कैसा हो बजट?

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार के समय जब संघीय बजट पेश होता था तो सोच यह होती थी कि यह सरकार की नीतियों के एलान का अवसर बने. आज इसकी भूमिका हिसाब-किताब की प्रक्रिया तक सिमट चुकी हैं. इतिहास टटोलें तो पता चलता है कि कई साल तक बजट में विकास के लिए नई संस्थाएं स्थापित करने और देश को नीतिगत दिशा देने की भावना प्रधान रही. आज भारत अपने 82वें सालाना बजट का इंतजार कर रहा है. सवाल उठता है कि विवादित और अहम नीतियों के एक बड़े हिस्से का निर्माण जब बजट के बाहर है तो अर्थव्यवस्था के लिहाज से इस दस्तावेज की कितनी प्रासंगिकता बचती है. जिस तरह से यह अभी बन रहा है, उसमें केंद्र के लिए चिंता की कुछ ही अहम चीजें बचती हैं मसलन वित्तीय घाटा. इसके इतर ज्यादातर आर्थिक फैसले अक्सर राज्यों के स्तर पर लिए जाते हैं और आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए यही वास्तविक महत्व के बिंदु हैं. 

भले ही बजट नीति संबंधी दस्तावेज न हो, मगर फिर भी इससे पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता कि यह अर्थव्यवस्था को एक दिशा देता है. शायद हम लोगों की यह आदत हो गई है कि हम बजट की सफलता इसी बात से आंकने लगते हैं कि टैक्स घटा या बढ़ा. लेकिन क्या बजट का निहितार्थ इतना ही है? क्या बजट का मतलब सिर्फ यही है कि कंपनियों को इससे क्या फायदा या नुकसान होगा? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अगर सामाजिक क्षेत्र में होने वाले खर्च की सही तरह से योजना बनाई जाए तो क्या यह अर्थव्यवस्था के जख्म भर सकता है.

यूनीलीवर के पूर्व अध्यक्ष विंदी बंगा कहते हैं, ‘ज्यादातर ग्लोबल निवेशकों की दिलचस्पी प्रशासन, राजनीतिक स्थितियों और संस्थाओं में होती है. लंबे समय तक आर्थिक मोर्चे पर अच्छे प्रदर्शन की बात करें तो ये तीनों कारक इससे मजबूती से जुड़े होते हैं. कुछ निवेशकों के सरोकार पर्यावरण संबंधी मुद्दे भी होते हैं.’

सबसे पहले कृषि क्षेत्र की बात करते हैं जिसमें विकास की स्थिति शोचनीय है और अनगिनत किसानों ने बीते कुछ समय के दौरान आत्महत्या की है. जो अब भी जिंदगी से लड़ रहे हैं, उनका एक अच्छा-खासा हिस्सा अकुशल श्रम की तरफ मुड़ रहा है और इस तरह शहरी गरीबों की आबादी में और बढ़ोतरी कर रहा है. पिछले साल के बजट ने इस क्षेत्र में नया निवेश लाने की कोशिश की थी, लेकिन खेती में नई जान फूंकने की यह कोशिश बहुत देर से हुई. दरअसल हमें खेती को बदलने के लिए एक क्रांति की जरूरत है. क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डीके जोशी कहते हैं, ‘सुधारों की प्रक्रिया ने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की है. बढ़ती महंगाई बता रही है कि यह क्षेत्र अपनी क्षमता के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर रहा. बजट दर बजट इसके हल के लिए सिर्फ छोटे कदम ही उठाए गए. हमें हरित क्रांति जैसे किसी बदलाव की जरूरत है.’

‘ बजट में पैसा देने का कोई लाभ नहीं यदि योजनाओं को जमीन पर उतारने वाली संस्थाएं ठीक से काम न कर रही हों’

अब आधारभूत ढांचे की बात. यह क्षेत्र भी भयानक संकट का सामना कर रहा है. सड़क, बिजली, पानी का बुरा हाल है. निजी क्षेत्र निवेश करे, इसके लिए प्रोत्साहन उपायों की कमी है. काम नौकरशाही की जटिलताओं के जाल में फंसे हैं. कई बार पैसा आता है और बिना इस्तेमाल हुए ही वापस चला जाता है. चाहे वह सड़क बनाने वाला लोकनिर्माण विभाग हो या अलग-अलग राज्यों के बिजली और जल बोर्ड, सभी प्रक्रियाओं की जटिलता में फंसे हैं. ये सभी संस्थाएं बुनियादी सुविधाओं को विकसित करने के लिए बनाई गई थीं, लेकिन इनका अच्छा प्रदर्शन सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है. फीडबैक इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विनायक चटर्जी कहते हैं, ‘आप पानी को पाइप से अलग करके नहीं देख सकते. बजट आवंटित करने का कोई मतलब नहीं है अगर योजनाओं को जमीन पर उतारने वाली संस्थाएं ठीक से काम न कर रही हों.’ उनका मानना है कि व्यवस्था को ठीक किए बिना यह संसाधनों की बर्बादी ही है. साफ है कि सिर्फ अच्छी नीयत से किसी काम के लिए पैसा आवंटित कर देने से बात नहीं बनने वाली. और बात सिर्फ सड़क, बिजली और पानी की नहीं है. स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे उन क्षेत्रों पर भी यह बात उतनी ही शिद्दत से लागू होती है जिन्हें किसी देश का भविष्य बदलने वाली शक्तियों के तौर पर देखा जाता है. अगर भारत को अपनी एक बड़ी नौजवान आबादी का फायदा उठाना है तो स्वास्थ्य और शिक्षा को सुधारे बिना बात नहीं बनने वाली. लेकिन अर्थव्यवस्था की गति को सुस्त कर रहे ये असल मुद्दे बजट से बाहर के हैं.

पर्यावरण में बदलाव संबंधी मुद्दों से जुड़े कुछ कार्यक्रम सही दिशा में एक कदम हो सकते हैं. चुनौती यह है कि पर्यावरण भी लंबे समय तक ठीक रहे और उद्योग भी ऐसे मानकों के दायरे में चलें जिनसे विकास समान और संतुलित हो. पर्यावरण को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच के वे मुद्दे जो अक्सर उद्योग की गाड़ी पटरी से उतार देते हैं, उनका हल अभी होना बाकी है. हालांकि पर्यावरण और वन मंत्रालय की कमान संभाल रही जयंती नटराजन ने कुछ समय पहले कहा था कि उनका मंत्रालय विकास की राह का रोड़ा नहीं रहा है, लेकिन यह भी सच है कि इस दिशा में स्पष्ट नीति का अभाव है. इससे न सिर्फ पर्यावरण और उन लोगों के अधिकारों पर खतरा है जो विकास के लिए अपनी जमीन देते हैं बल्कि यह उद्योग जगत को भी मोहभंग की स्थिति में ले जा रहा है.

बजट अगर अपने अस्तित्व से जुड़े सवालों का सामना कर रहा है तो इसका एक कारण यह भी है कि वे नीतियां और कारक जो बजट की सीमा से बाहर हैं, लगातार अहम होते गए हैं. एचडीएफसी बैंक से जुड़े अर्थशास्त्री अभीक बरुआ कहते हैं, ‘भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दे जिनमें नियामक प्रक्रियाएं और निवेश के मानक शामिल होते हैं, उन पर अब ज्यादा जोर है.’

पिछले कुछ सालों के दौरान बजट उस मकसद से बहुत दूर होता गया है जो नेहरू ने इसके लिए सोचा था. अगर आप आंकड़ों के संदर्भ में भी देखें तो इसका ज्यादातर हिस्सा तनख्वाहों, पेंशनों, सरकार पर चढ़े कर्ज और इसके ब्याज की अदायगी से बनता है. इसके चलते सरकार के लिए बाकी बचे पैसे को कुशलता से खर्च करने की गुंजाइश काफी कम हो जाती है.  वित्तीय घाटा पहले ही सकल घरेलू उत्पाद के 5.9 फीसदी के करीब पहुंच गया है. इसमें अगर राज्यों और बैलेंसशीट से बाहर के आंकड़े जोड़ दें तो घाटे का यह आंकड़ा नौ फीसदी को छू सकता है. अगर टैक्स बढ़ाए न गए, सब्सिडियां घटाई न गईं और दूसरे खर्चों में कमी न की गई तो तीन साल के भीतर इसे चार फीसदी तक लाने का सरकार का मकसद अभी दूर की कौड़ी लगता है. लेकिन चुनाव नजदीक हैं और इसे देखते हुए लगता नहीं कि इनमें से कुछ भी होने जा रहा है.

उदारीकरण की प्रक्रिया ने शुरुआत में लोगों में उम्मीद जगाई थी,  लेकिन आज हम जिसे आर्थिक समृद्धि कहते हैं उससे उनका मोहभंग हो चुका है. भारतीय व्यवस्था की छवि देश-दुनिया के उन उद्योगपतियों के बीच ही नहीं गिरी है जो दावोस में शैंपेन के ग्लास खड़काते हैं, देश के भीतर भी उसका ह्रास हुआ है. 2014 का आम चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है. पी चिदंबरम के बजट का मकसद एक वर्ग को संतुष्ट करना नहीं होना चाहिए. जरूरत यह भी है कि बजट लोकलुभावन फैसलों से दूर रहे और उन बुनियादी चुनौतियों पर ज्यादा ध्यान दे जिनसे अर्थव्यवस्था जूझ रही है.  हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि फिलहाल भारत में विदेश से जो पूंजी आ रही है उसका मकसद जल्द से जल्द मुनाफा वसूलकर निकल जाना है. हमें ऐसे निवेशकों को खुश करने की जरूरत नहीं है. हमें दीर्घकालिक पूंजी को आकर्षित करने की जरूरत है. यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंक पाते हैं या नहीं और बुनियादी ढांचे में विकास पर भी.

पिछले साल बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने शेक्सपियर के उपन्यास हैमलेट से एक पंक्ति उद्धृत करते हुए कहा था, ‘दयालु होने के लिए मुझे कठोर होना पडे़गा.’ न दयालु होने की जरूरत है न कठोर होने की. हमें एक विवेकपूर्ण बजट चाहिए जो अर्थव्यवस्था को स्थिरता दे सके और इसे सुस्ती से उबार सके.