उत्तराखंड के लिए मई का पहला हफ्ता दो कारणों से बेहद महत्वपूर्ण है. एक, प्रदेश की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान होने हैं और दूसरा, चार धाम यात्रा शुरू होनी है. प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस इन दोनों ही मोर्चों पर विफलता के मुहाने पर खड़ी है. लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की तैयारियां बेहद कमजोर हैं तो चार धाम यात्रा के लिए उसकी सरकार की तैयारियां जर्जर हालत में हैं. पिछले साल 16-17 जून को उत्तराखंड के पहाड़ों पर पानी कहर बनकर टूटा था. इसमें दर्जनों गांव, सैकड़ों भवन और हजारों लोगों का अस्तित्व हमेशा के लिए मिट गया. इस आपदा का सबसे ज्यादा प्रभाव केदारनाथ इलाके में हुआ था. केदारनाथ मंदिर तो सुरक्षित रहा लेकिन इसके आसपास और मंदाकनी घाटी में सैकड़ों किलोमीटर तक सब कुछ तबाह हो गया. दर्शन करने आए हजारों यात्रियों की मौत हो गई और हजारों लापता हुए. आशंका जताई जा रही थी कि यात्रा शायद अब दो-तीन साल तक संभव नहीं होगी. हालांकि कुछ महीनों बाद ही केदारनाथ मंदिर में दोबारा से पूजा शुरू कर दी गई, लेकिन यह औपचारिकता मात्र ही थी. श्रद्धालुओं का मंदिर तक पहुंच पाना असंभव था. सभी मोटर और पैदल मार्ग ध्वस्त हो चुके थे. ऐसे में मंदिर समिति के कुछ लोगों और पुजारियों को हवाई मार्ग से मंदिर तक पहुंचाया गया और पूजा शुरू हुई.
इस आपदा में हजारों स्थानीय लोग बेघर हुए और सैकड़ों गांवों के सभी संपर्क मार्ग टूट गए. ऐसे में सरकार की दो महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं थीं. एक, प्रभावित लोगों का पुनर्वास और दूसरा, प्रभावित क्षेत्रों का पुनर्निर्माण. लेकिन सरकार ने एक तीसरे ही विकल्प को अपनी प्राथमिकता बनाया. वह था किसी भी तरह केदारनाथ यात्रा को जल्द से जल्द दोबारा शुरू करना. उत्तराखंड में सात मई को लोकसभा के लिए मतदान होना है. इससे तीन दिन पहले ही चार मई को केदारनाथ यात्रा शुरू हो रही है. चुनाव प्रचार में यात्रा के शुरू होने को एक उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है. सरकार यह संदेश देना चाहती है कि उसने इतने कम समय में ही इतनी भीषण आपदा से निपट कर चार धाम यात्रा को सुचारू कर दिया है. लेकिन हकीकत यह है कि हजारों प्रभावित लोगों के पुनर्वास और उनकी मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके वह दूसरे हजारों लोगों को एक खतरनाक यात्रा का निमंत्रण दे रही है.
केदारनाथ यात्रा के शुरू होने से एक हफ्ता पहले तहलका ने पूरे यात्रा मार्ग का दौरा किया. हमने देखा कि पूरा रास्ता कदम-कदम पर सरकार की असफलताओं की गवाही देता है. इससे साफ लगता है कि इस यात्रा को सुचारु बनाने का यह दावा एक खतरनाक चुनावी स्टंट ही है.
पिछले साल आई आपदा से अब तक 10 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है. इस दौरान प्रभावित लोगों और क्षेत्रों की स्थितियां सुधारने के लिए सभी समीकरण अनुकूल थे. प्रदेश और केंद्र दोनों जगह एक ही पार्टी यानी कांग्रेस की सरकार थी, आपदाग्रस्त क्षेत्र सहित प्रदेश के पांच में से चार सांसद कांग्रेस के ही थे, वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत उस वक्त केंद्रीय जल संसाधन मंत्री थे, सरकारी और गैर-सरकारी स्रोतों से आया अरबों रुपये का राजस्व था और साथ ही लाखों लोग स्वयंसेवक बनकर सरकार की हर संभव मदद को उतर आए थे.
इस सबके बावजूद भी सरकार ने स्थानीय लोगों और यात्रा की तैयारियों को जिस स्थिति में छोड़ दिया है उसे यात्रा मार्ग के अनुसार ही देखते हैं.
उत्तराखंड में चार धाम यात्रा का पहला और शुरूआती पड़ाव ऋषिकेश माना जाता है. यहां तक यात्री रेल और हवाई जहाज के माध्यम से भी पहुंचते हैं. इससे आगे का पहाड़ी सफर यात्रियों को सड़क से ही तय करना होता है. ऋषिकेश से केदारनाथ की दूरी लगभग 225 किलोमीटर है. पिछली आपदा से सबक लेते हुए उत्तराखंड पर्यटन विभाग ने इस साल ऋषिकेश में यात्रियों के पंजीकरण की व्यवस्था शुरू की है. पंजीकरण न होने के कारण ही पिछले साल राहत कार्यों में लगी टीमों के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं था जिससे वह जरूरतमंद लोगों की संख्या का अनुमान लगा सकें. लापता और मृतकों की संख्या का भी इसी कारण कोई पता नहीं लग सका था. पर्यटन विभाग के अपर निदेशक एके द्विवेदी बताते हैं, ‘ऋषिकेश में यात्रियों के बायोमेट्रिक रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था शुरू की गई है. इसके अलावा यात्रा मार्ग पर जगह-जगह सत्यापन केंद्र बनाए जा रहे हैं. सत्यापन होने पर ही यात्रियों को दर्शन के लिए जाने दिया जाएगा.’ पंजीकरण और सत्यापन का यह काम दक्षिण भारत की एक संस्था को सौंपा गया है. ‘त्रिलोक सेक्युरिटी सिस्टम्स’ नाम की यह संस्था वैष्णो देवी, तिरुपति और अजमेर की दरगाह शरीफ समेत कई बड़े धार्मिक स्थलों पर भी पंजीकरण का काम करती है. संस्था के प्रबंध निदेशक रविचंद बताते हैं, ‘उत्तराखंड में हमारे 15 केंद्र होंगे. इनमें से पांच मोबाइल केंद्र होंगे जो अलग-अलग जगहों पर जाकर भी पंजीकरण और सत्यापन का काम करेंगे. इसके लिए अभी हमारे लगभग 120 लोग वहां काम कर रहे हैं.’ यह संस्था अपने काम के लिए न तो उत्तराखंड सरकार से और न ही यात्रियों से कोई शुल्क लेती है. इस बारे में रविचंद बताते हैं, ‘पंजीकरण के समय हम हर यात्री को एक कार्ड (प्रवेश पत्र) देते हैं. इसी में यात्रियों की सारी जानकारियां दर्ज होती हैं. इसके पिछली तरफ हम विज्ञापन छापते हैं. यह विज्ञापन भी व्यापारिक नहीं होते बल्कि केंद्रीय मंत्रालयों के सामाजिक विज्ञापन होते हैं. इसी से हमारी वित्तीय जरूरतें भी पूरी हो जाती हैं.’
ऋषिकेश में यात्रियों का पंजीकरण होते देखकर यात्रा की शुरुआत में एक सुखद एहसास होता है. लगता है कि यात्रा की व्यवस्थाएं सुधारने की दिशा में सरकार ने काम किए हैं. हालांकि इसमें सरकार का कोई खास योगदान नहीं है. यह संस्था स्वयं ही पंजीकरण का प्रस्ताव लेकर उत्तराखंड सरकार के पास आई थी और प्रदेश सरकार को बिना कोई पैसा खर्च किए ही यह सुविधा मिल गई है. ऋषिकेश से कुछ आगे बढ़ने पर भी यह सुखद एहसास बना रहता है. लगभग 15 किलोमीटर दूर बसे शिवपुरी इलाके में आपदा का कोई प्रभाव नहीं दिखता. यहां आज भी पुरानी रौनक बरकरार है. सड़क से नीचे गंगा बहती है और उसके चौड़े-चौड़े किनारों पर कई व्यावसायिक टेंट लगे हैं. चमचमाती सफेद रेत पर बने टेंट, उनके बाहर वॉलीबाल खेलते देशी-विदेशी यात्री और नदी की बलखाती धारा में हो रही राफ्टिंग. शिवपुरी से लगभग 20 किलोमीटर आगे कौडियाला तक यात्रा मार्ग के निचली तरफ ऐसे ही रोमांचक दृश्य मिलते हैं. इन मोहक दृश्यों के कारण सड़क की टूटी-फूटी हालत और बीच-बीच में पहाड़ों से पत्थर गिरने पर भी यात्रियों का ध्यान अब तक नहीं जाता.
केदारनाथ यात्रा मार्ग पर ऋषिकेश के बाद पहला बड़ा पड़ाव आता है श्रीनगर. ऋषिकेश से लगभग 100 किलोमीटर दूर बसे इस नगर में आपदा का पहला बड़ा सबूत मिलता है. शहर की शुरुआत में ही सड़क से लगी आईटीआई की इमारत यात्रियों को पिछले साल की आपदा का पहला किस्सा सुनाती है. इस इमारत की एक मंजिल आज भी रेत के नीचे दफन है. श्रीनगर में सरकारी भवनों के अलावा लगभग 70 घरों में नदी का पानी और मलवा भर गया था. इन भवनों का सारा सामान इस रेत के नीचे ही दफन होकर बर्बाद हो गया. इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा लोगों को सुझाव दे रहे थे कि ‘घरों में रेत भर गई है तो निकालो और बेचो.’ सरकार की उदासीनता के चलते अंत में लोगों ने अपने-अपने घरों से खुद ही मलवा साफ करवाया. सरकारी भवन आज भी वैसे ही मलवे में दबे पड़े हैं. आईटीआई की दुमंजिला इमारत की आज बस एक ही मंजिल जमीन से ऊपर है. इसमें पढ़ने वाले छात्रों के लिए जहां वैकल्पिक व्यवस्था की गई है वहां कुल उतने कमरे भी नहीं हैं जितनी इस परिसर में इमारतें थी. इस आईटीआई परिसर के बिलकुल साथ में हो रहा एक निर्माण कार्य भी अपनी ओर ध्यान खींचता है. नदी के साथ आए मलवे को साफ करने की जगह उसी के ऊपर एक भव्य इमारत खड़ी की जा रही है. आपदा के बाद इस क्षेत्र में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी. इसके बावजूद भी यह इमारत राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) के लिए बनाई जा रही है. श्रीनगर निवासी सामाजिक कार्यकर्ता मानव बिष्ट बताते हैं, ‘एनआईटी की यह इमारत दस करोड़ की लागत से बनाई जा रही है. सरकार का तर्क है कि यह प्री फैब्रिकेटेड इमारत है लिहाजा इसे जरूरत पड़ने पर किसी दूसरे स्थान तक सुरक्षित पहुंचाया जा सकता है. लेकिन यह क्षेत्र सुरक्षित नहीं है और इस आपदा में यह प्रत्यक्ष देखा भी जा चुका है. ऐसे में 10 करोड़ रुपये इस असुरक्षित निर्माण पर खर्च करने का क्या औचित्य है?’ मानव बिष्ट का अपना घर भी इस आपदा में पूरी तरह रेत में दब चुका है. श्रीनगर में अब एक मात्र वे ही हैं जिन्होंने अभी तक घर से मलवा नहीं हटाया. अपने घर की हालत दिखाते हुए वे कहते हैं, ‘घर का सारा सामान और मेरे दो दुपहिया वाहन इस मलवे के नीचे दफन हैं. मैंने घर इसलिए साफ नहीं करवाया क्योंकि मैं स्थायी समाधान की मांग कर रहा हूं. यह क्षेत्र अब सुरक्षित नहीं है. सरकार को इस क्षेत्र के प्रभावित लोगों का विस्थापन करना चाहिए.’ बिष्ट आगे बताते हैं, ‘श्रीनगर की जल विद्युत परियोजनाएं यहां के लोगों के लिए अभिशाप बनीं. ये सारा मलवा जो लोगों के घरों में भर गया था वह यहां बिजली परियोजना बना रही जीवीके कंपनी द्वारा डंप किया गया मलवा था. इस तबाही के लिए ये परियोजनाएं सीधे तौर से जिम्मेदार हैं.’
कई रिपोर्टों के मुताबिक उत्तराखंड विश्व के उन क्षेत्रों में से एक है जहां जल विद्युत परियोजनाओं का घनत्व सबसे ज्यादा है. बीती आपदा के बाद यह बहस तेज हो गई थी कि ये परियोजनाएं भी आपदा का एक कारण हैं. एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए पिछले साल 13 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को इस संदर्भ में जांच निर्देश दिए. इस पर मंत्रालय ने एक 11 सदस्यीय टीम का गठन किया था. 28 अप्रैल 2014 को इस टीम ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें पहली बार यह बात आधिकारिक तौर से कही गई है कि ये परियोजनाएं भी आपदा का एक कारण हैं और इनसे पर्यावरण को कई खतरे हैं. रिपोर्ट में उत्तराखंड की कई परियोजनाओं की अनुमति निरस्त करने की भी संस्तुति की गई है.
इन परियोजनाओं का पहले भी समय-समय पर विरोध होता रहा है. श्रीनगर में जीवीके कंपनी द्वारा बनाई जा रही परियोजना का तब सबसे ज्यादा विरोध हुआ था जब स्थानीय धारी देवी मंदिर के इस परियोजना से डूबने की बात सामने आई. यह मंदिर श्रीनगर से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां के लोगों की आस्था का केंद्र है. जीवीके कंपनी ने मंदिर के पास ही एक ऊंचा मंच तैयार कर मंदिर को वहां स्थापित करने की बात कही थी. स्थानीय लोगों ने इसका जमकर विरोध किया और मंदिर नहीं हटने दिया था. श्रीनगर निवासी प्रमोद बेलवाल बताते हैं, ‘आपदा के दौरान जब पानी बढ़ने लगा तो जीवीके कंपनी ने बांध की सुरंगों को नहीं खोला. उन्होंने नदी का पानी बढ़ने दिया और लोगों को डराया कि मंदिर डूबने वाला है. आपदा की आड़ लेकर कंपनी ने मंदिर को अपने बनाए मंच के ऊपर स्थापित करवा लिया. इसके बाद जो पानी नदी में भर गया था उसे एक साथ ही छोड़ दिया. इस कारण श्रीनगर में नुकसान कई गुना बढ़ गया.’
यात्रा मार्ग पर श्रीनगर से कुछ ही आगे बढ़ने पर सिरोबगड़ नामक इलाका पड़ता है. इस इलाके में खड़ा एक दैत्य रुपी पहाड़ पिछले कई साल से यात्रा में बाधा उत्पन्न करता है. यह पहाड़ हर साल टूटता है और कई बार तो पूरी सड़क ही इससे धंस जाती है. सरकार के पास आज तक इसका कोई इलाज नहीं है. इस समस्या से निपटने के नाम पर बस यहां एक छोटा-सा मंदिर बना दिया गया है. यात्री भले ही सिरोबगड़ में हर साल फंसते हों, लेकिन सरकार आस्था का सहारा लेकर इस बाधा को अपनी जिम्मेदारियों समेत लांघ चुकी है.
यहां से कुछ आगे बढ़ने पर आपदा के निशान और गाढे होते जाते हैं. रुद्रप्रयाग में नदी से काफी ऊपर बने भवन भी टूट कर लटकते हुए दिखाई पड़ते हैं. सड़क जगह-जगह पर अब भी इस तरह से कटी हुई है कि किसी भी पल पूरी धंस जाए. हालांकि स्थानीय लोग बताते हैं कि जब से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हुआ है और हरीश रावत मुख्यमंत्री बने हैं तब से सड़कों का काम बहुत तेजी से हो रहा है. यह काम प्रदेश के लोक निर्माण विभाग द्वारा किया जा रहा है. विभाग के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘अनुमति देरी से मिलने के कारण कुछ जगह निर्माण कार्यों में देरी हुई है. कई जगह यह तय नहीं हो पा रहा था कि काम सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जाना है या लोक निर्माण विभाग द्वारा.’ इस मुद्दे पर स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अजेंद्र अजय कहते हैं, ‘सरकार की प्राथमिकता यह नहीं थी कि काम जल्द से जल्द हो. इनकी प्राथमिकता यह थी कि काम कौन-सा संगठन करे. लोक निर्माण विभाग द्वारा काम किए जाने पर आसानी से इनका कमीशन तय हो जाता है.’
आपदा के बाद वर्ल्ड बैंक की वित्तीय मदद से ‘उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी प्रोजेक्ट’ बनाया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य था आपदा प्रभावित इलाकों में पुनर्निर्माण करना. लेकिन इसकी स्थिति यह है कि इसके तहत आज तक एक भी काम नहीं हुआ है. इस प्रोजेक्ट के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘मैं पिछले लंबे समय से केदारनाथ सड़क मार्ग पर काम कर रहा हूं. अभी हमारी प्राथमिकता यही है. जहां तक इस प्रोजेक्ट का सवाल है तो इसमें अभी तक तीन अनुबंध ही हुए हैं. क्रियान्वयन के स्तर पर अभी तक इसमें कुछ भी नहीं हो पाया है. लेकिन अब काम तेजी से चल रहा है.’ श्रीवास्तव आगे बताते हैं, ‘इस बार जिस तेजी से काम हो रहा है वह सच में तारीफ के काबिल है. इससे पहले यदि कहीं भी काम होता था तो ज्यादा से ज्यादा कुछ जूनियर इंजीनियरों को ही मौके पर भेजा जाता था. लेकिन इस बार सभी बड़े अधिकारी न सिर्फ मौके पर जा रहे हैं बल्कि कई-कई दिनों वहीं रह भी रहे हैं.’ हालिया दिनों में सड़क निर्माण में आई इस तेजी के बारे में अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी. 28 अप्रैल तक सरकार को यह रिपोर्ट कोर्ट में पेश करनी थी. सिर्फ इसी डर से काम में यह तेजी देखी जा रही है.’
रुद्रप्रयाग में मंदाकनी और अलकनंदा नदी का संगम है. यहां से केदारनाथ जाने के लिए मंदाकनी के साथ-साथ ही उसकी विपरीत दिशा में बढ़ना होता है. यहीं से उस कोहराम के निशान भी दिखने लगते हैं जो पिछले साल मंदाकनी ने अपनी पूरी घाटी में मचाया था. शहर की भीड़ से निजात दिलाने वाला बाईपास का पुल आपदा के दौरान बह गया था और आज तक भी नहीं बन सका है. रुद्रप्रयाग से कुछ ही आगे बढ़ने पर अगस्त्यमुनि कस्बा है. यहां और इससे ऊपर केदारनाथ तक मंदाकनी ने अपने आस-पास बसे किसी को भी नहीं छोड़ा है. यहां से केदारनाथ की दूरी अभी लगभग 80 किलोमीटर है. इतनी लंबी दूरी में नदी के पास बसे सभी लोगों को मंदाकनी ने पिछले साल बर्बाद कर दिया था. सैकड़ों मकान पूरी तरह से ध्वस्त हो गए, हजारों आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए, सैकड़ों गांवों और इलाकों के पुल टूट गए और कई सड़कें नदी में समा गई थी. इन सड़कों को फिलहाल तो बना लिया गया है, लेकिन उन्हें लंबे समय बनाए रखने की मंशा कहीं नजर नहीं आती. सड़क धंसने के कारण जिन जगहों पर टूट चुकी थी वहां कोई स्थाई उपाय किए बिना ही सड़क निर्माण किया जा रहा है. वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के डॉक्टर डीपी डोभाल बताते हैं, ‘जिस तरह से फौरी तौर पर सड़कों को बनाने का काम किया गया है उससे साफ है कि सड़कें ज्यादा समय तक सही नहीं रहेंगी.’ ऐसी स्थिति में यात्रा के दौरान जगह-जगह यात्रियों के फंसने की आशंका है.’
अगस्त्यमुनि से कुछ ही आगे चंद्रापुरी है. इस इलाके में बसे कई लोगों के मकान और खेत आपदा में बह गए थे. इन लोगों के पुनर्वास का सरकार तो कोई इंतजाम नहीं कर सकी, लेकिन कई गैर सरकारी संस्थाएं इस काम के लिए जरूर सामने आईं. लेकिन इन संस्थाओं द्वारा भी सही पात्रों तक मदद नहीं पहुंच सकी है. देहरादून स्थित बलूनी कोचिंग क्लासेस ने इस क्षेत्र के एक प्रभावित परिवार को प्रीफैब्रिकेटेड घर बना कर दिया था. इसके लिए बलूनी क्लासेस ने 1.60 लाख रुपये दान किए. ये घर अंजना देवी के लिए बनाया गया था. लेकिन हकीकत यह है कि अंजना देवी का अपना घर सुरक्षित है और वे अपने पुराने घर में ही रहती हैं. उन्होंने दान में मिले इस प्रीफैब्रिकेटेड घर को किराए पर चढा दिया है. अंजना देवी ने अपने ही गांव के एक हरिजन परिवार को यह घर किराए पर दिया है. मजदूरी करने वाले सुरेंद्र लाल अपने परिवार के साथ इस घर में 600 रुपये महीने के किराए पर रह रहे हैं. सुरेंद्र लाल इस आपदा में अपना घर और जमीन सबकुछ गंवा चुके हैं. तहलका ने जब इस संबंध में बलूनी क्लासेस से संपर्क किया तो विपिन बलूनी का कहना था, ‘हमने कुछ पहचान के लोगों के कहने पर अंजना देवी को घर बना कर दिया था. अगर उन्होंने वे घर किसी अन्य प्रभावित को किराए पर दिया है तो यह बहुत गलत है. इससे तो अच्छा होता कि हम पांच-पांच हजार रुपये कई सारे प्रभावित लोगों में बांट देते. कम से कम कुछ लोगों का एक महीने का राशन तो उससे आ ही जाता.’
चंद्रापुरी में ही सरकारी पैसों की बंदरबांट का भी बेजोड़ नमूना मिलता है. नदी के दूसरी तरफ बसे इस गांव का सड़क से संपर्क टूट चुका था. इसे स्थापित करने के लिए लोक निर्माण विभाग ने 17 लाख रुपये की लागत से एक ट्रॉली लगाई है. लकड़ी की बड़ी यह छोटी सी ट्रॉली आज नदी के बीचो-बीच झूल रही है. रस्सियां बांध कर हाथ से खींची जाने वाली इस ट्रॉली की असल लागत इससे कहीं कम होगी, यह साफ दिखता है. अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘इतने पैसों में तो चंद्रापुरी में एक मजबूत पुल बनाया जा सकता था. लेकिन सरकारी विभागों के ऐसे दोयम दर्जे के काम की इस क्षेत्र में भरमार है.’ अजय आगे बताते हैं, ‘विजय नगर में पुल बह जाने के बाद एक व्यक्ति ने नौ लाख रुपये दिए थे. लेकिन इतने पैसे खर्च करके जो पुल बनाया गया वह आपदा के बाद की पहली ही बरसात में बह गया था.’
चंद्रापुरी से लगभग 12 किलोमीटर आगे बसा सेमी गांव आपदा से सबसे प्रभावित गांवों में से एक है. नदी से काफी ऊपर होने के बाद भी यहां भारी नुकसान हुआ है. भूस्खलन के चलते इस गांव के 14 घर पूरी तरह से जमींदोज हो गए और पांच अन्य घर गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हुए. इन सभी लोगों को सरकार ने दो-दो लाख रुपये मुआवजे के तौर पर दिए. लेकिन इनके पास सर छुपाने को कोई आसरा नहीं था. ऐसे में रेडक्रॉस सोसाइटी द्वारा दिए टेंटों में इन परिवारों ने कई महीने गुजारे. इसके कुछ समय बाद ऑक्सफेम संस्था द्वारा इन परिवारों को प्रीफैब्रिकेटेड घर बनाने की सामग्री दी गई थी. इसी सामग्री से बनाए गए एक घर में रह रहे शिवानंद बताते हैं, ‘पहले हमसे कहा गया कि सरकार स्वयं हमें घर बना कर देगी. लेकिन जब काफी समय तक सरकार ने कोई काम नहीं किया तो हमने खुद ही ये प्रीफैब्रिकेटेड घर बनाए हैं. आपदा के बाद हमने पांच लाख रुपये कर्ज लेकर यह जमीन ली है जहां घर बनाने की सोची थी. लेकिन अब सरकार इस जमीन पर भी निर्माण करने से इनकार कर रही है. अब तो हम दोहरी मार झेल रहे हैं. अपना घर तो टूट ही गया साथ ही जो जमीन ली वहां भी कुछ नहीं बना सकते.’
सेमी गांव के अन्य प्रभावित लोग भी शिवानंद की ही तरह अब अधर में लटके हुए हैं. सरकार ने इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित किया है और यहां निर्माण से इनकार कर दिया है. लेकिन यहां रह रहे लोगों के पुनर्वास की सरकार के पास कोई नीति नहीं है. इसी गांव के संतुष्टि गेस्ट हाउस के मालिक बचन सिंह बर्तवाल की भी पिछली आपदा के दौरान मृत्यु हो गई थी. आपदा में उनका उनका गेस्ट हाउस काफी हद तक टूट गया था. उनकी बेटी जया बर्तवाल बताती हैं, ‘हमने दो साल पहले ही यह गेस्ट हाउस 30 लाख रुपये कर्ज लेकर बनवाया था. अभी लाखों का कर्ज हम पर बकाया है. पिता जी की तबीयत पहले से ही खराब थी. आपदा में जब गेस्ट हाउस टूटा तो उन्हें बहुत सदमा लगा. इसके बाद उन्होंने खाना-पीना भी छोड़ दिया. एक महीने बाद ही उनकी मौत हो गई. हमें सरकार से पूरे गेस्ट हाउस के बदले चार लाख रुपये का मुआवजा मिला है.’ आपदा के प्रभाव का अपना दुखद अनुभव सुनाते हुए जया कहती हैं ‘हम अब अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं. लेकिन अब जाएं कहां?’ सेमी गांव में चुनाव प्रचार करती एक गाड़ी जब ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का नारा देती है तो जया के चेहरे पर रोष और पीड़ा के भाव और भी बढ़ जाते हैं.
केदारनाथ यात्रा मार्ग पर सड़क के दोनों तरफ बसा ये गांव तबाही की पूरी दास्तां कहता है. इसके आगे के सफर में तबाही और यात्रा मार्ग दोनों की ही तस्वीर और भी भयावह होती जाती है. कुछ ही आगे चलकर खाट गांव आता है. यहां सड़क के ऊपर बना प्राथमिक विद्यालय टूट कर सड़क की तरफ झूल रहा है. आपदा के बाद कुछ महीनों तक तो इस स्कूल को एक गेस्ट हाउस में चलाया गया लेकिन उसके बाद इसे फिर यहीं शुरू कर दिया गया है. गांव के कई लोग इस संबंध में शिक्षा विभाग को ज्ञापन सौंप चुके हैं लेकिन इस पर अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई है. यह आलम तब है जब दो साल पहले ही प्रदेश एक ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना की गवाही दे चुका है. दो साल पहले बागेश्वर जिले के एक स्कूल में 18 बच्चों की पहाड़ गिरने से मौत हो गई थी. टूटने को आतुर यह प्राथमिक विद्यालय फिलहाल सरकार की प्राथमिकता नहीं है.
खाट से कुछ आगे बढ़ने पर ही यात्रा मार्ग से एक रास्ता कालीमठ की तरफ जाता है. इस मार्ग पर भी आपदा का जबरदस्त असर हुआ था. यहां तीन दर्जन से ज्यादा पुल बह गए थे और कई भवन क्षतिग्रस्त हुए थे. इस पूरे क्षेत्र में बीएसएफ ने पुनर्निर्माण का काम किया है. कमांडेंट राजकुमार नेगी बताते हैं, ‘इस पूरे क्षेत्र को बीएसएफ ने गोद लिया था. हमारी 110 लोगों की टीम कालीमठ रवाना हुई थी. यहां हमने स्कूल के पुनर्निर्माण से लेकर गांवों को सड़क से जोड़ने तक सभी कार्य किए हैं.’ कालीमठ वाले इस क्षेत्र में बीएसएफ द्वारा एक मोटर ट्रॉली भी लगाई गई है. कम लागत में स्थायी व्यवस्था के जो गिने-चुने काम आपदा के बाद हुए हैं उनमें से कालीमठ क्षेत्र एक उदाहरण है.
यात्रा मार्ग पर वापस लौटें तो अगला पड़ाव गुप्तकाशी आता है. यह इलाका उत्तराखंड आपदा प्रभावितों की राजधानी जैसा बन चुका है. फाटा निवासी अवतार सिंह राणा बताते हैं, ‘आसपास के सैकड़ों बेघर लोग गुप्तकाशी में शरण लेकर रह रहे हैं. सरकार द्वारा लोगों को तीन-चार हजार रुपये प्रतिमाह किराया दिया जा रहा है. कई परिवार तो सिर्फ इसी के सहारे गुजर कर रहे हैं.’ गुप्तकाशी से आगे बढ़ने पर ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि केदारनाथ यात्रा को सिर्फ कुछ ही दिन शेष हैं. अवतार सिंह राणा बताते हैं, ‘हर साल अब तक यहां के सभी होटलों में नया पेंट हो जाता था. फाटा से लेकर गौरीकुंड तक पूरा बाजार एकदम ऐसा लगता था जैसे सभी भवन नए बने हों. इस बार किसी ने भी अपने होटल में काम नहीं करवाया है.’ फाटा बाजार के सभी होटलों में ताले लगे हैं और उन्हें देख कर लगता है जैसे वे बरसों से ऐसे ही बंद पड़े हों. एक गैर सरकारी संस्था हेल्प एज इंडिया का अस्पताल जरूर नया जैसा दिखता है. फाटा में स्थित इस अस्पताल में क्षेत्रीय लोगों को कई सुविधाएं दी जा रही हैं. संस्था के प्रोजेक्ट मैनेजर शशि भूषण उनियाल बताते हैं, ‘दिसंबर के बाद से हम लोग 3,500 से ज्यादा लोगों को थेरैपी दे चुके हैं. हमारे अस्पताल में दो एमबीबीएस, एक थेरेपिस्ट और एक रेडियोलोजिस्ट की व्यवस्था है.’ इस क्षेत्र के लगभग सभी सरकारी अस्पताल जहां सिर्फ फार्मासिस्टों के भरोसे हैं वहां इस गैर सरकारी संस्था का अस्पताल रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी अनुभूति कराता है.
फाटा से आगे रामपुर और सीतापुर भी बेजान और सूने नजर आते हैं. यहां तक आते-आते यात्रा मार्ग भी अब साहसिक पर्यटन मार्ग में तब्दील हो जाता है. अपना जीवन किसी जांबाज चालक के भरोसे सौंपकर सोनप्रयाग तक पहुंचने पर अचानक एक मेला जैसा दिखाई पड़ता है. यात्रा से पहले लगा ये मेला देश भर के मजदूरों का है. प्रदेश में लोक निर्माण विभाग की सभी 47 इकाइयों से मजदूरों को यहां बुलाया गया है. हरिद्वार से आए लोक निर्माण विभाग के मजदूर श्याम लाल बताते हैं, ‘मुझे नौकरी करते हुए 31 साल हो चुके हैं. यह पहली बार ही हुआ है जब किसी पहाड़ी इलाके में मुझे भेजा गया हो. यहां हमें सांस लेने और चलने में भी दिक्कत आ रही है. ज्यादातर मजदूर बीमार पड़ गए हैं. हमने इतनी ठंड में कभी काम नहीं किया.’ विभागों के अलावा दिहाड़ी मजदूर भी देश भर से यहां बुलाए गए हैं. लेकिन मजदूरों के इस मेले के बाद भी यहां कोई भी स्थायी काम नहीं हुआ है. सोनप्रयाग में जो सड़क पहले थी वह पूरी तरह से टूट चुकी है. यह सड़क नदी से काफी ऊपर थी. अब जो नई सड़क यहां बनाई गई है वह नदी के काफी नजदीक है. ऐसे में इस सड़क का बरसात में बने रहने का विश्वास इसे बनाने वालों को भी नहीं है. सोनप्रयाग का जो मुख्य पुल बनाया गया है उसकी हालत बेहद नाजुक है. स्थानीय निवासी अवतार सिंह राणा बताते हैं, ‘यह पुल इस तरह से बना है कि पहली बरसात भी झेल पाना इसके लिए बहुत मुश्किल है.’ सरकार भी इस पुल की हालत से वाकिफ है. इसीलिए वैकल्पिक तौर से सोनप्रयाग से ही केदारनाथ का पैदल मार्ग तैयार किया जा रहा है. यह पैदल मार्ग पहले गौरीकुंड से था. पिछले साल तक 14 किलोमीटर का यह पैदल मार्ग अब लगभग 22 किलोमीटर का हो चुका है. इस पर भी यदि पैदल यात्रा सोनप्रयाग से ही शुरू करनी पड़े तो यह 25 किलोमीटर से ज्यादा की हो जाती है.
सोनप्रयाग से गौरीकुंड तक अभी मोटर मार्ग बन भी नहीं सका है. सीमा सड़क संगठन इसके लिए जमकर मेहनत कर रहा है लेकिन उसका भी मानना है कि इसमें महीने भर समय अभी और लग सकता है. यहां की स्थिति ऐसी है कि पिछले साल केदारनाथ यात्रा में आई कई गाड़ियां अब तक यहीं फंसी पड़ी हैं. पहाड़ों से पत्थर लगातार गिर रहे हैं. बीते 12 अप्रैल को सीमा सड़क संगठन के एक मजदूर का पत्थर गिरने के कारण पैर कट गया. इस मजदूर को श्रीनगर अस्पताल में भर्ती कराया गया है. गौरीकुंड तक सड़क बनने में अभी लगभग एक किलोमीटर तक और पहाड़ काटा जाना बाकी है. गौरीकुंड गांव के प्रधान पति गोपाल गोस्वामी बताते हैं, ‘बरसात के लिए न तो ये रास्ता सही है और न ही सोनप्रयाग का पुल. हम लोग कई बार अधिकारियों से मिले और कहा कि सोनप्रयाग से जो पैदल मार्ग है उसी के पास से मोटर मार्ग भी बनाया जाए. वह नदी से काफी ऊपर था इसलिए सुरक्षित था. लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी. अब तो हम खुद भी लंबे समय से देहरादून में ही रहते हैं.’ गोपाल के पिता गौरीकुंड प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे. 31 मार्च 2014 को वे रिटायर हो गए और तब से इस स्कूल में कोई भी शिक्षक नहीं है. बिना शिक्षक का गौरीकुंड प्राथमिक विद्यालय तब से ही बंद पड़ा है.
गौरीकुंड से ऊपर का पैदल मार्ग भी अब पहले जैसा बिलकुल नहीं है. इस रास्ते में पड़ने वाला सबसे बड़ा पड़ाव रामबाड़ा पिछली आपदा में पूरी तरह से गायब हो चुका है. यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था भी चरमरा गई है. बद्री-केदार मंदिर समिति के अध्यक्ष गणेश गोदियाल बताते हैं, ‘मंदिर समिति का काम वैसे तो पूजा से ही संबंधित है जो कि हमने पिछले साल ही शुरू कर दी थी. लेकिन इस साल हालात देखते हुए हमने और व्यवस्थाएं भी की हैं. इस बार 500 लोगों के दो जत्थों को ही एक दिन में केदारनाथ भेजा जाएगा. सभी लोग क्योंकि एक ही दिन में वापस नहीं लौट पाएंगे इसलिए उनके रुकने की व्यवस्था मंदिर में भी की गई है. मंदिर के प्रवचन हॉल में लगभग 200 पलंग लगवाए जा रहे हैं.’ पैदल मार्ग की स्थिति पूछने पर गोदियाल कहते हैं, ‘उस पर भी काम लगभग हो ही चुका है. मैं दरअसल चुनाव प्रचार में व्यस्त हूं तो आपको इससे ज्यादा जानकारी नहीं दे पाऊंगा.’ पैदल मार्ग का काम पूरा होने में मौसम एक चुनौती बना हुआ है. लिनचौली नामक पड़ाव से ऊपर का रास्ता बर्फबारी के कारण पूरा नहीं हो सका है. यहां से केदारनाथ तक की दूरी करीब पांच किलोमीटर है. लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘केदारनाथ में बर्फ होना समस्या नहीं है. बर्फ तो यहां इस मौसम में हमेशा ही होती है. यदि बर्फ नहीं होती तब यह जरूर चिंता का विषय था. यहां काम अच्छा हुआ है. हम प्रचार करने की जगह चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखते हैं. प्रदेश का लगभग 70 से 80 प्रतिशत काम लोक निर्माण विभाग ने ही किया है.’
इस बीच यह भी खबरें आ रही हैं कि केदारनाथ जाने वाले सभी यात्रियों को लिनचोली से मुफ्त हवाई यात्रा करवाई जाएगी. हालांकि चुनाव आचार संहिता के चलते इसकी खुली घोषणा नहीं हुई है, लेकिन मुख्यमंत्री कुछ सभाओं में ऐसा बोल चुके हैं. ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि पैदल मार्ग पूरा न होने कारण हवाई यात्रा मुफ्त कराना सरकार की मजबूरी बन गई हो.
इन परिस्थितियों में भी फिलहाल केदारनाथ यात्रा का मतदान से तीन दिन पहले शुरू होना तय है. गोपाल गोस्वामी कहते हैं, ‘इस बार यात्रा में श्रद्धालु कम और तमाशा देखने वाले लोग ज्यादा आएंगे. ऐसे लोग जिन्हें ये देखना है कि आखिर पिछले साल आपदा में क्या हुआ था.’
गोस्वामी की बात पर यदि यकीन करें तो इतना निश्चित ही कहा जा सकता है कि इस यात्रा में श्रद्धालुओं को उनके केदार बाबा के दर्शन करवाने की तैयारी भले ही कमजोर हो, लेकिन आपदा के अवशेष देखने वालों के लिए यहां भरपूर सामग्री मौजूद है.