इस्लाम में सुधारों और बदलाव से जुड़े सवाल का जवाब दो हिस्सों में दिया जाना चाहिए. एक हिस्सा इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों से जुड़े बदलावों से संबंधित होगा और दूसरा अन्य बदलावों से.
जहां तक धर्म के उन सिद्धांतों का सवाल है जो कुरान के मुताबिक बुनियादी या शाश्वत हैं और सभी धार्मिक परंपराओं में एक समान हैं उनमें बदलाव की न तो कोई आवश्यकता है और न ही ऐसा करना जरूरी है. कुरान कहता है, ‘अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन (धर्म) मुकर्रर किया है जिसका उसने नूह (पैगंबर) को हुक्म दिया था और जिसकी वाही (आकाशवाणी) हमने तुम्हारी तरफ की है, और जिसका हुक्म हमने इब्राहिम (पैगंबर), मूसा (पैगंबर और यहूदी धर्म के प्रवर्तक) और ईसा (पैगंबर और ईसाई धर्म के प्रवर्तक) को दिया था कि दीन को कायम रखो और उसमें बिखराव न डालो.’ (कुरान 42.13)
धर्म की इस कल्पना के बारे में मौलाना आजाद अपनी किताब ‘तर्जुमानुल कुरान’ में लिखते हैं, ‘सत्य एक है और सभी परंपराओं में समान है. परंतु उसके आवरण अलग-अलग हैं. हमारा दुर्भाग्य यह है कि दुनिया शब्दों की पुजारी है और अर्थ को अनदेखा कर देती है. सभी लोग एक परमेश्वर की उपासना करते हैं लेकिन उस परमेश्वर के अलग-अलग नामों को लेकर झगड़ते हैं.’ मौलाना आजाद इस साझी आध्यात्मिकता को मुश्तरक हक (साझा सत्य) कहते हैं. वे कहते हैं कि धर्म का उद्देश्य ऐसा मानस निर्मित करना है जिससे दैविक करुणा और सुंदरता प्रतिबिंबित हो सके. वे इस बात पर अफसोस जाहिर करते हैं कि धर्म, जो कि मानवीय एकता पैदा करने का माध्यम है उसका इस्तेमाल एकता को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है. मौलाना आजाद जिस साझा सत्य और धर्म के उद्देश्य की बात करते हैं उन्हें कैसे बदला जा सकता है?
इन बुनियादी सिद्धांतों के बाद जो दूसरी बातें हैं उनका संबंध समय से है जोकि निरंतर बदल रहा है. कुरान निरंतर होने वाले परिवर्तनों-जैसे रात और दिन का बदलना, समंदर के ज्वार-भाटे, नदियों का सैलाब, बढ़ती हुई उम्र, इंसानों के अलग-अलग रंग और भाषाएं, विभिन्न सभ्यताओं के उत्कर्ष और पतन आदि – को अल्लाह की निशानियां कह कर पुकारता है और इनका गंभीर अध्ययन करने का आह्वान करता है.
परिवर्तनों के अध्ययन के इस आह्वान से एक बात स्पष्ट होती है. कुरान यह चाहता है कि हमें न सिर्फ परिवर्तनों का बोध रहे बल्कि हम इनके कारण पैदा हुई नई परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लायक भी बन सकें. कुरान की आयत है- ‘अगर तुम आगे नहीं बढ़ोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सजा देगा और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को ले आएगा.’ (कुरान 9.39)
निरंतर परिवर्तन हमारे जीवन की सच्चाई है. अगर किसी बेजान वस्तु जैसे किसी पत्थर को पर्यावरण के प्रभावों से बचाकर सुरक्षित रख दिया जाए तो संभव है कि वह हजार साल बाद भी वैसी ही मिल जाए. लेकिन कोई भी ऐसी वस्तु जिसमें जीवन है, वह चाहे मानव हो या पशु या पेड़-पौधे, वह हर दिन के साथ या तो बढ़ेगी या घटेगी. वह एक सी हालत में रह ही नहीं सकती. प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान इब्ने खल्दून ने अपनी किताब ‘मुकद्दिमा’ में लिखा है, ‘दुनिया के हालात और विभिन्न देशों की आदतें हमेशा एक जैसी नहीं रहती हैं. दुनिया परिवर्तन और संक्रांतियों की कहानी का नाम है. जिस तरह से ये परिवर्तन व्यक्तियों, समय और शहरों में होते हैं, उसी तरह दुनिया के तमाम हिस्सों, अलग-अलग दौर और हुकूमतों में होते रहते हैं. खुदा का यही तरीका है जो उसके बंदों में हमेशा से जारी है.’
इस्लामी कानून के विशेषज्ञ डॉ. सिबही मेहमसानी ने इब्ने खल्दून के विचारों के आधार पर अपनी किताब ‘फलसफा शरियते इस्लाम’ में लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया की इस परिवर्तनशीलता का नतीजा यह है कि मानव समाज का जीवन स्तर बदलने से उसके कल्याण के पैमाने भी बदल जाते हैं. चूंकि मानव की बेहतरी ही कानून की बुनियाद है, इसलिए अक्ल का फतवा यही है कि समय और समाज में तब्दीलियों के साथ-साथ कानून में भी मुनासिब और जरूरी परिवर्तन होते रहें और वह अपने पास-पड़ोस से भी प्रभावित होता रहे.’
एक अन्य इस्लामी विद्वान इब्ने कय्यिम अल जौज़ी ने जोरदार शब्दों में इस बात को रेखांकित किया है, ‘कानून की तब्दीली, समय और काल के परिवर्तन, बदलते हुए हालात और इंसानों के बदलते हुए व्यवहार के साथ जुड़ी है.’ इसी बात को इब्ने कय्यिम ने आगे बढ़ाते हुए कहा है कि मानव समाज और कानून का एक रिश्ता है और इस रिश्ते को न जानने के कारण एक गलतफहमी पैदा हो गई है. इसने इस्लामी कानूनों के क्षेत्र को सीमित कर दिया है. इस्लामी कानूनों के दायरे को सीमित करने वालों के बारे में इब्ने कय्यिम लिखते हैं कि जिस कानून में मसालेह इंसानी (लोक कल्याण) का सबसे ज्यादा लिहाज रखा गया हो उसमें ऐसे तंग नजरियों की कोई गुंजाइश नहीं है. यह बात अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आज से 800
साल पहले इब्ने खल्दून ने और 400 साल पहले इब्ने कय्यिम ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि कानून का उद्देश्य केवल और केवल लोक कल्याण है.
इस स्थिति को मुजल्लातुल अहकामुल अदालिया (इस्लामी कानून नियमावली) के अनुच्छेद 39 में और ज्यादा साफ कर दिया गया है. वहां कहा गया है, ‘ला युंकिर तघइय्युरिल अहकाम बित तघाय्युरुज्जमन’, अर्थात इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जमाना बदलने के साथ-साथ कानून भी बदल जाते हैं. इस संदर्भ में मौलाना अलाई की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है, ‘कानून का प्रावधान किसी विशेष कारक पर आधारित होता है. उस कारक के समाप्त हो जाने पर वह प्रावधान भी स्वतः समाप्त हो जाता है.’
जब हम इस्लामी कानून के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हमें ऐसे अनेक मामले मिलते हैं जहां विभिन्न कारकों के परिवर्तनों के साथ कानून के प्रावधानों में भी जरूरी परिवर्तन किए गए हैं. इसकी कुछ मोटी-मोटी मिसालें हैंः
- खिराज वह टैक्स है जो खेती करने वालों को देना होता था. इसकी दरें हजरत उमर (इस्लाम धर्म के दूसरे खलीफा या शासक) के जमाने में तय कर दी गई थीं, लेकिन इमाम अबू यूसुफ ने समय बदलने के साथ इन दरों को कम कर दिया.
- इमाम शाफई उन चार इमामों में से हैं जिनके नाम चारों सुन्नी न्याय व्यवस्थाओं के साथ जुड़े हैं. उन्होंने बहुत-सी यात्राएं कीं और वे अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं. अपनी यात्राओं के बाद इमाम शाफई ने अपनी बहुत -सी मान्यताओं, जिनको इतिहास में इराकी मजहब कहा गया है, को छोड़कर नया मिस्री मजहब इख्तियार कर लिया.
- मुस्लिम हुकूमत के पहले दौर में स्कूल में पढ़ाने वाले उलेमा के लिए बड़े-बड़े वजीफे मुकर्रर थे. इस आधार पर इमाम अबू हनीफा और उनके साथियों ने कुरान और दूसरे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाने के लिए उन्हें मेहनताने देने पर पाबंदी लगा दी थी. बाद में जब वजीफे बंद हो गए तो उस समय के उलेमा ने फतवे देकर इस प्रकार की तनख्वाह को जायज करार दे दिया.काल और समय के परिवर्तन के साथ कानून में परिवर्तन के सिद्धांत को इस्लामी न्यायसंहिता में पूरी मान्यता है. लेकिन ऊपर जितने उदाहरण दिए गए हैं वे उन कानूनों से संबंधित हैं जो मुस्लिम विधि शास्त्रियों की राय और फतवों के आधार पर बनाए गए थे. इनके अतिरिक्त वे कानून भी हैं जिनका आधार कुरान और सुन्नत (परंपराएं) है. इनकी महत्ता इस्लामी कानूनों में सबसे ज्यादा है. हालांकि यह माना जाता है कि कुरान और सुन्नत पर आधारित किसी भी कानून को बदला नहीं जा सकता, लेकिन इतिहास में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं. खास तौर से हजरत उमर की खिलाफत के दौर में जहां उन्होंने समय और परिस्थितियों में बदलाव के कारण उन कानूनों और नियमों में परिवर्तन किए जिनका संबंध सीधे कुरान और सुन्नत से था. ऐसे कुछ उदाहरण हैं:
- कुरान में खैरात और सदकात (दान-दक्षिणा) के लिए स्पष्ट प्रावधान है: “सदकात दरअसल फकीरों और मिसकीनों (वंचितों) के लिए है, नेक काम में लगे लोगों के लिए, उनके लिए जिनको तकलीफ-ए-कल्ब (दिल भराई) की जरूरत है, गुलामों को आजाद कराने और दूसरों के कर्जे अदा करने के लिए और अल्लाह के रास्ते पर चलने वाले मुसाफिरों की मदद के लिए. (कुरान 9.60)यहां दिल भराई से मतलब वे लोग या नए मुसलमान थे जिनको पैगंबर साहब कुछ रकम दिया करते थे. इस्लामी टीकाकार बैहक्की ने लिखा है कि कुरान के इस प्रावधान के बावजूद हजरत उमर ने दिल भराई वालों का हिस्सा देना बंद कर दिया और कहा कि पैगंबर साहब यह रकम तुम्हें इसलिए दिया करते थे कि तुम्हारी दिल भराई करके तुम्हें इस्लाम पर कायम रख सकें. लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नहीं है.
- हदीस (हजरत मुहम्मद साहब के वचनों का संकलन) की प्रसिद्द किताब ‘सही मुस्लिम’ के मुताबिक पैगंबर साहब, हजरत अबू बक्र (इस्लाम धर्म के पहले खलीफा) और हजरत उमर की खिलाफत के आरंभिक दौर में एक साथ तीन बार कहे गए तलाक को एक ही माना जाता था बाद में जब लोग तलाक में जल्दी करने लगे तो हजरत उमर ने उन्हें एक ही बार में तीन तलाक देने की इजाजत दे दी. (मुस्लिम किताब 009, हदीस नंबर 3493)हजरत उमर ने अपने जमाने के लिहाज से जिस राय को बेहतर समझा उसको लागू किया लेकिन यह भी सही है कि बहुत-से उलमा ने हजरत उमर की इस राय से सहमत नहीं थे और आज भी इस्लामी कानून की कई धाराओं में एक वक्त के तीन तलाक को एक तलाक ही माना जाता है. शेख अहमद मोहम्मद शाकिर ने अपनी किताब ‘निजामे तलाक फी इस्लाम’ में लिखा है कि हजरत उमर का यह फैसला एक हंगामी हुकुम की हैसियत रखता है जो उन्होंने सियासती जरूरत के चलते दिया था.
- इस्लामी कानून में चोरी की सजा हाथ काटना है और इसका प्रावधान कुरान में है – ‘और चोर मर्द और चोर औरत दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है’ (कुरान 5.38)खुद पैगंबर साहब ने इस प्रावधान के तहत चोरी करने वालों को यही सजा दी थी, लेकिन हजरत उमर ने अकाल के समय जनहित में इस सजा को निलंबित कर दिया और इस को आम तौर पर स्वीकार कर लिया गया.
- किसी अविवाहित व्यक्ति द्वारा अवैध यौन संबंध की सजा इस्लामी कानून के अनुसार 100 कोड़े और एक साल के लिए उस स्थान से बाहर भेज देना है. लेकिन हजरत उमर के बारे में आया है कि जब उन्होंने राबिया बिन उमय्या को शहर से निकाला तो वह जा कर रोमन लोगों से मिल गया जिनके साथ उस समय जंग चल रही थी. इस पर हजरत उमर ने कहा कि अब मैं कभी किसी को शहर से बाहर नहीं निकालूंगा. हजरत उमर का यह फैसला भी वक्त और हालात के हिसाब से राज्य के हित में लिया गया फैसला था जो साफ तौर पर इस्लामी कानून के प्रावधानों से अलग था.
- इस्लामी कानून उन अपराधों के मामले में शासक को सजा तय करने का अधिकार देते हैं जहां साफ तौर पर किसी सजा का प्रावधान नहीं है. लेकिन एक हदीस में यह साफ कर दिया गया है कि यह सजा 10 कोड़ों से ज्यादा नहीं हो सकती. मगर हजरत उमर ने एक मामले में, जहां एक आदमी ने सरकारी खजाने की जाली मोहर बना ली थी, 100 कोड़ों की सजा सुनाई. इमाम मालिक जो हदीस के पहले संकलनकर्ता हैं उन्होंने इस मामले में कहा है कि 10 कोड़ों की सजा पैगंबर साहब के समय के हिसाब से सही थी. यह हर दौर में लागू नहीं होती है.
- हत्या के मामले में इस्लामी कानून में ‘खून बहा’ का प्रावधान है. इसके अनुसार हत्या करने वाले या उसके कबीले पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह एक निर्धारित रकम मारे गए व्यक्ति के परिजनों को दे. लेकिन हजरत उमर ने इस तरीके को बदल दिया. इसका कारण यह था कि उन्होंने पहली बार शासन और फौज को संगठित किया तो सामूहिक सत्ता कबीलों के हाथ से निकलकर सरकार के पास आ गई
इमाम सरखासी ने इस फैसले की तारीफ करते हुए कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि हजरत उमर का यह फैसला पैगंबर साहब की परंपरा से हट जाना था. वास्तव में यह उसी परंपरा के अनुसार था क्योंकि वे यह जानते थे कि पैगंबर साहब ने यह जिम्मेदारी कबीले पर इसलिए डाली थी कि उनके समय कबीला ही शासन और सत्ता की बुनियादी इकाई था. लेकिन सरकारी फौज के संगठित होने के बाद सत्ता फौज के हाथ में आ गई और बहुत बार फौजी होने के नाते आदमी कभी-कभी अपने ही कबीले के खिलाफ जंग करने के लिए मजबूर होता था. दूसरी तरफ इमाम शाफई ने इस तर्क को पैगंबरी परंपरा के खिलाफ कह कर रद्द कर दिया.
इस बहस से इतना तो साफ है कि इस्लामी परंपरा में कानून कोई जड़ संस्था नहीं है बल्कि हर प्रसंग के प्रति अत्यंत संवेदनशील है. ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इस्लामी कानून में इतनी जीवंतता और लोच है कि यह बदलते हुए वक्त के हर तकाजों और चुनौतियों का सकारात्मक उत्तर दे सके. इस सिलसिले में सबसे मजबूत और दिलचस्प तर्क सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ने दिया है. उन्होंने कहा कि कुरान खुदा का शब्द है और जो कुछ हम दुनिया में देखते हैं वह खुदा का कर्म है. उन्होंने कहा कि यह असंभव है कि खुदा की कथनी और करनी में विरोधाभास हो. अगर हमें दोनों में अंतर नजर आता है तो इसका एक ही मतलब है कि हमने खुदा के कहे को सही तरह से समझा नहीं है. इसलिए हमें उस प्रावधान विशेष के बारे में अपनी समझ की पुनर्समीक्षा करनी होगी और शब्द और कर्म के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा.
सामंजस्य स्थापित करने और नई परिस्थितियों व चुनौतियों के बीच रास्ता तलाश करने के प्रयासों को कुरान बहुत प्रशंसनीय निगाहों से देखता है और कहता है, ‘और जो हमारे लिए अथक प्रयास करेंगे उन्हें हम अपने रास्ते दिखाएंगे. निस्संदेह अल्लाह अच्छे काम करने वालों के साथ है.’ (कुरान 30.69)
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आरिफ मोहम्मद खान की अतुल चौरसिया से बातचीत के आधार पर इस आलेख से जुड़े कुछ और बिंदु आगे हैं.
तो फिर कट्टरपंथ का भ्रम क्यों?
मैंने अपने लेख में जितने उदाहरण दिए हैं वे सब पहली सदी हिजरी अर्थात सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक के हैं. इन्हीं में वे तीन शताब्दियां भी हैं जिनको इस्लाम का स्वर्णिम काल कहा जाता है, खास तौर से आठवीं और नौवीं शताब्दी जब भारतीय और यूनानी किताबों के अनुवाद किए गए. पहली भारतीय पुस्तक ‘सूर्य सिद्धांत’ का अनुवाद फजारी ने 771 में अरबी में किया जिसको “सिंधहिंद” का नाम दिया गया. यह पुस्तक बाद में स्पेन के जरिए पूरे यूरोप में गई और फजारी को अरब खगोलशास्त्र के पिता के तौर पर जाना गया.
लेकिन यह भी सत्य है कि दसवीं शताब्दी से ऐसी प्रवृत्तियां खड़ी हो गईं विशेषकर अशअरी आंदोलन के नतीजे में जिनकी वजह से बौद्धिक वातावरण पर कुप्रभाव पड़ा और नई सोच व अनुसंधान एक तरह से गंदे शब्द बन गए. यह माहौल बगदाद पर मंगोल आक्रमण के बाद और अधिक संकुचित हो गया और सिर्फ पुरानी परंपराओं के पालन को धार्मिक आस्थाओं का अभिन्न अंग मान लिया गया. जस्टिस अमीर अली ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘स्पिरिट ऑफ इस्लाम’ में एक अरब संपादक की टिप्पणी उद्धृत की है, ‘अगर अशअरी और गजाली न हुए होते तो अरबों का समाज गेलिलियो, केल्पेर और न्यूटन का समाज होता. उन्होंने विज्ञान और दर्शन के अध्ययन की निंदा की और यह आह्वान किया कि धर्मशास्त्र और धार्मिक कानून के अध्ययन के अलावा किसी और विषय की पढ़ाई समय की बर्बादी है.’ अरब संपादक के अनुसार इस आह्वान से मुस्लिम दुनिया का विकास अवरुद्ध हो गया और अज्ञानता और रूढ़िवाद की जड़ें गहरी होती चली गई.’
लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि गतिशीलता पूरी तरह समाप्त हो गई है. पूरी दुनिया में जो प्रगति और परिवर्तन हो रहे हैं मुस्लिम उससे कटे हुए नहीं हंै. मगर वे ज्यादातर उस परिवर्तन का लाभ उठाने वालों में शामिल हैं परिवर्तन लाने वालों में नहीं. शैक्षिक विकास के साथ यह स्थिति बदल रही है. मगर उलमा (पेशेवर धर्मगुरु) का एक वर्ग अब भी पुरानी लीक पर जमा हुआ है. इससे इस तर्क को बल मिल जाता है कि पूरा मुस्लिम समाज कट्टरपंथी है.
मुस्लिम उलमा में हमेशा से दो वर्ग रहे हैं. एक, जिनको उलमा-ए-हक कहा गया है जिनमें वे महान सूफी भी हैं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि अल्लाह की इबादत के लिए समर्पित कर दी. उसी के साथ दूसरा वर्ग भी रहा है जिन्होंने दीन को पेशे के तौर पर इस्तेमाल किया. उन्होंने बादशाहों और हुकूमतों की नौकरियां की और उनकी मर्जी के अनुसार ठकुर-सुहाती फतवे देकर बादशाहों के हर सही और गलत काम को जायज ठहराया. इन्हीं उलमा के फतवों के नतीजे में सरमद जैसे अल्लाह के बंदे को फांसी की सजा दी गई, हजरत निजामुद्दीन औलिया पर दिल्ली के दरबार में मुकदमा चलाया गया. यह भी छोडिए, कर्बला के मामले में जहां पैगंबर साहब के पूरे परिवार को बेदर्दी के साथ शहीद किया गया था – सिर्फ इस जुर्म में कि उन्होंने खानदानी बादशाहत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था – फतवे देकर इस जुल्म को जायज ठहराया गया. मौलाना आजाद ने अपने एक इंटरव्यू में इन्हीं उलमा के लिए कहा है, ‘इस्लाम की पूरी तारीख उन उलमा से भरी पड़ी है जिनके कारण इस्लाम हर दौर में सिसकियां लेता रहा है.’
राजनीति की भूमिका
मुसलमान और इस्लाम की छवि हिंदुस्तान में अगर आज ऐसी बन गई है कि यह अतीत में ठहरा हुआ है, तो इसे समझने के लिए हिंदुस्तान के राजनीतिक पक्ष को भी समझना होगा. यहां जो लोग मुसलमानों का नेता होने का दावा करते हैं उनकी व्यक्तिगत आस्था तो कुछ और होती है लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से वे इसके बिल्कुल विपरीत आचरण करते हैं. इसके चलते कई कट्टरपंथी आम लोगों की आस्थाओं को भड़काने में कामयाब हो जाते हैं. एक जमाने से ऐसे लोग बहुत व्यवस्थित तरीके से यह काम कर रहे हैं. जिन्ना से इसकी शुरुआत हुई थी. उनकी व्यक्तिगत आस्था कुछ और थी. वे पैदा तो एक मुसलमान के घर में हुए लेकिन सबका यह मानना है कि वे जीवन भर नॉन-प्रैक्टिसिंग मुसलमान रहे. उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए मुसलमानों का जमकर इस्तेमाल किया. हमने देखा कि शाहबानो के मामले में कई आधुनिक मुस्लिम राजनेताओं ने कट्टरपंथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें इसके लिए जमकर पुरस्कृत किया. ऐसे में मुस्लिम समाज किस तरफ बढ़ेगा और इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? व्यवस्था बार-बार एक ही संदेश दे रही है कि अगर किसी मुसलमान को हिंदुस्तान की राजनीति में आगे बढ़ना है तो आप कट्टरपंथियों के साथ खड़े होइए, बंद दिमागों को आगे बढ़ाइए. जब यह संदेश एक पढ़े-लिखे मुसलमान को मिलेगा तो हालात कैसे बदलेंगे. 1986 में शाहबानो के मामले के बाद से ही तो इस देश की राजनीति में कट्टरपंथियों का असर बढ़ा है, उसके पहले कहां था यह. यह स्थिति इसलिए भी पैदा हुई क्योंकि आम आदमी को अशिक्षित रखा गया, और इस हद तक कि उसे कुरान को अनुवाद के साथ पढ़ने पर भी पाबंदी लगा दी गई. जबकि इस्लाम में हर मर्द और औरत को इल्म हासिल करना जरूरी है. अगर हम शिक्षा का विस्तार करने में सफल हो सकें और साधारण व्यक्ति शिक्षित होकर अपने फैसले खुद करने की स्थिति में आ सके तो पेशेवर उलमा पर उनकी निर्भरता ख़त्म हो जाएगी और स्थितियां खुद-ब-खुद सुधरने लगेंगी. यह काम हो रहा है क्योंकि मुसलमानों में शिक्षा का विस्तार बहुत तेज़ी से हो रहा है, खास तौर से महिलाओं में.
कश्मीर के मुफ्ती-ए-आजम और ओवैसी
यह सही है कि संगीत के संदर्भ में उलमा के बीच शुरू से मतभेद रहा है. हज़रत निजामुद्दीन पर चलने वाले जिस मुक़दमे का जिक्र मैंने किया है उसका संबंध संगीत ही से था. उलमा के एक वर्ग की मजबूत राय रही है कि संगीत जायज़ नहीं है. वहीं दूसरी तरफ हमें वे उलमा नजर आते हैं (खास तौर से सूफी परंपरा से संबंध रखने वाले) जो संगीत को आध्यात्मिक विकास का माध्यम मानते थे. हमारी अपनी परम्परा में अमीर खुसरो न सिर्फ कवि थे बल्कि संगीत के कई आले (वाद्ययंत्र) खुद उनकी अपनी ईजाद हैं.
इस्लामी अरब में गाने और संगीत का इतिहास प्रसिद्ध किताब ‘किताबुल अगना’ में मिलता है जो अबुल फराज इस्फहानी (897-966) ने लिखी है. इस किताब में विस्तार से पुरुष और महिला संगीतकारों का विवरण दिया गया है. महिला संगीतकारों में प्रमुख नाम ‘अज्जा अल्मैला’ और ‘जमीला’ के हैं. ये दोनों महिला संगीतकार अपनी कला में निपुण थीं और मदीने में रहती थीं.
कश्मीर के मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन अहमद के फतवे के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि यह फतवा मुसलमानों के एक हिस्से की राय तो हो सकता है लेकिन इसे इस्लामी नहीं कहा जा सकता. कश्मीर, जो मशहूर सूफी लल्ला आरिफा और शेख नूरुद्दीन (नन्द ऋषि) की सरजमीन है वहां से अगर ऐसा फतवा आता है तो यह अपने आप में विरोधाभास है. पूरी दुनिया में कहीं भी किसी भी मस्जिद में इबादत के समय स्थानीय भाषा में सामूहिक गान नहीं होता है लेकिन कश्मीर की मस्जिदों में नमाज़ के बाद ‘औरादे फतहिया’ का सामूहिक गान होता है. यह गाना कश्मीरियों की इबादत का हिस्सा है. ऐसे कश्मीर में लड़कियों के गाने पर पाबंदी दुर्भाग्यपूर्ण है.
जहां तक अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण से जुड़ा विवाद है तो उस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ओवैसी का संबंध मजलिस से है जो पुराने हैदराबाद के रजाकार संगठन का राजनीतिक मंच था. यह वही संगठन है जो हैदराबाद के भारत में विलय के विरुद्ध था, जिसके नतीजे में पुलिस एक्शन हुआ और हैदराबाद के लोगों को एक बड़ी त्रासदी से गुजरना पड़ा. जिस पार्टी का लीडर कासिम रिजवी हैदराबाद के नौजवानों को कलमा पढ़ कर भारतीय टैंकों के सामने कूदने का आह्वान करके खुद कराची भागने में संकोच महसूस नहीं करता, उस पार्टी का एक नातजुर्बेकार कारकुन अगर अपने भाषणों में दूसरी धार्मिक परम्पराओं का अपमान करता है तो मुझे कोई ताज्जुब नहीं है. इस मामले में सवाल ओवैसी से नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी से पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने मजलिस को यूपीए में शामिल क्यों किया. ओवैैसी को तो शायद यह भी नहीं मालूम है कि कुरान हकीम सख्ती के साथ यह कहता है , ‘और जो लोग अल्लाह के सिवा किसी और को पूजते हैं उन्हें गाली न दो वर्ना वे लोग अज्ञानता की बुनियाद पर अल्लाह को गाली देने लगेंगे. ऐसा करने से उनके कर्म लोगों को जायज लगने लगेंगे.’ (कुरान 6.108)
मजलिस ही नहीं मुझे तो मुस्लिम लीग का भी यूपीए में रहना अटपटा लगता है. मुस्लिम लीग ने देश का विभाजन कराया, लाखों लोगों का खून बहा, परिवार विस्थापित हुए और आज वही मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ सरकार में हिस्सेदार है. मैं मानता हूं कि केरल की मुस्लिम लीग पुरानी मुस्लिम लीग से भिन्न है लेकिन मुस्लिम लीग नाम अपने आप में अस्वीकार्य है और केरल मुस्लिम लीग पर दबाव डाला जा सकता था कि वे अपना नाम तो बदल लें. मौलाना आज़ाद ने 23 अक्टूबर, 1947 को दिल्ली में जामा मस्जिद के सामने अपने भाषण में कहा था, ‘अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है, मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है.’
(28 फरवरी 2013)