आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ बढ़-चढ़़कर हिस्सा लेने वाले घुमंतू (घुमक्कड़) लोग आज भी बेघर हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी 193 लड़ाका जनजातियों के लोगों को अंग्रेजों ने ही क्रिमिनल ट्राइब यानी अपराधी समूह का दर्जा दिया था। सन् 1871 में इन लड़ाकू 193 जातियों को अंग्रेजों ने आपराधिक जातियाँ घोषित कर दिया था, जिन्हें देखते ही मार देने तक के आदेश पास हुए थे। कथित तौर पर अपराधी घोषित इन जातियों में बंजारा, बाजीगर, सिकलीगर, नालबंध, साँसी, भेदकूट, छड़ा, भांतु, भाट, नट, डोम, बावरिया, राबरी, गंडीला, गाडियालोहार, जंगमजोगी, नाथ, पाल, गड़रिया, बघेल, मल्लाह, केवट, निषाद, बिन्द, धीवर, डलेराकहार, रायसिख, महातम, लोहार, बंगाली, अहेरिया, बहेलिया, नायक, सपेला, सपेरा, पारधी, लोध, गूजर, सिंघिकाट, कुचबन्ध, गिहार, कंजड़ आदि सम्मिलित थीं। अंग्रेज इन जातियों के गुरिल्ला युद्ध और हमलों से परेशान थे।
आज देश में बहुत-से लोगों को आज़ादी का श्रेय जाता है। लेकिन देश के तथाकथित पूँजीवादी और सत्ताधारी उन लोगों को आज़ादी का सिपाही नहीं मानते, जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई में अपने परिवार तक तबाह कर डाले। ऐसे लोगों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और वन्य जातियों के अलावा घुमंतू जातियों के लोग भी शामिल रहे हैं। यह दुर्भाग्य ही है कि जिन लोगों ने देश की आज़ादी में चुपचाप अंग्रेजों के खिलाफ बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं, खुद के साथ-साथ अपने परिवार, कुनबे की बलि दे दी; लेकिन उन्हीं लोगों की पीढिय़ों को सम्मान तो दूर की बात आज तक जीने का हक भी नहीं मिल सका है। हमारा देश 15 अगस्त, 1947 को आज़ाद ज़रूर हो गया, मगर विमुक्त घुमंतू जातियों के चार करोड़ लोगों आज भी अपने ही वतन में गैर-मुल्कियों जैसा ही जीवन जी रहे हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कई को नौकरियाँ भी मिली हैं, बहुत-से बस्तियों में रहते भी हैं; लेकिन अधिकतर आज भी बेघर ही हैं। हालाँकि केंद्र सरकार ने 31 अगस्त, 1952 को एक कानून बनाकर इन्हें स्वतंत्र घोषित किया था, लेकिन इनमें अधिकतर जातियाँ सामाजिक भेदभाव और तिरस्कार की शिकार हैं। यही वजह है कि अंग्रेजों की आँखों की किरकिरी बनने वाली ये जातियाँ आज भी दर-ब-दर हैं और जंगलों में भटकती हैं। स्वतंत्रता की लड़ाई में क्रान्तिकारियों के संदेशवाहक की भूमिका अगर किसी ने सबसे ज़्यादा निभायी, तो वे भी घुमंतू लोग ही थे। अपनी युद्ध कला, बलिष्ठता, बुद्धि, लड़ाकेपन, आपराधिक बुद्धि और भेष बदलने में माहिर होने का भरपूर उपयोग इस समाज के लोगों ने अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने में किया था। जंगलों में रहने के कारण ये लोग अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आते थे। लेकिन फिर भी इनके कई दलों को अंग्रेजों ने पकड़-पकड़कर मौत की नींद सुला दिया था।
सन् 1857 के बाद से ही इनकी निगरानी के लिए अंग्रेजों ने देश भर में 50 से अधिक अलग बस्तियाँ बना दी थीं, जिनका काम घुमंतुओं की गतिबिधियों पर नज़र रखना होता था। दुर्भाग्य यह है कि आज भी खुद को सभ्य मानने वाले समाज ने इन्हें नहीं अपनाया है। देश के लिए जान देने वाले और अपने नागरिक अधिकारों को खो देने वाले इन लोगों को समाज के लोगों से घृणा और तुच्छता के अलावा कुछ नहीं मिला। हाँ, एक समय में इन्हें भीख की तरह खाने-पीने की चीज़ें ज़रूर मिलती थीं; लेकिन वो भी किसी काम या किसी चीज़ के बदले। हालाँकि अब इन जातियों के कुछ लोग भिक्षावृत्ति में भी उतर गये हैं।
आज विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों की कुल आबादी करीब 12 से 13 करोड़ है। एक अनुमान के मुताबिक, इनमें से 78 फीसदी के पास न तो रहने को घर है और न ज़िन्दगी को सँवारने के अन्य मूलभूत संसाधन, जिनमें शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण अंग है। संविधान के लागू होने के बावजूद आज भी इन्हें सभी नागरिक अधिकार नहीं मिले हैं, जिससे इन्हें दस्तावेज़ बनवाने, बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने और सरकारी नौकरियाँ पाने में बहुत दिक्कतें आती हैं। अलग-अलग राज्यों में इन्हें अलग-अलग जाति-वर्ग में रखा गया है, जिससे कई राज्यों में इन्हें वो फायदे भी नहीं मिल पाते, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को मिलते हैं; जबकि इनका जीवन उनसे भी निम्न स्तर का है।
कला में माहिर और दयालु
कोई व्यक्ति तभी बेघर होता है, जब वह बहुत ईमानदार होता है या काम नहीं करता है या अपना सब कुछ छोड़कर खुद कष्ट सहने के लिए तैयार होता है। कला में माहिर घुमंतू लोग समाज के लिए त्यागी प्रवृत्ति के थे। कहा जाता है कि बाल काढऩे की कंघी, पाँव की महावर और महिलाओं के साज-सज्जा की कई अन्य चीज़ें इन्हीं घुमंतू जातियों की महिलाओं की देन हैं। हालाँकि इन चीज़ों का इतिहास कोई नहीं जानता, लेकिन घुमंतू लोगों का यही कहना है कि यह सब उन्हीं के पूर्वजों की देन है। इसी तरह नृत्य कला को भी ये लोग अपने पूर्वजों की देन मानते हैं। इसके पीछे इनका तर्क यह है कि जब हमारे पूर्वज बस्तियों में रहने वाले लोगों से खान-पान की चीज़ें तभी लेते थे, जब नृत्य करके या कला दिखाकर बस्ती वालों का मनोरंजन करते थे। इसी तरह इनका मानना है कि इन्होंने समाज से कभी भी मुफ्त में कुछ नहीं लिया। यह लोग कुछ-न-कुछ देने के बदले ही किसानों से अनाज या दूसरी वस्तुएँ लेते थे। आज की घुमंतू जातियाँ इस बात को बड़े ही फख्र से कहती हैं कि उनके पूर्वज दयालु प्रवृत्ति के होते थे, जो समाज के लोगों को बड़ी-बड़ी कीमती चीज़ें ऐसे ही दे दिया करते थे। कुछ घुमंतू आल्हा, ऊदल, मलखान और महाराणा प्रताप को अपना पूर्वज मानते हैं। उनका कहना है कि किसी दौर में हमारे पूर्वज राजा थे; लेकिन स्वाभिमान और देश की खातिर अपना राजपाट गँवाकर जंगलों में रहे और उन्हीं की राह पर हम आज भी चल रहे हैं और अपना घर नहीं बसाया। इनका मानना है कि जब हमारे पूर्वज बेघर होकर रहे, तो हमें घर बसाने की क्या ज़रूरत?
आजीविका के लिए करते हैं व्यापार
घुमंतू जातियों को लूटपाट करने वाला, अपराधियों की तरह से सभ्य समाज में देखा जाता रहा है। लोग इन्हें बहुत ही नीचे का मानते हैं और इनके पास आने को भी गुनाह जैसा समझते हैं। लेकिन यह बहुत बड़ी बात है कि इन जातियों की आजीविका व्यापार पर चलती रही है। इन जातियों का काम लोहे के हथियार, हींग, मसाले, जंगली जड़ी-बूटियाँ, गोंद, पालतू जानवर, मोर पंख, फल-फूल आदि बेचना रहा है। इन जातियों के लोग पहले से ही बहुत-सी बहुमूल्य बेचकर अपनी आजीविका चलाने वाले स्वाभिमानी लोग रहे हैं। लेकिन सभ्य कहे जाने वाले समाज ने इन्हें कभी भी अच्छा नहीं माना। आज भी इन्हें जिस दृष्टि से समाज में देखा जाता है, वह इनका अपमान ही कहा जाएगा।
मूल रूप से हैं भारतीय
मानव इतिहास सदियों पुराना है। अगर भारत के इतिहास को गौर से देखें, तो पता चलता है कि किसी दौर में यहाँ राज्य करने वाले लोगों को विदेशी आक्रमणकारियों ने हराकर दर-ब-दर कर दिया या फिर गुलाम बनाया। ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं। जैसे चमड़े का काम करने वाली जाति के लोगों का इतिहास अगर उठाकर देखें, तो पता चलता है कि इस जाति के लोगों के पूर्वज कभी भारत में शासक हुआ करते थे। लेकिन विदेशी ताकतों ने उन्हें युद्ध में हराकर उनसे निम्न स्तर के काम कराये और उन्हें गुलाम बनाकर रखा; ताकि वे निकृष्ट बने रहें। इसी तरह दूसरी अनुसूचित जातियों के पूर्वज भी इस देश के मूल निवासी और अलग-अलग दौर के शासक रहे हैं। घुमंतू जाति के लोगों का कहना है कि उनके पूर्वजों ने विदेशी ताकतों का गुलाम बनने से ज़्यादा बेहतर घरवार छोड़कर खानाबदोश यानी खानाबर्बादी की ज़िन्दगी को चुना और खुद जंगलों में जाकर रहने लगे। यही वजह है कि हम लोग आज भी दर-ब-दर हैं।
किताबों में दर्ज है घुमंतू जातियों की सच्ची दास्ताँ
घुमंतू जातियों की दास्तान किताबों में भी दर्ज है। अफसोस यह है कि इन जातियों पर किताबें तो लिखी गयीं, लेकिन इनके दर्द को समझने की किसी ने कोशिश नहीं की। जाने-माने पूर्व अधिकारी एम. सुब्बाराव खुद एक घुमंतू जाति से आते हैं। उनका कहना है कि घुमंतू जातियों के साथ सबसे बड़ा अन्याय तो यही हुआ है कि उनको संविधान तक में जगह नहीं मिल सकी। एम. सुब्बाराव ने कई जगह घुमंतू जातियों के बारे में काफी कुछ लिखा है। इसके अलावा लक्ष्मण माने ने अपनी किताब ‘बहिष्कृत’ और लक्ष्मण गायकवाड़ ने अपनी किताब ‘उचल्या-उचक्का’, जो कि मराठी में है; में घुमंतू जातियों का दर्द उकेरा है। इसी तरह अन्य कई लेखकों ने भी घुमंतू जातियों की जीवन सम्बन्धी परेशानियों, उनके दर्द को समझा और लिखा है। इन जातियों के लोग जिन राजाओं को अपना पूर्वज बताते हैं, उनके िकस्से-कहानियाँ भी इतिहास में मौज़ूद हैं और उनके राज्यों के उजडऩे की कहानियाँ भी।
घुमंतुओं को नहीं अपनाते धर्मावलंबी
यह भी एक अनोखी और दुर्भाग्यपूर्ण बात ही कही जानी चाहिए कि घुमंतू जाति के लोग तकरीबन हर धर्म में हैं। अनेक घुमंतू खुद को हिन्दू मानते हैं, अनेक खुद को मुस्लिम मानते हैं, अनेक घुमंतु खुद को सिख मानते हैं, तो अनेक बौद्ध और जैन सम्प्रदायों से भी अपने को जोड़ते हैं। लेकिन इन्हें किसी भी धर्म में वह सम्मान, वह अपनापन नहीं मिला, जो एक सामान्य व्यक्ति को भी मिलता है। इससे इस जाति के अनेक लोग काफी दु:खी भी होते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ईसाई धर्म को घुमंतू जाति के लोगों ने कभी नहीं अपनाया, जबकि भारत की अधितकर जातियों और धर्मों के लोगों में से बहुतों ने ईसाई धर्म को अपनाया है। घुमंतू लोगों का कहना है कि भारतीय संस्कृति और धर्म की नींव रखने वाले उनके ही पूर्वज थे और आज उन्हें ही धर्मावलंबी लोग धर्मों में स्थान नहीं देते हैं। प्रकृति की उपासना में विश्वास करने वाले घुमंतू लोग आज भी भारत को अपनी पुण्यभूमि मानते हैं।
अब बेघर नहीं रहना चाहते…
सदियों दर-दर की ठोंकरे खाने वाले घुमंतू लोग अब घर की चाह रखते हैं। कई घुमंतू जातियों ने बस्तियाँ भी बसा ली हैं। कई घुमंतू लोग पढ़-लिखकर देश की सेवा में अपना योगदान भी दे रहे हैं। लेकिन अभी भी इन जातियों की तकरीबन 78 फीसदी आबादी बेघर है। हालाँकि कुछ ने खानाबदोशी को अपना नसीब मान लिया है, लेकिन अब अधिकतर घुमंतू अपना घर बनाना चाहते हैं। कुछ तो सड़कों के किनारे सड़कों, पोखरों के किनारे पन्नी-टीन तानकर बस भी गये हैं। हालाँकि सरकारों ने आज तक इन जातियों को बसाने में कोई खास भूमिका नहीं निभायी है। लेकिन इस वर्ग के लोगों को यकीन है कि उनके दर्द को समझने वाली कोई तो सरकार कभी आयेगी।