बच्चों के लेखकों की मुसीबत यह है कि वे आज के बच्चे को अपने समय के बच्चे की नजर से देखते हैं. जबकि हमारा सामना आज के स्पीड युग के बच्चे से है. हालांकि इस बच्चे को देखकर ट्रैफिक पुलिस का वह नारा याद आता है-स्पीड थ्रिल्स बट किल्स. हम लोग जो बच्चों के लिए लिखते हैं, अक्सर अपने पैमाने पर ही बच्चों को खरा उतारना चाहते हैं. जो हमें पसंद था या है वही बच्चों को पसंद आना चाहिए. एक तरफ बच्चों की आजादी की वकालत की जाती है तो दूसरी ओर हम बड़े उन पर अपनी ही सोच को लागू करना चाहते हैं. हमारे यहां शायद ही कोई बच्चों से पूछता हो कि वे क्या पढ़ना चाहते हैं? उनकी पसंद क्या है. बल्कि उन पर अपनी ही धारणाएं लाद दी जाती हैं कि बच्चे यह पढ़ना चाहते हैं वह पढ़ना चाहते हैं.
विज्ञान और उससे उपजी तकनीक बच्चों को अपनी उम्र से पहले बड़ा कर रही है. उनकी दुनिया में कई नई चीजें दाखिल हो चुकी हैं. तकनीक या टेक्नोलॉजी दुधारी तलवार की तरह है. बच्चे कितना जानें और किस प्रकार जानें? आज के दौर पर इस तरह की रोक भी संभव नहीं दिखती कि बच्चे किसी के कहने से मान जाएंगे कि यह देखो यह मत देखो, यह पढ़ो वह मत पढ़ो. टेक्नोलॉजी के बारे में जब बात होती है तो दो तरह के विचार सामने आते हैं. एक विचार कहता है कि टेक्नोलॉजी और आज का जमाना बच्चों को बिगाड़ रहा है. जब भी कोई बदलाव होता है एेसे विचार अक्सर सामने आते हैं. टीवी से लेकर कंप्यूटर तक के आने पर संस्कृति के नाश की बातें की जाती रही हैं. दूसरा विचार कहता है कि टेक्नोलॉजी के बिना जीवन नहीं है. आखिर आज किसी को कंप्यूटर, नेट या मोबाइल से कब तक दूर रखा जा सकता है. वैसे भी बच्चों को किसी बात के लिए मना नहीं करना चाहिए. एक बहस के दौरान चर्चित विज्ञापन निर्माता अलीक पदमसी ने कहा कि पश्चिम में आठ साल तक के बच्चे पोर्न मैगजीन और साइटें देखते हैं और इसका कोई बुरा भी नहीं मानता. हम जैसे लोगों के सामने सवाल ही यही है कि बच्चों को दोनों तरह की अतियों से कैसे बचाया जाए.
पिछले दिनों केरल की खबर छपी थी कि वहां 80 प्रतिशत लोगों के पास मोबाइल है. इनमें बच्चों के पास भी बड़ी संख्या में मोबाइल हैं और इन दिनों बच्चों में वहां एडल्ट साइटें बहुत लोकप्रिय हो रही हैं. नेट सर्फिंग के बारे में भी एेसी ही खबरें हैं. भारत में फेसबुक के सबसे ज्यादा उपयोगकर्ता बच्चे ही हैं. लेकिन क्या कच्ची उम्र में पोर्न साइटें देखना और सैक्सुअली एक्टिव होना अच्छी बात है? यूरोप में एक जमाने में टीन एज प्रेगनेंसी की जो समस्या रही है वह हमारे यहां भी बढ़ती जा रही है. यहां तक कि बच्चे सेक्स संबंधी अपराधों में लिप्त हो रहे हैं. नौ-नौ साल के बच्चों के रेप जैसे संगीन अपराध में लिप्त होने की खबरें आ रही हैं. पश्चिम में तो ऐसे भी उदाहरण हैं कि 12-12 साल के बच्चे बाप बन रहे हैं और उनके माता-पिता मीडिया के सामने उन्हें पेश करके पैसे बना रहे हैं. साफ है कि बच्चे अपनी उम्र से ज्यादा बड़े हो रहे हैं और चिंता की बात यह है कि इससे उपजने वाली समस्याओं का कहीं कोई समाधान दिखाई नहीं देता. बच्चों को ध्यान में रखकर कुछ अच्छे सर्वे भी नहीं किए जाते.
हाल ही में एक साथी ने अपने बच्चे का जन्मदिन मनाया. जन्म दिन पर उन्होंने अपने साथियों से पूछा कि रिटर्न गिफ्ट के रूप में क्या दिया जाए. चूंकि साथी पढ़ने-लिखने से ताल्लुक रखते थे इसलिए सोचा गया कि किताबें खरीदी जाएं. उन्होंने बच्चे के दोस्तों के लिए एक से बढ़कर एक रंग-बिरंगी सुंदर अंग्रेजी-हिंदी की किताबें खरीदीं. जब बच्चों को रिटर्न गिफ्ट दिया गया और उन्होंने उसे खोलकर देखा तो वे बहुत नाराज हुए. गिफ्ट के रूप में उन्हें किताबें कतई पसंद नहीं आईं. जिन बच्चों को हिंदी की किताबें दी गई थीं, वे और ज्यादा नाराज हुए.
अब सवाल यह है कि आखिर उनके ही लिए लिखी गई किताबों को बच्चे बोझ की तरह क्यों देख रहे हैं. इसका कारण कई बार यह भी लगता है कि लेखकों और बाल पाठकों के बीच में एक दूरी है जो बढ़ती ही जा रही है. बच्चों के लिए जानकारी और मनोरंजन दोनों जरूरी हैं. मनोरंजन पर जानकारी हावी होगी तो सम्भवत: कोई बच्चा एेेसी कहानियां या कविताएं नहीं पढ़ना चाहेगा. जानकारी के लिए तो आजकल उनके पास बहुत से माध्यम उपलब्ध हैं. शायद यही कारण है कि कब-क्यों-कहां-किसलिए से भरी फैंटेसीज उन्हें पसंद आती हैं.
बहुत से लोग समझते हैं कि फैंटेसी लिखना बहुत आसान है और उसमें कोई तर्क नहीं होता जबकि फैंटेसी लिखना, एेसी कथा कहना जिसमें बच्चों का कुतूहल और जिज्ञासा जग सके एक कठिन काम है. इसीलिए अक्सर लोग कहानी लिखने का एक आसान सा रास्ता अपनाते हैं. सरकार के जो नारे चल रहे होते हैं वे उन पर कहानियां कविताएं लिखते हैं. एेसी कहानियां हमें हजारों की संख्या में मिलती हैं जो बेहद अपठनीय होती हैं. इन दिनों पर्यावरण और ‘जेंडर सेंसिटाइजेशन’ पर लिखने वालों की भरमार है. ये कहानियां इतनी उबाऊ होती हैं कि इनके शुरुआती वाक्य पढ़ने के बाद सहज ही समझ में आ जाता है कि आगे क्या होगा. यों बच्चों के लिए इन दिनों बहुत ही सुंदर और कम दाम की किताबें भी छपती हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, प्रथम बुक्स, यात्रा बुक्स, एए बुक्स, सीबीटी आदि न जाने कितने प्रकाशक हैं जो बहुत अच्छी किताबें छापते हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि बाल पाठकों की घटती संख्या से सब परेशान हैं.
बहुत-से लोग सभा-सेमिनारों में सवाल उठाते रहते हैं कि आखिर भारत में आज तक कोई हैरी पॉटर जैसी किताब क्यों नहीं छप सकी. इसे यदि भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो हैरी पॉटर की जैसी मार्केटिंग की गई, क्या आज तक हमारे यहां बच्चों की तो छोडि़ए बड़ों की किसी किताब के लिए इतने योजनाबद्ध तरीके से मार्केटिंग की गई है? शुरुआती दौर में हैरी पॉटर की सफलता के लिए बुक स्टोरों को पांच हजार पार्टियां दी गई थीं. मीडिया को कैसे साधा गया था यह भी सबको पता है.
आज हमारे यहां टेक्नोलॉजी को बच्चों के लिए सफलता का मूल मंत्र बताया जा रहा है और उसे सब समस्याओं के निदान का अचूक नुस्खा करार दिया जा रहा है. सारी पार्टियां चुनाव जीतने के रामबाण नुस्खे की तरह बच्चों को लैपटॉप देने की बात करती हैं और लैपटॉप बनाने वाली कंपनियांं उन राज्यों की राजधानियों में डेरा डाल लेती हैं. अगर इस बात को हैरी पॉटर पर लागू करें तो एेसा लगता है कि पश्चिम का बच्चा आधुनिक खिलौनों यानी गिजमोज की अधिकता से ऊब गया था इसीलिए उसने टोने-टोटके और चमत्कार से भरे हैरी पॉटर को चुना. हमारे यहां के गणेश, शिव, काली, हनुमान, कृष्ण जैसे पौराणिक चरित्र पश्चिम में बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं. अमीश त्रिपाठी की शिव पर लिखी किताब को पांच करोड़ रु का कान्ट्रेक्ट मिलना और एक अन्य लेखक की रावण पर लिखी किताब असुर की लोकप्रियता भी इसे साबित करती है. नंदन पत्रिका भी जब प्राचीन कथा विशेषांक निकालती है तो न केवल बच्चे बल्कि अध्यापक और माता-पिता भी इसे बहुत पसंद करते हैं. यही नहीं, बहुत से लोग कहते हैं कि दादी-नानियां बच्चों को बहुत अच्छी कहानियां सुनाती थीं. बच्चों को नित नई कल्पना की राह पर ले जाने के लिए वे अपने बचपन में गोते लगाती थीं.
पर संयुक्त परिवारों के जमाने की विदाई के चलते आज दादी-नानी बच्चों के पास नहीं होतीं और होती भी हैं तो न उन्हें कहानी सुनाने की फुरसत है और न बच्चों को सुनने की. आज के दौर की दादी-नानी को तो टीवी सीरियल देखने और उनमें दिखती महिलाओं के कपड़े, आई ब्रो, बाल, चूड़ियां, साड़ियां, लो कट ब्लाउज या षडयंत्रकारी ढंगों को देखने से ही फुरसत नहीं है. और एेसा सिर्फ महानगरों में ही नहीं, कस्बों और गांवों तक में हो रहा है.
संचार के तमाम माध्यमों का इस्तेमाल करके विज्ञापन उद्योग ने बच्चों की दुनिया के तीन मंत्र तय कर दिए हैं-मनी, मोबाइल और मॉल. मनी यानी पैसे के जरिए ब्रांड आते हैं. विज्ञापन बताते हैं कि यदि कोई बच्चा ब्रांड नहीं पहनता है या महंगा मोबाइल इस्तेमाल नहीं करता है, या वीकेंड पर मॉल में नहीं जाता तो वह दोयम-तीयम नहीं जेड ग्रेड का नागरिक है. जिन माता-पिता या गुरुओं पर उन्हें इस हमले से बचाने की जिम्मेदारी है, उनमें से ज्यादातर खुद इसकी गिरफ्त में हैं. बाजार से पैदा हुई आकांक्षाओं के दबाव में बच्चे कहीं अपराध करते दिख रहे हैं तो कहीं अवसाद यानी डिप्रेशन का शिकार होकर आत्महत्या तक करते.
बच्चे जो कुछ देख-सुन रहे हैं उसका उनके दिमाग पर गहरा असर पड़ता है. दिल्ली में जब बम ब्लास्ट हुआ था तो यह लेखिका नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में गई थी. वहां बच्चों से जब कहानी लिखने को कहा गया तो चाहे बच्चे ने चिड़िया पर कहानी लिखी या फूलों पर या स्कूल पर या फिर अपने घर पर, उसका अंत बम ब्लास्ट पर हुआ था.
इस लिहाज से देखें तो आज बच्चों के लिए लिखने वाले हमारे वर्ग के लिए बहुत चुनौती भरा समय है. हम लेखक हैं इसलिए बच्चों के गुरु हो सकते हैं या हम जो लिखेंगे बच्चा बिना सवाल पूछे उसे जस का तस स्वीकार कर लेगा, ऐसा नहीं है. चुनौती तो यही है कि इस नए बच्चे तक हम कैसे पहुंचें. अति सूचना और ज्ञान ने बच्चों की निश्छलता खत्म कर दी है. क्या हम ऐसी कहानियां-कविताएं लिख सकते हैं जो इन बच्चों की निश्छलता वापस ला सकें?