जब हमारे किसी प्रतिनिधि को संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलने की जरूरत ही महसूस नहीं होती तो वहां हिंदी को मान्यता दिलाने से क्या होगा?
जोहानिसबर्ग में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में फिर से यह प्रस्ताव पारित हुआ है कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाने की मुहिम आगे बढ़ाई जाए. किसी भी हिंदीभाषी या हिंदी प्रेमी के भीतर यह सहज कामना होनी चाहिए कि उसकी भाषा हर जगह बोली या समझी जाए और उसे हर मंच पर सम्मान मिले. इसलिए विश्व हिंदी सम्मेलन में ऐसे किसी प्रस्ताव पर किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए.
लेकिन क्या संयुक्त राष्ट्र में अभी हिंदी बोलने पर पाबंदी है? वहां अब भी किसी भी भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है, नियम बस इतना है कि उस भाषण का अनुवाद सिर्फ छह मान्यता प्राप्त भाषाओं- चीनी, अंग्रेजी, अरबी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनी- में होगा. 1977 में विदेश मंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था तो उन्होंने कोई नियम नहीं तोड़ा था. लेकिन 1977 से पहले और उसके बाद अब तक क्या किसी दूसरे विदेश मंत्री ने वहां हिंदी या किसी दूसरी भारतीय भाषा में बोलने की जरूरत महसूस की? अगर नहीं तो फिर संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाकर क्या होगा? क्या हम इससे खुश होंगे कि वहां हमारे प्रतिनिधियों के अंग्रेजी भाषणों के हिंदी अनुवाद की व्यवस्था हो गई है?
सच तो यह है कि चंद भावुक या होशियार हिंदीप्रेमियों के अलावा किसी और को संयुक्त राष्ट्र या किसी भी मंच पर हिंदी को मान्यता दिलाने का सवाल नहीं सताता. भाषा हमारे राजनीतिक व्यवहार, सरोकार और एजेंडे से पूरी तरह बाहर हो चुकी है. कभी हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान का इकहरा और बेमानी नारा देने वाले जनसंघ की राजनीतिक वारिस भारतीय जनता पार्टी को अब उस नारे की व्यर्थता खूब समझ में आती है-इसलिए नहीं कि उसने अपनी भाषा नीति पर कोई विशेष चिंतन किया है, बल्कि इसलिए कि भाषा और वोट के बीच बढ़ती दूरी देखते हुए वह भाषा के सवाल में अपनी दिलचस्पी खो बैठी है.
एक दौर में डॉ राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी राजनीति ने जरूर भारतीय भाषाओं का सवाल उठाया, लेकिन वह धारा भी न जाने कब की तिरोहित हो चुकी है. उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जरूर हिंदी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी के राजनीतिक एजेंडे में भाषा का सवाल किस हाशिये पर है, किसी को नहीं मालूम. जबकि कांग्रेस ने कभी विचारधारा वाला दल होने का दावा नहीं किया. वह हमेशा से अलग-अलग शक्तियों का एक उलझा हुआ संतुलन साधती रही जिसने सुविधापूर्वक खुद को भाषा के सवाल से अलग रखा और अंग्रेजी की छतरी ताने रखी.
दरअसल सच्चाई यह है कि आज के भारत का राजनीतिक प्रतिष्ठान- चाहे वह ममता या वाम मोर्चे द्वारा शासित पश्चिम बंगाल हो या द्रमुक या अन्ना द्रमुक द्वारा शासित तमिलनाडु या कांग्रेस-राकांपा या शिवसेना-बीजेपी द्वारा शासित महाराष्ट्र- वैश्विक अंग्रेजी के आगे पूरी तरह घुटने टेक चुका है. हमारी राजनीति इतनी सतही और भोथरी हो चुकी है कि वह बस बिल्कुल तह पर चल रही प्रक्रियाएं देख पाती है और उसी के ढंग से अपनी प्रतिक्रियाएं तय कर पाती है. यह बात उसे कतई समझ में नहीं आती कि देशों के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में भाषाओं की अहम भूमिका होती है. भाषाएं राष्ट्र का मानस गढ़ती हैं.
या अगर यह बात समझ में आती भी हो तो एक तरह की आम सहमति इस पर बनी हुई है कि अब अंग्रेजी ही इस मुल्क का दिमाग तैयार करेगी. तमाम राज्यों में जिस तरह अंग्रेजी पढ़ने पर जोर दिया जा रहा है, जिस तरह भाषाई माध्यमों के स्कूलों की अनदेखी करके अंग्रेजी माध्यमों के स्कूलों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिस तरह हमारे पूरे मध्यवर्गीय समाज में अंग्रेजी की जरूरत बिल्कुल मानसिक स्तर पर रोप दी गई है, उसे देखते हुए यह साफ है कि भारतीय भाषाओं की लड़ाई कहीं पीछे छूट चुकी है अंग्रेजी इस देश के शासक वर्ग की नई भाषा है.
काश कि इस देश में कोई एक राजनीतिक दल होता जो भारतीय भाषाओं में रोटी और रोजगार मुहैया कराने का आंदोलन छेड़ता. लेकिन आज के भारत में ऐसे आंदोलन की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं? सच तो यह है कि इस ग्लोबल दुनिया में जैसे हमने मान लिया है कि हमारा विकास अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों-संस्थाओं और भाषाओं की मार्फत ही हो सकता है. हमें अपनी आर्थिक खुशहाली के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी चाहिए, अपने मनोरंजन के लिए हॉलीवुड की फिल्में चाहिए, अपनी समझ के लिए बाहर से आई किताबें चाहिए और ज्ञान व संवेदना के इन सारे स्रोतों तक पहुंचने के लिए भाषा के तौर पर अंग्रेजी चाहिए. अंग्रेजी की इस विराट अपरिहार्यता के आगे हिंदी की जरूरत किसे है और कितनी है?
बेशक, जरूरत है और बहुत सारे लोगों को है. सवा अरब के भारत में एक अरब से ज्यादा लोग अब भी भारतीय भाषाओं के सहारे अपना जीवनयापन कर रहे हैं, लेकिन उनके जीवन, उनकी संस्कृति, उनके समाज के साथ वही सलूक हो रहा है जो उनकी भाषाओं के साथ हो रहा है- दोनों मर्मांतक उपेक्षा के शिकार हैं. उनके सामने चुनौती है कि वे या तो बदल जाएं या फिर विलुप्त हो जाएं. बाकी 20-25 करोड़ की आबादी या तो अंग्रेजी के साथ चल रही है या फिर उससे गठजोड़ करके काम चला रही है.
दुनिया भर में घूम कर हिंदी सम्मेलन करने वाले और संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की मान्यता का प्रस्ताव पास करने वाले या तो इस चुनौती से बेखबर हैं या उन्होंने इससे आंखें मूंद रखी हैं. वरना वे संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाने की मुहिम चलाने से पहले निजी स्कूलों और सामाजिक जीवन के दूसरे व्यवहारों में हिंदी को मान्यता दिलाने का आंदोलन चलाते. और याद रखते कि ऐसा आंदोलन अकेले हिंदी का नहीं हो सकता, इसे सभी भारतीय भाषाओं के साथ मिलकर ही चलाया जा सकता है.