क्या उमा को उत्तर प्रदेश की सीमाओं में बांधा जा सकता है?

‘दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.’ बशीर बद्र के इस शेर को उमा भारती ने पहले जरूर पढ़ा और सुना होगा लेकिन इसमें छिपे मर्म को बहुत अच्छे से महसूस वे आज कर पा रही होंगी. 2005 में पार्टी से निकाले जाने के बाद अटल-आडवाणी से लेकर शायद ही पार्टी का कोई बड़ा नेता ऐसा होगा जिसे उन्होंने जमकर बुरा-भला न कहा हो. छह साल के राजनीतिक वनवास के बाद वे एक बार फिर भाजपा में वापस आ गई हैं. इस दौरान भाजपा के अन्य नेताओं के साथ उनके रिश्ते कितने नीचे चले गए थे इसकी झलक उस कार्यक्रम में बखूबी दिखी जिसमें गडकरी ने उमा की घर वापसी की घोषणा की.

उमा के घर वापसी कार्यक्रम में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को छोड़ कोई बड़ा नेता नहीं था. न तो उमा के गृह राज्य से जहां उन्होंने दिग्गी के दस साल के शासन को तीन चौथाई बहुमत के साथ उखाड़ फेंका था और न ही उस उत्तर प्रदेश से जहां की राजनीतिक जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई है. पार्टी में वापस लेने का उत्साह न तो गडकरी के चेहरे पर दिख रहा था और न ही घर वापसी की खुशी उमा के चेहरे पर. बोझिलता से भरे उस कार्यक्रम में उमा और गडकरी दोनों का चेहरा बता रहा था कि अभी घर वापसी हुई है दिल वापसी नहीं.

‘मध्य प्रदेश में असली खेल 2013 में होगा जब विधानसभा के टिकट बांटने की बारी आएगी. क्या तब इनमें उमा का कोई रोल नहीं होगा?’

पिछले छह साल में भाजपा में काफी बदलाव आ चुका है. इस अवधि में जहां उमा पार्टी की पहली–दूसरी पांत के नेताओं को भला-बुरा कहती रहीं, वहीं भोपाल से लेकर दिल्ली तक उनके राजनीतिक विरोधी और मजबूत होकर स्थापित होते चले गए. जहां शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य और पार्टी में स्थापित हो चुके हैं वहीं केंद्र में अटल-आडवाणी युग लगभग समाप्ति की कगार पर है. अटल जी कब का संन्यास ले चुके हैं और आडवाणी परिवार के एक ऐसे बुजुर्ग मुखिया के तौर पर बने हुए हैं जिनका सम्मान तो हर कोई करता है लेकिन सुनता कोई नहीं है. पार्टी की कमान अब पूरी तरह से दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथ में है. ये वही नेता हैं जिनसे उमा की कभी पटरी नहीं बैठी. इन्हीं नेताओं ने मिलकर उमा की राजनीतिक हत्या की स्क्रिप्ट भी लिखी थी. अब इस स्थिति में उमा राज्य से लेकर केंद्र तक दिल पर जख्म देने वाले उन नेताओं से कैसे तालमेल बिठाएंगी यह देखने वाली बात होगी. भाजपा के जिन नेताओं की हैसियत उनके आसपास भी नहीं थी वे आज पार्टी में टॉप पोस्ट पर हैं. उदाहरण के लिए, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. जिस समय चौहान ने राजनीति का ककहरा सीखना शुरू किया था उस समय उमा राजनीति के क्षितिज पर छाई हुई थीं.

लोगों में इस बात पर चर्चा है कि जिस स्थिति में उमा की पार्टी में वापसी हुई है उससे क्या उमा के व्यवहार पर प्रभाव पड़ेगा? क्या अब वे पार्टी की ‘अनुशासित’ सिपाही बनकर, पहले का हुआ भूलकर, उनसे जो कहा जाएगा वह करेंगी? क्या अब वे पहले की तरह मुखर और आक्रामक नहीं रहेंगी क्योंकि अपने इन्हीं गुणों या अवगुणों की कीमत उन्हें छह साल का वनवास झेलकर चुकानी पड़ी था. ज्यादातर जानकारों का मानना है कि आज भले ही उमा पर विभिन्न शर्तें थोपकर उनकी घर वापसी हुई है लेकिन वे आने वाले समय में अपने मूल स्वरूप में फिर से दिखाई देंगी. तो क्या उनकी घर वापसी, शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के कुछ राष्ट्रीय नेताओं के लिए खतरे की वह घंटी है जिसे बजने से रोकने के लिए इन नेताओं ने पिछले कुछ समय से आकाश-पाताल एक किया हुआ था. पत्रिका के मध्य प्रदेश ब्यूरो चीफ धनंजय सिंह कहते हैं, ‘भले ही उमा ने वापसी को ध्यान में रखकर पार्टी और संघ की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया है लेकिन वे बहुत दिनों तक इसे निभा नहीं पाएंगी. जो लोग उमा को जानते हैं वे उस बात को भी बेहतर तरीके से जानते हैं कि उन्हें किसी शर्त और सीमा में नहीं बांधा जा सकता.’

उमा और उनका आंगन

मध्य प्रदेश के राजनीतिक गलियारों से लेकर कॉफी हाउस और चाय की दुकानों पर इस समय एक ही चर्चा चल रही है कि उमा की वापसी का प्रदेश की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा. कुछ लोग शिवराज सिंह पर चुटकी लेते हुए कह रहे हैं ‘अब तेरा क्या होगा रे कालिया!’  वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनडी शर्मा कहते हैं कि भले ही उमा को अभी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है लेकिन उन्हें मध्य प्रदेश पर प्रभाव डालने से कोई नहीं रोक सकता. देर   सवेर वे प्रदेश की राजनीति और यहां के राजनेताओं को जरूर प्रभावित करेंगी. इसे थोड़ा स्पष्ट करते हुए शर्मा बताते हैं कि प्रदेश भाजपा में बड़ी संख्या में ऐसे विधायक और कार्यकर्ता हैं जो उमा से जुड़ाव रखते हैं. पहले वे उमा से मिल नहीं सकते थे क्योंकि वे पार्टी में नहीं थीं और मामला अनुशासन का बन जाता. लेकिन अब उन्हें रोका नहीं जा सकता. अब वे उमा से किसी भी बहाने से मिल सकते हैं. उमा को उत्तर प्रदेश तक सीमित रखकर मध्य प्रदेश से दूर करने की भाजपाई कोशिश पर शर्मा कहते हैं कि अब पार्टी का कोई नेता या कार्यकर्ता यह कहे कि हम लखनऊ होते हुए बनारस जा रहे हैं, गंगा नहाने तो कोई क्या कर लेगा.

उमा के करीबी रहे प्रदेश भाजपा के एक नेता बताते हैं कि उनकी वापसी का असर जल्द ही पार्टी और सरकार के निर्णयों पर भी दिखने लगेगा. अब पार्टी और सरकार से नाराज किसी भी भाजपा नेता और कार्यकर्ता के पास एक नया ठिकाना है, जहां जाकर वह अपना दुखड़ा रो सकता है. शर्मा कहते हैं कि शिवराज भी अब उस तरह फ्री होकर काम नहीं कर पाएंगे और उमा के समर्थकों को साथ लेकर चलने की कोशिश करेंगे. उनके मुताबिक असली खेल तो 2013 में होगा जब विधानसभा के टिकट बांटने की बारी आएगी. इस असली खेल की बाबत सवाल के जवाब में उल्टे शर्मा ही सवाल करते हैं, ‘क्या आपको लगता है कि इनमें उमा का कोई रोल नहीं होगा?’

‘अब पार्टी और सरकार से नाराज किसी भी भाजपा नेता और कार्यकर्ता के पास एक नया ठिकाना है, जहां जाकर वह अपना दुखड़ा रो सकता है’

अगर मोटा-मोटा समझा जाए तो मान लीजिए टीकमगढ़ के लोग उमा के पास आकर उनसे कोई शिकायत करते हैं या मदद मांगते हैं तो क्या वह उनसे यह कहेंगी कि मैं कुछ नहीं कर सकती क्योंकि मैं अभी यूपी देख रही हूं. राजनीतिक पंडितों के मुताबित यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उमा के कद का प्रदेश भाजपा में और कोई नेता नहीं है. उनके कद के आगे ये सब बहुत बौने हैं. नदी में बड़ी नाव अगर उतरेगी तो छोटी कश्तियों पर असर पड़ना तय है. शर्मा कहते हैं कि कुछ भी हो जाए लेकिन उमा के मन में प्रदेश के नेताओं के प्रति जो कड़वाहट है वह कम नहीं होगी. हां, यह हो सकता है कि वे उसे कुछ समय के लिए छिपा ले जाएं लेकिन उसे भूल नहीं सकतीं. उसका प्रभाव आगे दिखेगा ही.

वहीं वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘उमा के आने का प्रदेश बीजेपी पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि पिछले छह साल में काफी कुछ बदल चुका है. भारतीय जनशक्ति पार्टी का प्रदेश में जो हश्र हुआ वह बताता है कि उन्होंने अपनी क्षमता को बहुत ज्यादा आंक लिया था…’ लेकिन धनंजय सिंह, गिरिजाशंकर की बात से इत्तेफाक नहीं रखते. ‘उमा की वापसी का प्रदेश की राजनीति पर प्रभाव न पड़े यह असंभव है. भले ही वे लखनऊ में रह कर काम करें लेकिन क्या वे राज्य से बाहर रहकर राज्य की राजनीति को प्रभावित नहीं करेंगी’ धनंजय सिंह कहते हैं, ‘इस समय शिवराज सिंह चौहान एक बड़े क्षत्रप बन चुके हैं. ऐसे में क्या भाजपा में एक वैकल्पिक केंद्र बिंदु तलाश रहे नेता उमा के इर्द-गिर्द इकट्ठे नहीं होंगे…यूपी में जो राजनीतिक कॉकटेल तैयार होगा, मध्य प्रदेश उसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता. प्रदेश की राजधानी में उमा की वापसी के साथ बजे ढोल-नगाड़े इसकी गवाही देते हैं.’

उधर पार्टी उमा के मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि लोध बहुल जबेरा सीट पर उपचुनाव होने वाला है लेकिन बीजेपी ने उमा को स्टार प्रचारकों की सूची में जगह ही नहीं दी है. मध्य प्रदेश पर उमा के दूरगामी और अवश्यंभावी प्रभाव पड़ने की बात को द टेलीग्राफ के एसोसिएट एडिटर रशीद किदवई कूट-सी भाषा में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं, ‘उमा ट्रेन से ही प्राय: सफर करती हैं और आप तो जानते हैं कि दिल्ली से भोपाल आने वाली ट्रेन यूपी होकर ही आती है.’ यदि इसे कुछ स्पष्ट करें तो कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में मिलने वाली हर चुनौती से पार पाकर यदि उमा वहां कुछ कमाल करने में सफल हो जाती हैं तो मध्य प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के अपने विरोधियों के लिए वे नयी मुसीबत का सबब बन सकती हैं. और अगर वे वहां कुछ खास नहीं कर पाती हैं या उन्हें नहीं करने दिया जाता है तो अपने घर में तो सबको शरण चाहिए ही.

उमा और उत्तर प्रदेश

उमा की वापसी के समय पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता देने के साथ ही कांटो भरा ताज पहना दिया. गडकरी ने घोषणा की कि उमा 2012 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी को मजबूत करने का काम करेंगी. उत्तर प्रदेश में पार्टी चौथे पायदान पर है. उत्तर प्रदेश ही वह स्थान है, जहां के अयोध्या आंदोलन ने दो सीट वाली पार्टी को आगे चलकर सत्ता में पहुंचा दिया. पार्टी इस बार भी कुछ इसी तरह के करिश्मे की राह देख रही है. हाल ही में लखनऊ में हुई पार्टी कार्यसमिति की बैठक में राजनीति की चाशनी में हिंदुत्व का घोल मिलाने की इच्छा फिर मजबूत होती दिखाई दी. और जब चुनावी वैतरणी हिंदुत्व की नाव के सहारे पार करने की इच्छा हो तो उमा से बेहतर नाविक कोई और नहीं हो सकता. बताने की जरूरत नहीं कि 90 के दशक के अयोध्या आंदोलन की आग सुलगाने और लगातार उसमें घी डालने का काम उमा ने बखूबी किया. आग से भले ही काफी कुछ जल कर राख हो गया लेकिन उस आग की लपटों से उमा के राजनीतिक करियर को जो चमक मिली वह आज भी कायम है. उत्तर प्रदेश ने ही उमा के राजनीतिक कद को रातों-रात इतना ऊंचा कर दिया कि उनके नाम के साथ फायरब्रांड जुड़ गया और वे अपने समकालीन नेताओं से सालों आगे निकल गईं.

आज उमा को उसी राज्य की जिम्मेदारी सौंपी गई है. हालांकि 92 से लेकर अब तक हालात काफी बदल चुके हैं.  प्रदेश में भाजपा आज बड़े बुरे हाल में हैं. यहां के बड़े भाजपा नेता अतीत के खोल से बाहर ही नहीं आना चाहते. मुरली मनोहर जोशी को लगता है कि वे राष्ट्रीय अध्यक्ष और  केंद्र में मंत्री रह चुके हैं, उनका उत्तर प्रदेश में क्या काम. राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्र में मंत्री और फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष की खुमारी में डूबे हैं. कलराज मिश्र उत्तर प्रदेश भाजपा के सफलतम अध्यक्षों में एक माने जाते थे, अब उससे ऊपर उठकर किंग मेकर बन चुके हैं. विनय कटियार राम मंदिर आंदोलन के सबसे तेज-तर्रार नेता थे. उन पर भी वही बजरंगी अतीत हावी है. ऐसा ही कुछ हाल लालजी टंडन, केशरीनाथ त्रिपाठी, ओमप्रकाश सिंह आदि पूर्व अध्यक्षों का भी है. कोई भी वर्तमान परिस्थितियों के मुताबिक अपनी भूमिका निभाना ही नहीं चाहता. सब अपने पुराने रिकॉर्ड को सीने से चिपकाए हुए हैं. नयी भूमिका में आने के लिए न तो उनके पास दम बचा है और न ही वे कोई जोखिम उठाना चाहते हैं. पूर्व मुख्यमंत्री एवं पार्टी के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह पहले ही पार्टी से बाहर हैं.

उमा भारती महिला, साध्वी और पिछड़े वर्ग से हैं, इस वजह से वे माया की सोशल इंजीनियरिंग को चुनौती देने के बारे में सोच सकती हैं

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर लंबे समय से नजर रखने वाले वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘भाजपा प्रदेश में बहुत ही दयनीय स्थिति में है. ऊपर से आपसी गुटबाजी कोढ में खाज का काम कर रही है.” प्रधान मानते हैं कि उमा को प्रदेश की कमान सौंपने का भाजपा को निश्चित तौर पर फायदा होगा. उमा पूरे यूपी में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. पूरे राज्य में लोग उन्हें जानते हैं. वहीं प्रदेश के नेताओं का एक सीमित क्षेत्र में ही प्रभाव है. प्रधान के मुताबिक यूपी में उमा के आने से प्रदेश बीजेपी को दो बड़े फायदे होंगे. पहला कल्याण सिंह के पार्टी से बाहर होने के कारण बुंदेलखंड और रुहेलखंड की 20 से 22 सीटों पर लोध वोटों के नुकसान होने की संभावना को उमा भारती काफी हद तक कम कर पाएंगी. दूसरा उमा की छवि एक कट्टर हिंदू नेता की है, जो आक्रामक है, महिला, साध्वी और पिछड़े वर्ग से है. हिंदुओं को फिर से भाजपा से जोड़ने में वे कामयाब हो सकती हैं. इसके अलावा भीड़ खींचने में उनका कोई सानी नहीं है. वे बताते हैं कि विनय कटियार ने भी अपनी छवि एक कट्टर हिंदू की बनाई है लेकिन समस्या यह है कि लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेते. इसके अतिरिक्त माया की सोशल इंजीनियरिंग को चुनौती देने के बारे में उमा सोच सकती हैं. माया बनाम उमा की लड़ाई रोचक होगी.

लेकिन ऐसा होगा तो तभी जब उमा भारती को उत्तर प्रदेश में खुलकर काम करने का मौका दिया जाएगा. प्रधान कहते हैं, ‘उमा की राह यहां भी मुश्किलों से भरी है क्योंकि यहां के नेता उमा की उपस्थिति से खुश नहीं हैं. दबी जुबान में उनका कहना है कि पार्टी ने एक बाहरी को यहां नेता बना कर भेज दिया. हम लोग क्या इतने सालों से घास छील रहे हैं.’ उमा के बेहद करीबी एक सज्जन बताते हैं, ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौखिक घोषणा के अतिरिक्त पार्टी ने उमाजी के लिए अभी कोई जिम्मेदारी स्पष्ट नहीं की है. अगर पार्टी की ऐसी मंशा है तो उन्हें पार्टी के संविधान के तहत बाकायदा लिखित घोषणा करनी चाहिए, किसी समिति का सदस्य बनाकर या फिर प्रदेश प्रभारी घोषित करके. यहां तो सारी बातें हवा में हो रही हैं.’ यह खीज इशारा है कि गडकरी और संघ को जितना जोर उमा को पार्टी में लाने के लिए लगाना पड़ा है उससे ज्यादा जोर उन्हें पार्टी में आगे बढ़ाने के लिए लगाना होगा.

उमा और राष्ट्रीय राजनीति

जब उमा छह साल पहले पार्टी में थीं तब की भाजपा और छह साल बाद की भाजपा में काफी कुछ बदल चुका है. जब वे इसे छोड़ कर गईं थी तब पार्टी अटल-आडवाणी युग में थी, अब सुषमा स्वराज और अरुण जेटली का युग चल रहा है. पार्टी को दशा और दिशा देने की जिम्मेदारी दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथों में आ गई है जिनसे उमा की कभी पटरी नहीं बैठी और वे उनके खिलाफ लगातार बोलती रहीं. एनडी शर्मा कहते हैं, ‘केंद्र की राजनीति कर रहे इन दूसरी पंक्ति के नेताओं को उमा के कद और क्षमता का अच्छी तरह अहसास है. उनमें से ज्यादातर उमा के आगे कहीं नहीं ठहरते. इसीलिए तो उन्होंने उमा की वापसी की राह में रोड़े अटका रखे थे…पार्टी में कोई बड़ा नेता ऐसा नहीं है जो उमा की वापसी के पक्ष में था. सभी के बीच एक आम राय बन चुकी थी कि उन्हें वापस पार्टी में नहीं आने देना है क्योंकि उमा पार्टी में वापस आएंगी तो इन सभी पर भारी पड़ जाएंगी.’

‘आज नहीं तो कल उमा का दूसरे पंक्ति के नेताओं से संघर्ष होकर रहेगा. क्योंकि उनका अपना एक कद और इतिहास है’

धनंजय सिंह कहते हैं, ‘अटल-आडवाणी के बाद कोई दूसरा नेता जो उनके कद के आसपास भी दिखता था तो वो थीं उमा भारती. दूसरी पंक्ति के नेताओं में वे सबसे आगे थीं. अटल-आडवाणी के बाद उमा ही भाजपा की एकमात्र नेता थीं जिन्हें कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर शख्स पहचानता था. इसलिए यह स्वाभाविक था कि अटल-आडवाणी युग के बाद उमा के हाथों में पार्टी की कमान होती. इस बात का पार्टी के हर नेता को आभास था इसीलिए तो उनकी वापसी न हो पाए इसके लिए सभी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा था. आज भले ही शिवराज से लेकर रमन सिंह तक कई नेता उभर आए हों, लेकिन ये लोग पिछले पांच से दस साल की पैदावार हैं. और उमा सन 90 में ही राजनीति में एक मजबूत स्तंभ बन चुकी थीं. शर्मा कहते हैं कि अगर हम भाजपा की दो महिला नेताओं अर्थात सुषमा स्वराज और उमा की तुलना करें तो पाएंगे कि उमा के मुकाबले सुषमा कहीं नहीं ठहरतीं. उनकी स्थिति यह है कि वे अपनी बदौलत विदिशा की अपनी लोकसभा सीट तक नहीं जीत सकतीं. आज भी अटल-आडवाणी के बाद भाजपा में उमा के कद को टक्कर देने वाला कोई नहीं है. हालांकि नरेंद्र मोदी जैसे नेता भी पिछले दस साल में काफी ताकतवर होकर उभरे हैं. शर्मा कहते हैं कि आज नहीं तो कल उमा का दूसरे पंक्ति के नेताओं से संघर्ष होकर रहेगा. क्योंकि उनका अपना एक कद और इतिहास है. भविष्य में पार्टी के नेताओं में पार्टी पर वर्चस्व को लेकर युद्ध झिड़ने की प्रबल संभावना है. अभी तो पार्टी ने उमा को यूपी भेज दिया है लेकिन यूपी चुनाव समाप्त होने के बाद क्या.

जानकार उमा के खिलाफ एक और षड्यंत्र रचे जाने की ओर इशारा करते हैं. उनके मुताबिक चूंकि यह स्पष्ट है कि उमा की भाजपा में वापसी संघ के दबाव में हुई है और कोई नेता उनकी वापसी के पक्ष में नहीं था तो जाहिर है कि ये सारे नेता नहीं चाहेंगे कि उमा भारती मजबूत हों. इसलिए वे उन्हें राजनीतिक रूप से कभी सफल होने नहीं देंगे और लगातार कमजोर करने की कोशिश करते रहेंगे. ऐसे में उमा की राह बड़ी मुश्किलों भरी है. दूसरी ओर कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि नितिन गडकरी भी उमा की तरह संघ द्वारा अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाए गए हैं और पार्टी में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उन्हें भी उमा भारती सरीखे सहारे की जरूरत है. उमा भी साफ छवि के चलते उन्हें पसंद करती हैं. तो ऐसे में गडकरी, उनके समर्थक और वर्तमान में हाशिये की ओर जाते कुछ नेता एक बार फिर से भाजपा में स्थापित होने में उमा के बहुत काम आ सकते हैं.