हाल ही में लीक हुई कैग की रिपोर्ट से पता चला कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) ने केजी (कृष्णा-गोदावरी) बेसिन परियोजना में गैस निकालने की लागत को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और जमकर मुनाफा कमाने का रास्ता साफ किया. इससे सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ. लाखों करोड़ रुपयों के घोटाले के जमाने में एक और बड़े घोटाले का उजागर होना उतना आश्चर्यजनक नहीं है जितना इस बात की जानकारी होते हुए भी ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री का चुप रह जाना है. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि सीएजी की रिपोर्ट में सरकार और जनता को होने वाले नुकसान की जो बात अब सामने आ रही है इसकी जानकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब भी थी जब इस नुकसान की नींव रखी जा रही थी.
सवाल यह उठता है कि क्या भ्रष्टाचार को संरक्षण देने और सब कुछ जानते हुए भी उसे रोकने के लिए कदम न उठाना ही वह ईमानदारी है जिसका प्रधानमंत्री की पार्टी और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी रात-दिन गुणगान करते रहते हैं. आपका जवाब चाहे जो हो लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ईमानदारी की नयी परिभाषा गढ़ी है. राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले से लेकर स्पेक्ट्रम घोटालों तक हर बार संकेत मिले कि प्रधानमंत्री को अनियमितता और उससे सरकारी खजाने को होने वाले नुकसान के बारे में अंदेशा था. लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी कार्यशैली की पहचान बन चुकी ‘चुप्पी’ को सबसे कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और चारों ओर से जमकर लूटे जा रहे खजाने को लुटने दिया. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री या तो आर्थिक नुकसानों को समझ नहीं सके या फिर उन्होंने इस ओर ध्यान देना ही उचित नहीं समझा.
गैस की आड़ में सरकारी खजाने को लूटने का यह खेल तब शुरू हुआ जब कुछ साल पहले देश में तेल और गैस की खोज के लिए केंद्र सरकार ने देश-विदेश की कंपनियों से आवेदन आमंत्रित किए. इसके बाद कुल 162 ब्लॉकों में तेल और गैस खोजने का ठेका कंपनियों को दिया गया जिनमें आरआईएल भी शामिल थी. आरआईएल ने कनाडा की कंपनी निको रिसोर्सेज लिमिटेड के साथ मिलकर केजी बेसिन के डी-6 ब्लॉक में गैस की खोज करके उत्पादन शुरू कर दिया.
गैस उत्पादन और इसे बेचने की शर्तों को तय करने के लिए आरआईएल और केंद्र सरकार के बीच एक समझौता भी हुआ. इस समझौते के मुताबिक कंपनी को 2.47 अरब डॉलर की लागत लगाकर डी-6 से 40 एमएमएससीएमडी गैस का उत्पादन करना था. इसी समझौते में एक प्रावधान यह भी था कि गैस बेचने से होने वाली आमदनी में सरकार को तब तक हिस्सा नहीं मिलेगा जब तक आरआईएल इस पर होने वाले खर्च को पूरी तरह वसूल नहीं कर लेगी. इससे एक बात स्पष्ट थी कि आरआईएल की लागत जितनी ज्यादा होगी सरकार की आमदनी उतनी ही कम हो जाएगी. अगर कंपनी अपने खर्चे को कृत्रिम रूप से बढ़ा सकती हो तो सरकार का नुकसान उसका फायदा बन जाएगा. इसके बाद गैस के अकूत भंडार को देखते हुए कंपनी ने साल 2006 में सरकार के पास एक संशोधित प्रस्ताव भेजा. इस प्रस्ताव में उत्पादन को तो सिर्फ दोगुना (80 एमएमएससीएमडी) करने की बात थी लेकिन लागत को बढ़ा कर तकरीबन साढ़े तीन गुना यानी 8.84 अरब डॉलर कर दिया गया था. खर्चे साढ़े तीन गुना बढ़ाने के इस प्रस्ताव पर कोई भी सवाल उठाए बिना सरकार ने इसे दो महीने से भी कम समय में 12 दिसंबर, 2006 को मंजूरी दे दी.
संशोधित प्रस्ताव में लागत बढ़ाकर 8.84 अरब डॉलर करने का मतलब यह हुआ कि आरआईएल-निको पहले डी-6 से इतना रकम कमाएगी और उसके बाद होने वाले मुनाफे में से सरकार को हिस्सेदारी देगी. यदि उत्पादन क्षमता बढ़ने के अनुपात में ही खर्च में भी सिर्फ दोगुने की बढ़ोतरी होती तो आरआईएल को 4.94 अरब डॉलर की कमाई के बाद से ही रॉयल्टी देनी पड़ती. बनावटी तौर पर लागत बढ़ाने से सरकार को हुए आर्थिक नुकसान के बारे में कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘संशोधित प्रस्ताव के जरिए लागत में की गई बढ़ोतरी से भारत सरकार को आर्थिक नुकसान हुआ है. हालांकि, अब तक उपलब्ध जानकारियों के आधार पर हम नुकसान का आकलन नहीं कर पा रहे हैं. कंपनियों के 2008-09 के आंकड़ों के आधार पर आगे जो ऑडिट होगी उससे नुकसान का अंदाजा लग पाएगा.’ यानी कैग का इशारा स्पष्ट है कि घोटाला बड़ा है.
आरआईएल-निको द्वारा बनावटी तौर पर लागत में की गई बढ़ोतरी से और भी कई नुकसान हुए. आरआईएल और सरकारी कंपनी एनटीपीसी के बीच 2.34 डॉलर प्रति यूनिट की दर से गैस आपूर्ति का समझौता हुआ था. मगर वैश्विक बाजार में बढ़ी कीमतों और बढ़ी लागत का वास्ता देकर आरआईएल ने ऐसा करने से मना कर दिया. बाद में यह मामला अदालत और अधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह तक पहुंचा. आरआईएल की अर्जी पर सुनवाई करते हुए इस समूह ने यह व्यवस्था दी कि कंपनी 4.2 डॉलर प्रति यूनिट की दर पर एनटीपीसी को गैस बेचेगी. इससे एनटीपीसी को बिजली उत्पादन के लिए जरूरी गैस की करीब दोगुनी रकम चुकानी पड़ेगी. इसका नुकसान देश के आम लोगों को भी उठाना पड़ेगा
क्योंकि यदि एनटीपीसी के बिजली उत्पादन की लागत बढ़ेगी तो वह उसकी कीमतें भी बढ़ाएगी.
लागत में कृत्रिम बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप गैस की कीमतें बढ़ने के कई दूरगामी परिणाम भी हैं. इसका खामियाजा आम बिजली उपभोक्ताओं के साथ-साथ औद्योगिक कंपनियों को भी भुगतना पड़ेगा. ऐसे में बिजली के इस्तेमाल से चलने वाली औद्योगिक गतिविधियों की लागत बढ़ेगी और यहां बनने वाले उत्पाद महंगे होंगे जिसका सीधा असर महंगाई दर पर दिखेगा जिसे नियंत्रण में करने के लिए हमारे देश के प्रधानमंत्री पिछले कई महीनों से दिन-रात एक
किए हुए हैं.
डी-6 परियोजना में लागत बढ़ाने और इस वजह से गैस कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोतरी भी तय है. कैबिनेट सचिव रहे केएम चंद्रशेखर ने गैस की कीमत तय करने के लिए बनी मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति (जीओएम) को 31 पन्ने की एक रिपोर्ट भेजी थी. यह रिपोर्ट जुलाई, 2007 में सचिवों की समिति से चर्चा के बाद तैयार की गई थी. इसमें कहा गया था कि गैस की कीमतों में प्रति यूनिट एक डॉलर की बढ़ोतरी से सरकार को सब्सिडी के मद में 2,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़ते हैं. इसके बावजूद सरकार ने लागत में बनावटी बढ़ोतरी के आरआईएल-निको के खेल को नहीं रोका.
कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट तो जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है अभी हाल ही में लीक हुई है. मगर इस मामले की पड़ताल के दौरान ‘तहलका’ को जो दस्तावेज मिले हैं वे यह साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आरआईएल द्वारा सरकारी खजाने को चूना लगाने की तैयारी की जानकारी साल 2007 के मध्य में ही दे दी गई थी. लेकिन उन्होंने इस मामले में कुछ नहीं किया. तेल और प्राकृतिक गैस पर स्थायी संसदीय समिति के सदस्य और माकपा के राज्यसभा सांसद तपन सेन ने 4 जुलाई, 2007 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह बताया था कि आरआईएल केजी बेसिन से गैस निकालने की लागत कृत्रिम तौर पर बढ़ा रही है. उन्होंने अपने पत्र में लिखा, ‘आरआईएल-निको ने संशोधित प्रस्ताव में कृत्रिम तौर पर लागत बढ़ाई है. गैस की कीमतों में हो रहे उतार-चढ़ाव के मूल में यही है. इसकी जांच होनी चाहिए.’ इसी पत्र में आगे लिखा गया है, ‘आरआईएल-निको द्वारा कृत्रिम तौर पर डी-6 परियोजना की लागत बढ़ाने का सीधा असर गैस की कीमतों पर पड़ेगा. आप इस बात से सहमत होंगे कि ऐसा होने से ऊर्जा और उर्वरक क्षेत्र के लिए गैस का इस्तेमाल करना आसान नहीं रहेगा.’ सेन ने लिखा, ‘मूल प्रस्ताव को 163 दिन में डीजीएच ने मंजूरी दी, जबकि बढ़ी लागत वाले संशोधित प्रस्ताव को डीजीएच ने 53 दिन में ही मंजूरी दे दी. इससे लगता है कि मंजूरी देने में काफी जल्दबाजी की गई.’
यह महत्वपूर्ण है कि सेन महज राज्य सभा सांसद ही नहीं, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य भी हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है कि वे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के मामलों में विशेषज्ञता रखते हैं.
13 जुलाई, 2007 को सेन ने प्रधानमंत्री को भेजे एक और पत्र में लिखा, ‘मेरी पिछली चिट्ठी के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव ने मुझे बताया कि मेरे द्वारा उठाए गए मामलों को पेट्रोलियम मंत्रालय के पास भेज दिया गया है. आपको मालूम हो कि 2006 के दिसंबर से ही मैं मंत्रालय के सामने आरआईएल द्वारा लागत में बनावटी बढ़ोतरी का मामला उठाता रहा हूं लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसलिए मैंने आपसे तत्काल हस्तक्षेप का अनुरोध किया था. मेरी मांग है कि इस मामले की स्वतंत्र जांच कराई जाए.’ मगर प्रधानमंत्री कार्यालय ने सेन के पत्र को एक बार फिर पेट्रोलियम मंत्रालय के पास भेज दिया.
कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में पूरी गड़बड़ी के लिए पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय को दोषी ठहराया गया है. प्रधानमंत्री को पत्र लिखने से पहले सेन ने पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री मुरली देवरा को पांच पत्र लिखे थे. देवरा ने सेन को दो जवाबी पत्र भी लिखे. इसके बाद सेन के पास हाइड्रोकार्बन महानिदेशक (डीजीएच) को भेजा गया. सेन बताते हैं, ‘डीजीएच की तरफ से परियोजना लागत में बढ़ोतरी को सही ठहराने की भरसक कोशिश की गई. उन्होंने कहा कि डीजल आदि की कीमतों में काफी बढ़ोतरी हो गई है, इसलिए परियोजना की लागत काफी बढ़ गई है.’ सेन और डीजीएच की मुलाकात के बाद देवरा ने एक और पत्र लिखकर सेन को बताया कि डी-6 परियोजना की जांच का काम सक्षम एजेंसी को सौंप दिया गया है. डीजीएच की तरफ से जांच का काम पेट्रोलियम और गैस मामलों के जानकार पी. गोपालकृष्णन और इंजीनियरिंग कंसल्टेंट मुस्तांग इंटरनेशनल का सौंपा गया. इन्होंने भी सरकार की हां में हां मिलाते हुए कहा कि डी-6 परियोजना पर होने वाला खर्च वाजिब है.
12 दिसंबर, 2006 को राज्य सभा में आरआईएल द्वारा खर्च बढ़ाए जाने के मामले को सेन ने सबसे पहले उठाया था. इसके जवाब में केंद्रीय पेट्रोलियम राज्य मंत्री दिनशा पटेल का कहना था, ‘डी-6 से गैस निकालने वाली कंपनियों के समूह यानी आरआईएल और निको ने सरकार को संशोधित योजना का प्रारूप सौंपा है. इसके मुताबिक उत्पादन क्षमता को दोगुना किया जाना है और लागत 2.47 अरब डॉलर से बढ़कर 8.84 अरब डॉलर होने की बात कही गई है.’ 21 दिसंबर, 2006 को मुरली देवरा को लिखे पत्र में सेन ने कहा, ‘राज्य सभा में मेरे सवाल के जवाब में जो जानकारी दी गई उससे ऐसा लग रहा है कि परियोजना लागत को कृत्रिम रूप से बढ़ाने (गोल्ड प्लेटिंग) का काम चल रहा है. समझौते के मुताबिक कंपनी मुनाफा सरकार के साथ साझा करने से पहले अपनी लागत वसूलेगी.’ उन्होंने इसी पत्र में आगे लिखा, ‘अगर लागत को कृत्रिम रूप से बढ़ाने की बात सही निकलती है तो इससे सरकार को काफी घाटा होगा. इसलिए इस मामले की जांच करवाई जाए.’ मगर इसी दौरान
डीजीएच ने आरआईएल-निको की परियोजना की लागत बढ़ाने वाले प्रस्ताव को मंजूरी दे दी.
25 जनवरी, 2007 को सेन ने देवरा को फिर से एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पूछा, ‘आखिर बगैर जांच कराए आरआईएल-निको के प्रस्ताव को कैसे मंजूरी मिल गई? मैंने अपने पिछले पत्र में ही संशोधित प्रस्ताव की खामियों की बात उठाई थी. मेरी मांग है कि इस मामले में कोई और फैसला लेने से पहले सरकार मामले की जांच करे और डीजीएच के फैसले पर पुनर्विचार करे.’
इसके बाद सेन ने एक के बाद एक तीन पत्र प्रधानमंत्री को लिखे जिनका क्या हश्र हुआ, हम पहले ही जान चुके हैं. ये पत्र उन्हीं मुरली देवरा के पास भेज दिए गए जिनके मंत्रालय के बारे में कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय और डीजीएच ने निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाया.
हाल ही में अखबारों के संपादकों के साथ बातचीत में प्रणब मुखर्जी के दफ्तर की जासूसी कराए जाने के बारे में प्रधानमंत्री का कहना था, ‘मुखर्जी की तरफ से मुझे शिकायत मिली थी. इसके बाद मैंने इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) को जांच के लिए कहा था. जांच के बाद आईबी ने बताया कि जासूसी का कोई प्रमाण नहीं है. जांच के आदेश की जानकारी गृहमंत्री को नहीं थी.’ अजब बात है. एक तरफ तो वित्त मंत्रालय में जासूसी से जुड़े मामले की जानकारी प्रधानमंत्री जांच करने वाले विभाग के मुखिया यानी गृहमंत्री चिदंबरम तक को नहीं देते हैं. वहीं दूसरी तरफ पेट्रोलियम मंत्रालय की मिलीभगत से लूटे जा रहे खजाने की
लगातार खबर देने वाली चिट्ठियों को वे उचित कार्रवाई के लिए उसी मंत्रालय को भेज देते हैं.
जाहिर है, प्रधानमंत्री जी इतने मासूम नहीं हैं. अपनी तमाम शिकायतों का हश्र सेन ‘तहलका’ को कुछ इस तरह बताते हैं, ‘प्रधानमंत्री को मैंने तीन चिट्ठी लिखी. उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया. पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे.’ इससे लगता है कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को आरआईएल द्वारा देश को पहुंचाए जाने वाला आर्थिक नुकसान या तो दिखा नहीं या फिर उन्होंने आंखें मूंद लीं. इसका नतीजा यह हुआ कि लूट जारी रही और शायद आगे भी जारी रहने वाली है.
मुरली देवरा को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग के संदर्भ में सेन कहते हैं, ‘सिर्फ देवरा क्यों? मैंने प्रधानमंत्री को तीन पत्र लिखे. उन्होंने भी कुछ नहीं किया. इसलिए गड़बड़ी की जिम्मेदारी तो प्रधानमंत्री को भी लेनी पड़ेगी.’ सेन के वक्तव्य के आधार पर एक वाजिब सवाल यह उठता है कि भारतीय कानून के तहत अपराधियों को संरक्षण देने वाले को भी अपराध का दोषी माना जाता है. ऐसे में आरआईएल को भ्रष्टाचार करने देने के लिए मुरली देवरा समेत प्रधानमंत्री को भी क्यों नहीं दोषी माना जाना चाहिए?
अब अगर इससे थोड़ा पहले जाएं तो जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ था तब भी पहले तो सरकार ने इसे घोटाला ही मानने से इनकार कर दिया था. बाद में कैग की रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया कि स्पेक्ट्रम आवंटन में दूरसंचार मंत्री रहे ए राजा के फैसलों की वजह से सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. काफी हो-हल्ले के बाद प्रधानमंत्री ने मुंह खोला और कहा कि उन्हें इतनी बड़ी गड़बड़ी के बारे में पता नहीं था. पर जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी समेत कुछ और लोगों ने उन पत्रों को सार्वजनिक कर दिया जो प्रधानमंत्री को इस गड़बड़ी के बारे में आगाह करते हुए लिखे गए थे. धीरे-धीरे सार्वजनिक होती सूचनाओं ने यह साबित कर दिया कि स्पेक्ट्रम आवंटन के नाम पर जो लूट हुई उसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री समय रहते रोक सकते थे.
स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर होने पर सरकार ने कहा कि पहले आओ और पहले पाओ के आधार पर स्पेक्ट्रम आवंटित करके सरकार ने कोई गलती नहीं की. यह नीति तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लागू की थी. हमने तो सिर्फ इस नीति का पालन किया. गैस मामले में भी पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का कहना है कि जिस नीति के तहत आरआईएल को गैस की खोज और उत्पादन का ठेका मिला वह भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने 1999 में तैयार की थी. जाहिर है, उन नीतियों का पालन करने की बात कहकर सरकार पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है. अगर सरकार को यह लगा कि पुरानी नीति में कोई
गड़बड़ी है तो उसके पास उन नीतियों की खामियों को दूर करने का विकल्प था. पर ऐसा नहीं किया गया. साफ है कि मामला नीति में खामी का नहीं बल्कि नीयत में खोट का है.
ए राजा के इस्तीफे के बाद दूरसंचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने कहा था कि कैग ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक नुकसान की गलत व्याख्या की है और सही मायने में सरकार को स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई नुकसान ही नहीं हुआ. पर जैसे-जैसे मामला उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर आगे बढ़ा, वैसे-वैसे घोटाले की परतें एक-एक कर खुलती गईं. अब केजी बेसिन मामले में भी वही कहानी दोहराई जा रही है. केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को इस मामले में कोई गड़बड़ी ही नहीं दिख रही. कपिल सिब्बल कैग के औचित्य पर ही सवाल उठा रहे हैं. वहीं प्रधानमंत्री केजी बेसिन मामले में कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट पर कहते हैं, ‘मैंने पूरी रिपोर्ट नहीं पढ़ी है. इससे पहले कभी कैग ने किसी नीतिगत मामले में टिप्पणी नहीं की थी. कैग को संविधान के तहत तय दायरे में ही काम करना चाहिए.’ प्रधानमंत्री ने कहा कि निर्णय लेते वक्त हमें बहुत कुछ पता नहीं होता और अगर देश को प्रगति करनी है तो इस बात को संसद, कैग और मीडिया को समझना चाहिए.’ क्या इसका मतलब यह है कि प्रगति के लिए लूट जरूरी है और इसके खिलाफ किसी को भी नहीं बोलना चाहिए, चाहे वह कैग ही क्यों न हो.
2जी मामले में प्रधानमंत्री ने गठबंधन की मजबूरियों का हवाला देकर जानते-बूझते की गई देरी को जायज ठहराने की कोशिश की थी. यही बात दयानिधि मारन के बारे में भी कही जा सकती है. लेकिन देवरा के मामले में तो प्रधानमंत्री के पास यह बहाना भी नहीं है. वे कांग्रेस के ही मंत्री हैं. हां, इसमें प्रधानमंत्री की दूसरी तरह की मजबूरी हो सकती है. विकीलीक्स की मानें तो अमेरिका को खुश करने के लिए देवरा को पेट्रोलियम मंत्रालय दिया गया था. अब प्रधानमंत्री यह जरूर कह सकते हैं कि यदि देवरा के खिलाफ कार्रवाई की गई तो इससे अमेरिका के साथ हमारे रिश्तों पर असर पड़ेगा. यह विडंबना ही है कि देश का मुखिया लुटेरों और उनके सहयोगियों के ‘ईमानदार’ मुखिया में तब्दील हो गया है. तपन सेन कहते हैं, ‘इस सरकार को कॉरपोरेट ताकतों ने बंधक बना लिया है और उन्हीं के हितों के पोषण के लिए यह सरकार काम कर रही है. हम इस मसले को संसद के मानसून सत्र में जोर-शोर से उठाने जा रहे हैं. प्राकृतिक संसाधनों की लूट हर हाल में बंद होनी चाहिए.’
इस बीच खबर है कि कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट को आधार बनाकर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है. कहा जा रहा है कि जल्द ही सीबीआई पूर्व डीजीएच वीके सिब्बल, पेट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों और इस मामले में संदेह के घेरे में आ रहे लोगों को तलब करने वाली है. जाहिर है कि इसमें आरआईएल के अधिकारी भी शामिल होंगे. सीबीआई से जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक वह इन लोगों को तलब करने से पहले उस जवाब का इंतजार कर रही है जो तेल मंत्रालय द्वारा कैग को दिया जाना है. सीबीआई ने तेल मंत्रालय और डीजीएच से वे सारे दस्तावेज मांगे हैं जिनके आधार पर डी-6 के संशोधित प्रस्ताव को मंजूरी दी गई. तेल मंत्रालय जवाब देने में जितनी देर लगाएगी उतना ही समय कैग को अंतिम रिपोर्ट तैयार करने में लगेगा.
कहा तो यह भी जा रहा है कि तेल मंत्रालय देरी इसलिए लगा रही है ताकि कैग की अंतिम रिपोर्ट संसद का सत्र चलने के दौरान न आ पाए और सरकार की किरकिरी कम हो.
(15 जुलाई 2011)