आज के समय में पूरी दुनिया की नज़र भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर है। भारत के कृषि उत्पादों की पूरी दुनिया में भारी माँग है। फूड इंडस्ट्री में भारत पूरी दुनिया में छठे नंबर पर है, जिसे बढ़ाने की अभी बहुत गुंजाइश है। ऐसे में इस मोटी आमदनी वाले क्षेत्र को कोई भी उद्योगपति भुनाने की कोशिश करेगा, जिस पर अब देश के चंद पूँजीपतियों की नज़र टिक गयी है। दरअसल भारत में सालाना खुदरा बाज़ार 12000 अरब रुपये का है, जिस पर कॉर्पोरेट घरानों की गिद्ध-दृष्टि टिकी हुई है। इतना ही नहीं, भारत की कृषि उत्पादों का सकल मूल्य (वृद्धि) तकरीबन 19.5 लाख करोड़ रुपये है। तीन नये कृषि कानूनों को लेकर किसानों से चली पिछले दौर की सरकार की बातचीत में कृषि मंत्री के मुँह से अनायास यह निकलना कि अगर हमने कृषि कानूनों को वापस लिया, तो अंबानी-अडानी आ जाएँगे, इस बात का सुबूत पेश करता है कि सरकार पूँजीपतियों को कृषि उत्पाद पर लाभ देना चाहती है, जिसके लिए उस पर इन पूँजीपतियों का पूरा दबाव है।
दरअसल भारत में जमाखोरी का धन्धा आज़ादी के बाद से खूब फला-फूला है; जिसे अब और बढ़ावा दिया जा रहा है। इसे अगर एक छोटे से उदाहरण से समझें, तो हाल ही में महँगे हुए प्याज और टमाटार से इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं। तकरीबन 9-10 महीने पहले जो प्याज और टमाटार किसानों से 50 पैसे और एक रुपये किलो भी व्यापारी नहीं खरीद रहे थे, वही प्याज हाल ही में 100 रुपये किलो तक और टमाटर 160 रुपये किलो तक बिक चुका है। हालाँकि टमाटर बहुत दिनों तक जमा नहीं किया जा सकता है, लेकिन आजकल आधुनिक भण्डारण में उसे भी एक-दो महीने तक बचाकर रखा जा सकता है। अब भारत में कुछ कॉर्पोरेट घराने बड़े-बड़े भण्डार-गृह (स्टोर) बना रहे हैं। गोपनीय तौर पर यह भी पता चला है कि अडानी के देश भर में ऐसे सैकड़ों बड़े-बड़े भण्डार-गृह बन रहे हैं। इन भण्डार-गृहों में किसानों से औने-पौने दामों में खाद्यान्न खरीदकर जमा कर लिये जाएँगेे और फिर बाज़ार में उनका अभाव होने पर उन्हें महँगे दामों में उपभोक्ताओं को बेचा जाएगा; जिनमें किसान भी आखिर में उन्हीं उत्पादों का उपभोक्ता होगा, जो उसने पहले मजबूरन सस्ते में बेचे थे। हम इसे सरकार का खुदरा बाज़ार मॉडल भी कह सकते हैं, जो पूरी तरह कॉर्पोरेट घरानों के कब्ज़े में होगा।
किस तरह प्राइवेट खुदरा बाज़ार का मॉडल किया गया है तैयार
पिछले साल आईटीसी ने 22 लाख टन गेहूँ खरीदा था। किसान जब अपना गेहूँ बेचता है, तो उसे 14 सौ से 18 सौ का भाव बमुश्किल बाज़ार में मिलता है, जिसके हिसाब से गेहूँ का आटा अधिकतम 20 से 25 रुपये किलो होना चाहिए, लेकिन वही आटा देश की विभिन्न कम्पनियों के ज़रिये 32 रुपये से लेकर 50 रुपये किलो तक बेचा जाता है। इसकी वजह गेहूँ की जमाखोरी है। क्योंकि आईटीसी जैसी कम्पनियाँ भारी मात्रा में भण्डार-गृहों में स्टॉक जमा करके उसे बाज़ार में थोड़ा-थोड़ा करके फ्लोर मिलों को बेचती हैं। बता दें कि आईटीसी एक प्राइवेट कम्पनी है। इसी तरह अन्य प्राइवेट कम्पनियाँ, जैसे- अडानी, रिलांयस, महेंद्रा, नेस्ले, गोदरेज और अब जियो भी देश में अपने-अपने गोदाम बनाने की होड़ में लगी हैं, जिनमें खाद्यान्न की जमाखोरी मन-मर्ज़ी से की जाएगी। नये कृषि कानूनों में यह तय कर ही दिया गया है कि अब कृषि उत्पादों के भण्डारण की सीमा पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा। इसका मतलब साफ है कि अब सरकार जमाखोरी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगायेगी। साथ ही बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ किसानों से उनके खेतों में फसल उगाने के ठेगे देंगी, जिसके लिए उन्हें कुछ एडवांस पैसे के लालच में भी फँसाया जाएगा और बाद में यह कम्पनियाँ अपने हिसाब से किसानों से उन्हीं के खेतों में खेती कराएँगी और अपने हिसाब से ही फसलों के भाव तय करेंगी। इसके बाद किसानों से सीधे औने-पौने दामों में कृषि उत्पाद खरीदकर कम्पनियाँ उसे राष्ट्रीय खुदरा बाज़ार और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपनी मर्ज़ी की एमआरपी (अधिकतम बिक्री मूल्य) डालकर बेचेंगी। इससे होगा यह कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम में खरीदी गयी वस्तुओं को यह कम्पनियाँ दवाओं और दूसरे कम्पनी प्रोडक्ट की तरह मन-मर्ज़ी से बेचेंगी और मोटा मुनाफा कमाएँगी। इसका एक छोटा-सा उदाहरण अगर देखना है, तो मॉल में बिकने वाले किसी खाद्य पदार्थ को ले सकते हैं। मसलन, इन दिनों किसानों की मक्का 30-35 रुपये किलो है, जबकि मॉल में उसका आटा 50-60 से लेकर 150 रुपये किलो तक है। यह मोटा मुनाफा, जो किसान कई महीने मेहनत करके, मोटी लागत लगाकर भी नहीं कमा पाता, कम्पनियाँ एक झटके में कमा लेती हैं। सवाल यह है कि अगर किसान को अपनी फसल का बाजिव दाम नहीं मिलता, उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य तक की गारंटी नहीं मिल रही, तो कम्पनियों को उसी वस्तु को अपना लेबल लगाने के बाद इतने मोटे दाम पर बेचने की अनुमति क्यों?
सरकार की पॉलिसी समझने की ज़रूरत
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारत से कृषि उत्पादों का निर्यात 38 बिलियन डॉलर का है। सरकार की योजना है कि 2022 तक इस निर्यात को बढ़ाकर 60 बिलियन डॉलर पर ले जाया जाए, जिसके लिए बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों का सहारा लिया जाएगा। वैसे इस काम को सरकार खुद भी कर सकती है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर यह काम सरकार अपने हाथ में क्यों नहीं लेना चाहती? इसके पीछे की मंशा पूरी तरह से तो नहीं पता, लेकिन कहीं-न-कहीं कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुँचाने की ज़रूर है। क्योंकि सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने से बचना चाहती है, जबकि उन्हीं खाद्यान्नों को ऊँचे दामों पर बेचने कम्पनियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहती। इसके अलावा वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस के झंझट से भी छुटकारा पाना चाहती है। क्योंकि राशन कार्डों के ज़रिये काफी सस्ते में, तकरीबन दो से तीन रुपये प्रति किलो में गेहूँ-चावल सरकार को लोगों को देने पड़ते हैं। ऐसे में सरकार चाहती है कि सीधे तौर पर लोगों को कुछ पैसा (जिसकी भी कोई गारंटी नहीं है।) दे दिया जाए और उन्हें बाज़ार से राशन कार्ड से गेहूँ-चावल नहीं देना पड़े। और राशन कार्ड धारक आम लोगों की तरह पूँजीपतियों से बाज़ार भाव में गेहूँ-चावल, चीनी भी खरीदें। भारत की बात अगर की जाए, तो ऐसे राशन कार्ड धारकों की ही संख्या कई करोड़ है, जो गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। भारत में कुल तकरीबन 23 करोड़ राशन कार्ड हैं और भारतीय परिवारों में 10 किलो से लेकर 50 किलो महीने तक राशन का खर्च है। ऐसे में रिटेलर अगर उनसे राशन पर एक रुपये प्रति किलो का भी मुनाफा कमाता है, तो वह हर महीने अरबों रुपये कमा लेगा और सरकार इस बजट को, जो कि लोगों के लिए ही है, खर्र्च करने से बच जाएगी और पूँजीपतियों की जेबें भरती जाएँगी।
दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर सरकार कृषि उत्पादों को नहीं खरीदेगी, तो फिर कौन खरीदेगा? ज़ाहिर है कि इतनी भारी मात्रा में देश में पैदा होने वाले खाद्यान्नों को छोटे-मँझोले व्यापारी तो खरीद नहीं सकते और अगर वे एक बड़ा भाग इसका खरीद भी लेते हैं, तो रखेंगे कहाँ? बहुत समय तक उसका भण्डारण करने की क्षमता भी उनके पास नहीं होगी। ऐसे में उन्हें बहुत कम लाभ पर उसे स्थानीय बाज़ारों में बेचना पड़ेगा। भारी मात्रा में खाद्य पदार्थों की भण्डारण और उनका निर्यात वही कर सकेगा, जिसके पास मोटी पूँजी होगी। ग्रामीण क्षेत्र से लेकर छोटे-बड़े शहरों तक फैले छोटे और मँझोले व्यापारियों के पास यह पूँजी नहीं है। ऐसे में बड़े कॉर्पोरेट घराने ही इसमें हाथ डालेंगे और छोटे-मँझोले व्यापारी पल्लेदार की भूमिका में आकर उनके लिए काम करेंगे। सम्भव है कि सरकार के इस एक कदम से लाखों लोगों का रोज़गार चला जाए। क्योंकि इससे खुदरा बाज़ार में काम करने वाले बहुत-से बीच के लोग अपने आप खत्म हो जाएँगेे। सोयाबीन के मामले में पहले ऐसा ही हो चुका है। कुछ साल पहले सोयाबीन, जिसकी खेती नागपुर और मध्य प्रदेश में बहुतायत में होती है; के किसानों को करीब 30 हज़ार कम्प्यूटर (एक तरह का कम्प्यूटर पैड) कई साल पहले आईटीसी कम्पनी ने बाँटे थे और किसानों से कहा गया था कि इसके ज़रिये आपको मौसम के अलावा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सोयाबीन के दामों की जानकारी हमारे ज़रिये दी जाएगी, जिसके हिसाब से आप खुद सोयाबीन के दाम तय करके उसे उचित दामों में बेच सकेंगे और बिचौलियों द्वारा हो रही ठगी से बच जाएँगेे। किसानों ने खुशी से ये कम्प्यूटर ले लिए और उसके बाद उनकी सोयाबीन के दाम यह कम्पनी अपनी मर्ज़ी से तय करने लगी, जिसका किसानों को भारी नुकसान होना शुरू हो गया। आज भी आईटीसी कम्पनी ही सोयाबीन के भाव तय करती है।
चीन को सस्ते में सरकार ने बेचा चावल
पिछले साल भारत ने चीन तक को चावल निर्यात किया है। लेकिन सरकारी डाटा के मुताबिक, इसके लिए चीन ने केवल 2200 रुपये प्रति कुंतल की कीमत चुकायी है। वह भी उस चावल को, जो गुणवत्ता में काफी बेहतर बताये जाते हैं। सवाल यह है कि जब सरकार 2200 रुपये प्रति कुंतल के भाव से चीन को चावल बेच सकती है, तो ज़ाहिर है कि वह कॉर्पोरेट घरानों को और भी सस्ते में चावल बेच देगी। कॉर्पोरेट घराने उस पर मोटा मुनाफा कमाएँगे, जिसका घुमा-फिराकर देशवासियों की जेब पर असर पड़ेगा।
फंडिंग से तो नहीं जुड़ी है सरकार की नीयत!
तीन नये कृषि कानूनों को लेकर सरकार किसानों से बार-बार एक ही बात कह रही है कि वह किसानों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा रही है, वह जो भी कर रही है, उसमें किसानों का ही भला है। वह पूरी ईमानदारी से कृषि कानूनों को लागू करेगी। सवाल यह है कि सरकार छोटे दुकानदारों की तरह अपनी ईमानदारी की दुहाई देकर क्या साबित करना चाहती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार की नीयत व्यापारियों की तरह कसम खाकर मुनाफा कमाने की हो? क्योंकि सरकार को लग रहा है कि उसे कॉर्पोरेट घराने ही चलाते हैं और उन्ही के दम पर वह चुनावों के दौरान मोटा पार्टी फंड पाती है। जबकि सरकार यह नहीं देख रही कि कॉर्पोरेट घराने उसे फंडिंग किस दम पर करते हैं? क्या इसके लिए सरकार देश के आम लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया छीनकर उन्हें ठगने का मौका देना चाहती है? इसके लिए सरकार को कितने लाभ पूँजीपतियों को देने पड़ेंगे और देने पड़ रहे हैं; क्या यह सरकार ने सोचा है? इस मुनाफे के लिए सरकार ने कई पूँजीपतियों को टैक्स में भारी छूट भी दी है और उनका मोटा कर्ज़ भी माफ किया है। जबकि किसानों को सरकार इस तरह का कोई मुनाफा नहीं देती और न देना चाहती है।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)