क्या भारत में क्रांति संभव है? अपने अनशन और आंदोलन से देश भर का ध्यान खींचने वाले अण्णा हजारे और उनके साथी अपनी लड़ाई के दौरान अण्णा को इंडिया बताते रहे, अपने आंदोलन को दूसरी आजादी की लड़ाई घोषित करते रहे, लेकिन शायद ही इनमें से कभी किसी ने कहा हो कि वे क्रांति कर रहे हैं. क्या सिर्फ इसलिए कि क्रांति शब्द से जिस हिंसक और रक्तपाती किस्म के सत्ता-परिवर्तन या व्यवस्था-परिवर्तन की बू आती है वह इन आंदोलनकारियों का अभीष्ट नहीं था? सच तो यह है कि सत्ता या व्यवस्था परिवर्तन इस आंदोलन के लक्ष्य में कभी शामिल नहीं दिखा, और शायद इसलिए आंदोलन की तमाम गर्मी और इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले ढेर सारे शब्दाडंबरों (रेटरिक) के बावजूद क्रांति का शब्दाडंबर सबसे कम सुनने को मिला. जब अण्णा के आंदोलन जैसे तथाकथित बड़े और गतिशील सामाजिक आंदोलन से क्रांति नहीं सध रही तो दूसरा कौन-सा आंदोलन होगा जो क्रांति कर सके या इसका दम भर सके?
हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और जनविरोधी साबित हुई हैं
अण्णा के आंदोलन को छोड़ दें. इस देश में और भी जमातें हैं जो खुद को क्रांतिकारी मानती हैं. पिछले कुछ वर्षों में आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक करीब नौ-दस राज्यों में फैला हिंसक माओवादी आंदोलन मूलतः क्रांति के सपने और लक्ष्य को ही समर्पित है. सरकारें इसे लाल गलियारा बताती हैं और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम इस क्रांतिकारी उभार को देश के सामने खड़ा सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. निश्चय ही यह माओवादी आंदोलन की- उनके लक्ष्यों के हिसाब से- एक बड़ी सफलता है.
लेकिन क्या माओवादी इस देश में वाकई कोई क्रांति कर पाएंगे? इसकी संभावना कम लगती है. इसकी कई वजहें हैं. सबसे बड़ी वजह यही है कि जो हिंसक लड़ाई वे लड़ रहे हैं उसमें राज्य के आगे वे टिक नहीं पाएंगे. उल्टे, माओवादियों की हिंसा राज्य की पहले से चली आ रही हिंसा को ही तर्क देगी. राज्य के पास जो सैन्य शक्ति और मशीनरी है वह माओवादियों के मुकाबले इतनी ज्यादा विराट है कि दोनों के बीच किसी वास्तविक युद्ध की स्थिति में माओवादियों को हर हाल में परास्त होना होगा. अगर वे क्रांति के पुराने नियमों और खयालों के हिसाब से सोचते हैं कि एक दिन सेना और न्यायालय सहित देश की बहुसंख्यक आबादी उनके साथ आ खड़ी होगी और वे राज्य की मशीनरी को भी अपने पक्ष में मोड़कर सत्ता पर कब्जा कर लेंगे और पूरी व्यवस्था बदल डालेंगे, तो यह भी एक खामखयाली है. क्योंकि अपनी सारी दुर्बलताओं और अपने सारे दुर्गुणों के बावजूद भारत के संसदीय लोकतंत्र की घुसपैठ बहुत गहरी है जिसे सारे मोहभंग के बावजूद खत्म और खारिज करना आसान नहीं है.
दूसरी वजह यह है कि जिस हिंसक क्रांति का रास्ता माओवादी अपना रहे हैं, विचारधारात्मक स्तर पर उसकी कई विसंगतियां अब कहीं ज्यादा उजागर हैं. दुनिया भर का अनुभव बताता है कि हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और एक हद तक जनविरोधी भी साबित हुई हैं. ऐसी विचारधाराएं बाजारवाद से भी सांठ-गांठ करने से हिचकती नहीं रही हैं. पूर्वी यूरोप से लेकर चीन तक का यह अनुभव इतना तीखा और ताजा है कि माओवादी आंदोलन को सहानुभूति के साथ देखने वाले लोग भी उसकी परिणतियों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं. वे ऐसी जनक्रांति के मुकाबले संसदीय लोकतंत्र को ही तरजीह देंगे, इसमें शक नहीं.
फिलहाल माओवाद हमारे देश में प्रतिरोध का एक आंदोलन भर है. वह दलितों, आदिवासियों और गांव-देहात में रहने वाले लोगों के क्रूर शोषण और दमन का, उनके साथ हो रहे औपनिवेशिक व्यवहार का- कई लोगों की निगाह में- एक जायज प्रतिरोध है जिसमें हिंसा भी स्वाभाविक है क्योंकि वह राज्य की हिंसा के प्रत्युत्तर से उपजी है. दूसरी बात यह कि माओवादी आंदोलन की वजह से अचानक दूरदराज के गांवों और देहातों के शोषण पर, उनके संसाधनों की लूट पर सबकी नजर पड़ी है. यह आंदोलन न होता तो वाकई इस देश की मुख्यधारा की राजनीति ने सारे जंगलों, पहाड़ों, बेशकीमती खनिजों और सारी नदियों को बाजार के हाथ औने-पौने में बेच दिया होता. इस अर्थ में माओवादी जंगल के दावेदार ही नहीं, पहरेदार भी हैं.
संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है
लेकिन माओवाद की उस उपयोगी भूमिका के आगे का सफर कोई वैचारिक रोशनी या भरोसा नहीं दिलाता. वह एक असंभव क्रांति का आक्रोश भरा आह्वान भर लगता है जिसकी उम्र सीमित है, या जो समय-समय पर फूटता रहेगा और राज्य जिसे अपनी ताकत से पचाता रहेगा. फिर क्या क्रांति का कोई तीसरा रास्ता है? ऐसा रास्ता जो इस पूरी सड़ी-गली व्यवस्था को बदल डाले और समता और न्याय का एक अंतिम राज्य स्थापित करे? अतीत में देखें तो ऐसी उम्मीद आखिरी बार जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वान ने जगाई थी. तब आजाद भारत ने केंद्रीय स्तर पर अपना पहला सत्ता परिवर्तन देखा था. लेकिन वह संपूर्ण क्रांति भी संसदीय राजनीति के दलदल में धंस कर ढाई साल में दम तोड़ गई. जाहिर है, इसलिए कि उस क्रांति ने सत्ता बदलने की ऊर्जा तो पैदा की, व्यवस्था बदलने की कोई दृष्टि नहीं दी.
यानी क्रांति के नाम पर शुरू होने वाली किसी भी लड़ाई का पहला फर्ज और लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह आने वाले दिनों के लिए व्यवस्था बदलने का खाका तैयार करे. लेकिन फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई इस देश की जनता अपनी संसदीय राजनीति से इस कदर ऊबी हुई या आक्रांत है कि वह इसे बदल डालने के किसी प्रस्ताव के पक्ष में खड़ी हो जाएगी. फिलहाल ऐसा लगता नहीं क्योंकि इस राजनीति को इसकी दुर्बलताओं के लिए पानी पी-पीकर कोसने वाला लगातार मोटा होता मध्यवर्ग ऐसी ही व्यवस्था में खुद को बचाए रख सकता है. सच तो यह है कि वह इसे बदलना नहीं चाहता, बस इसके कुछ दुर्गुण दूर करना चाहता है- बिना यह समझे कि इसके ज्यादातर दुर्गुणों का जिम्मेदार वही है.
दूसरी बात यह कि इस संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है. इस लिहाज से भारतीय लोकतंत्र कहीं ज्यादा क्रांतिकारी साबित हुआ है कि उसने सदियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को एक स्तर पर उलट-पुलट डाला है और सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंपी है जो अब तक निचले पायदान पर रहे हैं. बराबरी और इंसाफ की लड़ाइयां निश्चय ही बाकी हैं, लेकिन वे लड़ी जा रही हैं. तो क्या यह मान लें कि इस देश को किसी बदलाव की, किसी क्रांति की जरूरत नहीं है? जो जैसा है, वैसा ही चलता रहेगा और इसी से हम संतुष्ट हो लें? जाहिर है, यह भी विकल्प नहीं हो सकता. फिर रास्ता कहां से निकलता है?
इस रास्ते के लिए हमें किसी वैचारिक क्रांति के विराट राजमार्ग की जगह उन छोटी-छोटी पगडंडियों की तरफ देखना होगा जहां बदलाव की बहुत सारी कोशिशें चल रही हैं. अपने-अपने ढंग से प्रतिरोध की बहुत सारी आवाजें हैं जो मौजूदा व्यवस्था को आईना और अंगूठा दिखा रही हैं और क्रांति की अपनी तहरीर लिख रही हैं. कहीं नर्मदा के लिए लड़ती मेधा पाटकर है, कहीं फौजी दमन के विरुद्ध उपवास कर रही शर्मिला इरोम है, कहीं बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ खड़े आदिवासी हैं और कहीं अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध करते दलित हैं. कहीं बिल्डरों को जमीन न देने को तैयार किसान हैं तो कहीं सेज, यानी विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ वोट कर रही पंचायतें हैं. निश्चय ही इनमें से बहुत सारी आवाजें अनसुनी रह जा रही हैं, बहुत सारे प्रतिरोधों को राज्य निर्ममता से कुचल रहा है, बहुत सारे लोग अकेले पड़ जा रहे हैं. लेकिन प्रतिरोध की ये साझा आवाज़े अंततः बहरे कानों को सुनाई पड़ रही हैं. धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं.
कोई चाहे तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उद्धृत करते हुए याद दिला सकता है कि ‘धीरे-धीरे/ कुछ नहीं होता/ सिर्फ मौत होती है’, लेकिन जो तेजी से होता है वह भी मानवीय नहीं होता, इसके सबूत अब बहुतेरे हैं. दरअसल एक मानवीय लड़ाई बहुत धीरज की मांग करती है. ऐसी लड़ाई में भारी-भरकम शब्द भारी-भरकम हथियारों जितने ही खतरनाक होते हैं, उतनी ही हिंसा पैदा करते हैं. यह अंधेरे समय में अलग-अलग कोनों में सुलगने वाली फुसफुसाहटों की तीलियां हैं जो बदलाव की इच्छा भी कायम रखती हैं और उसके प्रति भरोसा भी. ऐसी मद्धिम आवाजें डराती नहीं, उनसे चौंक कर बचने की इच्छा नहीं होती, बल्कि उनके करीब जाने का, उन्हें ध्यान से सुनने का मन होता है.
निश्चय ही राज्य इन फुसफुसाहटों के मुकाबले एक अट्टाहास जैसा होता है जो लगभग अभेद्य और अजेय लगता है. लेकिन जनक्रांतियों का आंदोलन यह भी बताता है कि खामोश प्रतिरोधों के आगे कई बार ऐसे अट्टाहासी अहंकार धूल में मिल गए हैं.
मार्क्सवाद बताता है कि क्रांति के लिए क्रांति लायक परिस्थितियां चाहिए. भारत में निश्चय ही एक स्तर पर वे परिस्थितियां हैं- भूख, बेरोजगारी, खुदकुशी, असुरक्षा, सामाजिक टूटन- यह सब-कुछ जैसे बड़े होते जा रहे हैं. लेकिन इसी के साथ-साथ तरह-तरह के प्रतिरोध भी बड़े होते जा रहे हैं. हमें प्रतिरोध की इन कातर और कमजोर आवाजों को ध्यान से सुनना चाहिए. वे किसी फ्लडलाइट की तरह एक जगमग और सुनहरे अक्षरों में लिखी जाने वाली क्रांति भले न करें, लेकिन बेहतर जिंदगी और व्यवस्था के कहीं ज्यादा वैध संघर्ष के छोटे-छोटे दीयों के रूप में हमारा-आपका जीवन बदल सकती हैं. दरअसल ऐसी ही आवाजें उस क्रांति का भरोसा जगाती हैं जो भारतीय परिस्थितियों में फिलहाल बिल्कुल असंभव जान पड़ती है.