एक ही पटरी पर दो ट्रेनों की आने की हालत में ट्रेन खुद-ब-खुद रूक जाती है. लेकिन इस तकनीक को भी पैसे की कमी का रोना रोकर इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है.
पिछले दो साल में रेल दुर्घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी के लिए रेलवे में खाली पदों को भी एक वजह बताया जा रहा है. जानकार बताते हैं कि रेलवे के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह इन खाली पदों को भर पाए. भारतीय रेलवे में 13,102 ड्राइवरों का पद खाली है. कुछ दिनों पहले खुद रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने कहा था कि रेलवे की सुरक्षा से संबंधित तकरीबन 1.26 लाख पद खाली पड़े हैं. रेलवे स्टेशनों पर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार जीआरपी में खाली पदों की संख्या 2005-06 की सात फीसदी की तुलना में बढ़कर 16 फीसदी पर पहुंच गई. रेलवे सुरक्षा बल आरपीएफ का भी यही हाल है. आरपीएफ में भी बड़ी संख्या खाली पदों की है. कुल मिलाकर देखा जाए तो रेलवे में तकरीबन 2.54 लाख पद खाली हैं. भारतीय रेल से संबंधित एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि पिछले 20 साल में सवारी और मालवाहक गाड़ियों की संख्या बढ़ने के बावजूद रेलवे कर्मचारियों की संख्या घटी है. 1990 में कर्मचारियों की कुल संख्या 16 लाख थी जो अब घटकर 12.34 लाख पर पहुंच गई है. रेलवे में खाली पदों की कहानी यह है कि सुरक्षा के लिहाज से भारतीय रेल के लिए डाॅग स्क्वाॅयड में 405 कुत्तों की जरूरत बताई गई है, लेकिन अभी रेलवे के पास सिर्फ 292 कुत्ते ही हैं. यानी डॉग स्क्वॉयड में भी जरूरत से 28 फीसदी यानी 113 कुत्ते कम हैं.
बढ़ती रेल दुर्घटनाओं के लिए रेलवे के खाली पदों को भी वजह बताया जा रहा है. लेकिन रेलवे के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह इन खाली पदों को भर सके
जानकारों का मानना है कि रेलवे में भी तेजी से तकनीकी बदलाव हो रहा है लेकिन इसके सही संचालन के लिए रेल कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिल पा रहा है. संप्रग के दूसरे कार्यकाल में भी रेलकर्मियों के प्रशिक्षण का स्तर सुधारने के लिए भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. मल्होत्रा कहते हैं, ‘बगैर सही प्रशिक्षण के आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि सही ढंग से भारतीय रेल जैसे विशाल तंत्र का संचालन हो पाएगा. रेलवे को अपने कर्मचारियों के प्रशिक्षण पर भी अच्छा-खासा निवेश करना चाहिए.’
बड़ी घोषणाओं के इतर भी अगर देखा जाए तो आज रेलवे कई मामूली लेकिन अहम मोर्चों पर भी फिसड्डी साबित हो रहा है. आम यात्री को रेलवे स्टेशन पर न तो पीने लायक पानी मिलता है और न ही उसे साफ-सुथरे शौचालय मिलते हैं. ममता बनर्जी रेलवे पर जो श्वेत पत्र लाई थीं उसमें भी इस समस्या को रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि गंदगी दूर करने के लिए जितना काम होना चाहिए था उतना नहीं हुआ. काकोदकर समिति ने स्पष्ट किया है कि रेलवे की गंदगी की समस्या किस तरह से यात्रियों की सुरक्षा के लिए खतरा बनती जा रही है, ‘ट्रेनों के शौचालयों से मल-मूत्र पटरियों पर गिरता है. इससे गंदगी तो बढ़ती है साथ में सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा होता है. क्योंकि इस गंदगी की वजह से पटरियों की देखरेख और मरम्मत का काम मुश्किल हो जाता है. अगर इस समस्या का समाधान नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में रेल पटरियों के और खराब होने और इनकी मरम्मत और देखरेख से रेलकर्मियों के इनकार जैसी मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है.’
रेलवे की सभी समस्याओं के जड़ में पैसे की कमी को मुख्य वजह बताया जाता है. काकोदकर समिति ने भी भारतीय रेल की मौजूदा माली हालत पर चिंता जताई और कहा कि इसे सुधारने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है. अब सवाल यह है कि आखिर रेलवे की माली हालत कैसे सुधरे. कई लोग यह मानते हैं कि इसका एकमात्र रास्ता यात्रा किराये में बढ़ोतरी करना है. लेकिन ऐसे लोगों के इस तर्क को खुद रेलवे की आमदनी के आंकड़े काटते हैं. 1 अप्रैल, 2011 से 31 मार्च, 2012 के बीच रेलवे की कुल आमदनी पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 10.4 फीसदी बढ़कर 84,155.4 करोड़ रुपये हो गई. इस अवधि में यात्री सेवाओं से होने वाली आमदनी भी 9.41 फीसदी बढ़कर 23,345.48 करोड़ रुपये पर पहुंच गई. इसका मतलब यह हुआ कि यात्री किराये में बढ़ोतरी के बगैर भी इस क्षेत्र में रेलवे की आमदनी बढ़ रही है लेकिन फिर भी रेलवे की जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं. संकेत साफ है कि आमदनी के वैकल्पिक रास्ते तलाशने होंगे या फिर जन कल्याणकारी सेवा की अपनी साख बचाने के लिए सरकार से भारी सब्सिडी मांगनी होगी.
आमदनी के वैकल्पिक रास्तों के तौर पर कुछ जानकार रेलवे की खाली पड़ी जमीन के व्यावसायिक इस्तेमाल की वकालत करते हैं. गुप्ता कहते हैं, ‘रेलवे की काफी जमीन देश के प्रमुख व्यावसायिक केंद्रों पर खाली पड़ी है. अगर इसका ठीक से व्यावसायिक इस्तेमाल हो तो इसकी माली हालत सुधारने में काफी मदद मिलेगी.’ हाल ही में इस दिशा में संभावनाओं को तलाशने के मकसद से एक अलग कंपनी रेलवे स्टेशन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड की स्थापना हुई है. रेलवे ने 2000 में रेलटेल नाम से एक कंपनी का गठन किया था. इसके तहत दूरसंचार सेवाएं मुहैया कराके पैसा कमाने की योजना बनाई गई थी. तब कई जानकारों ने इसे रेलवे की माली हालत सुधारने की दिशा में अहम कदम माना था. क्योंकि भारत में दूरसंचार क्षेत्र का कारोबार तेजी से बढ़ रहा था. लेकिन12 साल बाद भी इस मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई है.
रेलवे की माली हालत सुधारने के उपाय बताते हुए दास, मिश्रा और गुप्ता, तीनों यह कहते हैं कि सरकार को यह मानसिकता बदलनी चाहिए कि रेलवे का संचालन एक मुनाफा कमाने वाली कंपनी की तरह किया जा सकता है. दास कहते हैं कि रेलवे से करोड़ों लोगों का कल्याण सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है इसलिए इसमें जन कल्याण की बात सबसे पहले होनी चाहिए. वहीं मिश्रा निजी कंपनियों की तर्ज पर रेलवे को बेलआउट पैकेज देने की बात करते हैं. मिश्रा कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि अगले पांच साल में रेलवे में 2.5 लाख करोड़ रुपये निवेश की जरूरत है. अगर हर साल भारत सरकार रेलवे में 50,000 करोड़ रुपये निवेश करे तो देश की परिवहन व्यवस्था की इस जीवनरेखा की सेहत सुधर जाएगी. वर्ना खतरा इस बात का है कि कहीं भारतीय रेल भी एयर इंडिया की राह न चल पड़े और कर्मचारियों का वेतन समय पर मिलना बंद हो जाए.’ गुप्ता के मुताबिक कर राहत से लेकर कई तरह की छूट जब निजी कंपनियों को मिल सकती है तो फिर देश के आम लोगों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़े रेलवे के लिए भी सरकार को सब्सिडी का रास्ता अपनाना चाहिए.
काफी कोशिशों के बावजूद रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी हमसे बात करने के लिए तैयार नहीं हुए. आम लोगों से सीधे जुड़े रेलवे के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति का जवाब देने से कतराना कई सवाल खड़े करता है. मंत्रालय के अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि भले ही रेल मंत्री त्रिवेदी हैं लेकिन बड़े फैसले कोलकाता से हो रहे हैं और त्रिवेदी ‘दस्तखत मंत्री’ बनकर रह गए हैं. बताते हैं कि राहुल गांधी से उनके घर जाकर मिलने पर ममता बनर्जी त्रिवेदी से नाराज हुई थीं और उन्हें आगे ऐसा न करने की हिदायत दी थी.
जब हालात ऐसे हों तो फिर स्वाभाविक तौर पर उम्मीदें कम और आशंकाएं ज्यादा दिखती हैं.