किरदार

Nila-Avinash
इलेस्टेशन:मनीषा यादव

अविनाश, पहुंचते ही फोन कर देना वरना तुम्हारी मां को चिंता हो जाएगी.’

‘ जी मामा जी.’ और बस चल पड़ी थी.

‘अविनाश, तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिए भेजा जा रहा है. वहां मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहां तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियां बिताने जा रहा है.’ वह जानता है यह जाल शादी के लिए ही बिछाया जा रहा है.

बस चलते ही, अच्छा मौसम होने के बावजूद अविनाश के मन की कड़वी स्मृतियां धुआं देने लगीं. सात साल हो गए. मन के छाले हैं कि सूखते नहीं बल्कि बार बार फूट कर उसे आहत करते हैं. हर स्त्री अब एक छलावा लगती है, आखिर उसका क्या गुनाह था? यही कि उसने तयशुदा शादी की थी? मां तो बस घर-बार और उनकी शानदार मेहमाननवाजी पर रीझ गईं. लड़की की सुंदरता, मौन और सादगी मां को अटपटी नहीं लगी. देखने-दिखाने की रस्म के बाद सबके कहने पर एकांत में उसने बस संक्षिप्त में बात की और फौजी जीवन की दुश्वारियों पर बात चलाते ही वह अचानक उठ कर चली गई , तब उसे लगा था कि शरमा रही होगी.  उसने सोचा लिया था कि अब तो शादी हो ही रही है, जिंदगी भर बातें कर लेंगे, मां की पसंद, मां का इकलौता यही तो सुख होगा उनके जीवन में. शादी के ताम-झाम के बाद जब अपनी जीवन संगिनी से मिलने की, वो इत्मीनान की, एक-दूसरे को जानने की रात आई तो शादी के शानदार पलंग पर फूलों की सजावट के बीच उसे काली नाइटी में वह पैर सिकोड़े सोई मिली….जगाने पर बहुत ठंडी आवाज में उसने कहा था,  ‘यह शादी नहीं है, अविनाश, समझौता है. सो जाओ.’

‘किस तरह का समझौता? मना कर देना था तुम्हें.’

‘किया था बहुत, कोई माना नहीं.’

‘…अब?’

‘अब क्या! कुछ भी नहीं. मैं नहीं रहूंगी यहां.’

जब वह अगले दिन मायके गई तो उसकी जगह लौट कर विवाह को शून्य साबित करने के लिए उसके वकील का नोटिस आया, जिसमें आरोप था कि वह नपुंसक है और विवाह के योग्य नहीं. वह जड़ होकर रह गया. मां और मामाजी ने उसके घरवालों से कहासुनी की, कोर्ट का फैसला होने तक अपमान उसे जलाता रहा. हालांकि वह आरोप साबित न हो सका, पर अब उसका ही मन न था कि यह संबंध बना रहे. उसने तलाक मंजूर कर लिया.

उसने अपनी पोस्टिंग लेह करवा ली थी और मां की दूसरे विवाह की जिद को टाल गया था. पर अब मां के अकेलेपन और अस्वस्थता की वजह से उसे जोधपुर पोस्टिंग करवानी पड़ी और मां के साथ रह कर उनकी जिद न टाल सका. थक गया था, हर बार वही बहस!

‘मां, इस अगस्त में 35 का हो जाऊंगा.’

‘चुप कर! 35 की कोई उमर होती है आजकल.’

पिछले कई दिनों से मामा यह माऊंट आबू प्रकरण चलाए जा रहे थे. इस बार मामा छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते थे सो वे उसे लड़की और उसके परिवार के साथ पूरे हफ्ते छोड़ना चाह रहे थे. ब्रिगेडियर सिन्हा मामा के बचपन के दोस्त हैं, उनकी एक बहन है अविवाहित. अविनाश के मन में किसी बात को लेकर कोई उत्साह नहीं बल्कि मलाल हो रहा है, उसने सोचा था कि इस बार सालाना छुट्टी लेकर मां के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएगा और … वह माउंटआबू जा रहा है, किसी अजनबी परिवार में.

शाम का झुटपुटा रास्तों और पहाड़ियों पर उतर आया है, तोतों का एक झुंड शोर मचाते हुए अपने ठिकाने को लौट रहा है, हवा में सर्दी की खुनकी महसूस होने लगी है. वह खुली खिड़की जरा सा सरका देता है. बस के अंदर नजर डालता है. सामने वाली सीट पर एक विदेशी युवती बैठी है. उसे देख मुस्कुरा देती है. वह उस बेबाक निश्छल मुस्कान पर जवाब में मुस्कुराए बिना नहीं रह पाता. न जाने किस गुमान में उसके हाथ बाल संवारने लगते हैं. अपनी इस कॉलेज के लड़कों जैसी हरकत पर उसे हंसी आ जाती है. वैसे आजादी में कितना सुकून है. अब उम्र के 35 साल मुक्त रह कर विवाह के पक्ष में वह जरा भी नहीं पर यहां भारत में जिस तरह बड़ी उमर की लड़कियों का कुंवारा रहना संदिग्ध होता है वहीं बड़ी उम्र के कंुवारे भी संदेहों से अछूते नहीं रह पाते. समाज का इतना दबाव होता है कि आप को कोई चैन से नहीं बैठने दे सकता. शादी-वादी. बेकार का बवाल! उसकी नजर फिर उधर चली गई, वह भी इधर ही देख रही थी. दोनों ने फिर मुस्कान बांटी.

लड़ी आकर्षक है. उसने मां की जबरदस्ती रखी हुई जैकेट निकाल कर पहन ली. लड़की ने फिर उसे देखा इस बार उसकी आंखों में आमंत्रण था, वह मुस्कुराया नहीं इस बार. एक गहरी नजर डाल, खिड़की के बाहर फैलते अंधेरे में दृष्टि डालने लगा. पहाड़ों-पेड़ों की सब्ज आकृतियां धीरे-धीरे स्याही में बदल रही थीं, उसके मन पर अन्यमनस्कता घिर आई. कहां जा रहा है वह और क्यों बेवजह? क्या समझौते की तरह दो लोगों के बंधने से जरूरी काम कुछ और नहीं? बेकार है यह विवाह नामक संस्था. मामा क्यों कहते हैं कि शारीरिक जरूरतें तो हैं ही, एक साथी की मानसिक जरूरत भी होती है? शारीरिक जरूरतों का क्या है, उस जैसे आकर्षक पुरुष के लिए लड़कियों की कमी है क्या?  जैसे-जैसे अंधेरा गहरा रहा है, वह उस विदेशी युवती की नजरों को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा है. उसने चेहरा घुमा लिया है खिड़की की तरफ फिर से, हालांकि इस एक मुद्रा में उसकी गर्दन दुखने लगी है पर वह नहीं चाहता कि लड़की किसी किस्म की गलतफहमी पाल ले.

पहाड़ी रास्तों से होकर ब्रिगेडियर सिन्हा के बंगले पर पहुंचने में 15 मिनट लग गए. सारे रास्ते वे बोलते रहे वह सुनता रहा, कि कैसे फौज छोड़कर वे यहां सेटल हुए, फार्मिंग में उनकी शुरू से रुचि रही है. वे स्ट्राबेरीज उगाना चाह रहे हैं इस बार. यहां वे बहुत लोकप्रिय हैं आदि-आदि. उनके बंगले के गेट से पोर्च तक एक मिनट की ड्राइव से लग रहा था कि खूब बड़ी जगह लेकर घर बनाया गया है. अंदर पहुंच कर, राम सिंह को उनका सामान गेस्टरूम में रखने का आदेश देकर, उसे हॉलनुमा ड्रॉइंगरूम  में बिठा कर वे अंदर कहीं गायब हो गए. हॉल की सज्जा कलात्मक थी. किसी के हाथ से बनी सुन्दर पंेटिग्स, जिनमें ज्यादातर राजस्थानी स्त्रियों के चेहरे थे, सांवला रंग लंबोतरे चेहरे, खिंची हुई काजल भरी आंखें और तीखी नाक वाली. पूरे हॉल पर नजर घूमती हुई एक जगह आ टिकी, एक लंबी आकृति स्टूल पर चढ़ी, एक पेंटिग के लिए कीलें ठोक रही थी. अचानक वह जीती जागती पेंटिंग धम्म से ड्रॉइंगरूम के गलीचे पर कूदी.

‘हलो’ कह कर वह खिसकने लगी….

‘अविनाश, ये मेरी बेटी है नीलांजना. बीएससी कर रही है.’

‘बेटा जाओ मम्मी को भेजो और किचन में चाय और स्नैक्स के

लिए कहना.’

चाय की औपचारिकता के बाद वह गेस्टरूम में आ गया, जो एक छोटा-मोटा सा समस्त सुविधाओं से युक्त फ्लैट ही था.

डिनर टेबल पर बहुत से अनजाने चेहरे थे.

‘अविनाश, ये रेवा है मेरी बहन, जेजे आर्टस में लैक्चरर है. मयंक मेरा बेटा, आईआईटी बॉम्बे से इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग कर रहा है , ये मयंक का दोस्त केतन है. तुम पहले आए होते, ये सब एक सप्ताह से यहीं थे, कल जा रहे हैं.  रेवा ! तुम तो रुकोगी ना! ‘

‘जी दादा, पर वो…एक एक्जीबीशन थी मेरे स्टूडेन्ट्स की’

‘बुआ! रुक जाओ ना! भाई को जाने दो कल, आप अभी तो आई थीं.’

‘ठीक है.’ उसने अविनाश पर उड़ती हुई निगाह डालते हुए कहा.

उसने पहली बार रेवा को गौर से देखा. तांबई रंग, बड़ी, काजल से लदी आंखें, भरे होंठ और थोड़ी चौड़ी नाक चेहरे पर परिपक्व, सधा हुआ भाव. भरे संतुलित जिस्म पर बाटिक प्रिंट का भूरा कुर्ता और जीन्स, घने काले लंबे बाल आकर्षक मगर बेतरतीब जूड़े में लपेटे हुए. एकाएक आप पर छा जाने वाला दृढ़ व्यक्तित्व. बात करने के ढंग और शब्दों के चयन से ही लगता है कोई बुद्धिजीवी कलाकार बात कर रहा है. फिर नजर घूमी तो नीला पर जा टिकी गंदुमी रंग, बुआ की सी ही बड़ी-बड़ी लंबी आंखें पर नाक और होंठ मां जैसे, नाजुक.

‘क्या देख रहे हैं आप, पापा ! आपके मेहमान खाना तो खा ही नहीं रहे.’ ‘ओह हां अविनाश लो न .’

सुबह वह देर से उठ सका. उठते ही खिड़की में आया तो देखा नीचे मयंक और उसका दोस्त जिप्सी में सामान रख रहे थे. मयंक ने वहीं से चिल्ला कर अलविदा ली और ब्रिगेडियर सिन्हा उन्हें छोड़ने चले गए. वह नहा धोकर नीचे उतर आया. नीलांजना जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट कर कॉलेज जाने की तैयारी में थी.  उसके लिए भी वहीं चाय आ गई.

‘मेरा मन नहीं कर रहा कॉलेज जाने का पर आज मेरा प्रैक्टिकल पीरियड है, बाहर बुआ मेरे लिए एक पेटिंग बना रही है, देखते रहिएगा, बोर नहीं होंगे. शाम को मैं आऊंगी तब घूमने चलेंगे.’

वह हंस पड़ा. चाय पीकर वह बाहर आ गया. रेवा सचमुच एक पेंटिंग में व्यस्त थी. वह पीछे जाकर खड़ा हो गया.

‘छोड़ क्यूं दी? मैं तो…

‘कोई बात नहीं. वैसे भी यह पिछले साल से चल रही है पूरी हो ही नहीं पाती. इसके बीच न जाने कितनी पेटिंग्स बना डालीं. यह अटकी हुई है. दरअसल बॉम्बे होती तो पूरी हो जाती, इसे नीला ले ही नहीं जाने देती.’

हंसती हुई रेवा अच्छी लगती है. हंसी चेहरे पर से गंभीरता के मुखौटे को खिसका जाती है. उसने पेंटिंग को ध्यान से देखा, उसे वह नीला की ही पोर्ट्रेट लगी. चेहरा अभी अधूरा था, बड़ी आंखें, चेहरे पर बिखरे सुनहरे बालों का गुच्छा, लैस वाला गुलाबी टॉप, बाकी पीछे बैकग्राउंड अधूरा था. तस्वीर अधूरी होने की वजह से उदास सी लग रही थी. रेवा ने बालों से लकड़ी का मछली के सिर वाला कांटा निकाला, जो कि उसकी रुचि के अनुसार कलात्मक था और बाल कमर तक फैल गए और पहाड़ी बयार में उड़ने लगे. वह गौर से देखे बिना न रह सका. रेवा ने उसकी नजर को उपेक्षित कर दिया और ब्रेकफास्ट यहीं मंगवाने के लिए कह कर चली गई. ब्रेकफास्ट बाहर लॉन में लग गया और परिवार के बचे हुए सदस्य वहीं आ गए. ब्रिगेडियर सिन्हा ने कश्मीर मसले पर बात छेड़ दी तो वह चर्चा देर तक चलती रही. रेवा ज्यादा रुचि नहीं ले रही थी. वह उठ कर लाइब्रेरी में चली गई तो ब्रिगेडियर साहब मुद्दे पर आ गए. ‘तो अविनाश तुम्हारा रेवा को लेकर क्या ख्याल है?’

वह अचकचा गया. क्या कहे?

‘देखो बेटा, मुझे तुम्हारा अतीत मालूम है, रेवा को भी मैंने बताया है. अब तुम दोनों को ही विवाह को लेकर निर्णय ले लेना चाहिये. यह समझ लो यह आखिरी गाड़ी है, उसके बाद या तो सफर टाल दो, या इसी में चढ़ जाओ.’

लंच के बाद वह अपने कमरे में आने के बाद देर तक इस विषय पर सोच सोच कर उलझता रहा. रेवा आर्मी के माहौल में रही है, अच्छी लड़की है. क्या हां कह दे?

‘क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में?’

‘नीला, तुम कब आई?’

‘अरे कब से आकर खड़ी हूं, कॉफी लेकर. आप हैं कि गहरी सोच में

गुम हैं.’

सलवार कुर्ते में नीला बड़ी-बड़ी लगी. दोनों ने कॉफी पी ली तो नीला ने उसे खींच कर उठा दिया-

‘ जाइये, जल्दी कपड़े बदलिए ना. हम घूमने चलेंगे.’

‘हम कौन कौन?’

‘जाना तो मुझे भी था… पर मम्मी कहती है आप और बुआ ही जाएंगे. प्लीज अविनाश अंकल आप कहिए ना मम्मी से कि मैं भी चलूंगी.’

‘अंकल? क्या मैं इतना बड़ा लगता हूं.’

‘लगते तो नहीं पर …. तो क्या कहूं. फिलहाल अविनाश जी चलेगा!’

रेवा ने भी नीला की पैरवी की क्योंकि दोनों ही टाल रहे थे, एकांत. एक उमर के बाद कितना मुश्किल हो जाता है किसी से बंधना…. महज कुछ शारीरिक जरूरतों और सहारे के लिए. वह भी शायद यही सोच रही होगी. अपनी-अपनी आजादियों की लत लग गई है हमें. वह तो मुझसे भी दो साल बड़ी ही है. उम्र कोई मायने नहीं रखती, क्या उसके कई अच्छे दोस्त उससे बड़े नहीं? नहीं कर सकेगा अभी वह ‘हां’ जैसा ‘हां.’

‘कौन ड्राइव करेगा?’ नीला ने पूछा.

‘ऑफ कोर्स मैं नीलू, अविनाश जी को कहां इन पहाड़ी रास्तों का अंदाजा होगा! और तुम्हें दादा ने मना किया था न.’ रेवा साड़ी में थी, यहां भी वही कलात्मक स्पर्श.

नीला ही बोलती रही. सारे रास्ते दोनों खामोश थे, अपने अपने दायरों में. एक मंदिर की सीढ़ियों के पास जाकर रेवा ने गाड़ी रोक दी. ऊपर चढ़ते हुए उसने कहा-‘मैं अभी आई.’

‘क्या तुम्हारी बुआ जी बड़ी धार्मिक हैं?’

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मनीषा यादव

‘ऑ.. ज्यादा तो नहीं, अभी तो वह इस पुराने मंदिर में अपने एक स्केच के लिए फोटो लेने गई हैं. आपने क्या सोचा कि वे मन्नत मांगने गई हैं कि-हे भगवान इस हैंडसम फौजी से अब मेरी मंगनी हो ही जाए. गलतफहमी में मत रहियेगा. मेरी बुआ ही सबको रिजेक्ट करती है, वो तो मिस बॉम्बे भी रह चुकी है अपने जमाने में.’

‘अच्छा!’

‘बुरा तो नहीं लगा न.’

‘नहीं नीला, बच्चों की बात का बुरा मानते हैं क्या?’

‘अविनाश जी, मैं बच्ची नहीं हूं, एक बार अंकल क्या कह दिया आपने बच्चों में शुमार कर लिया.’

‘अच्छा मिस नीलांजना…..तो आप क्या कह रही थीं?’

‘श्शSS बुआ आ गई.’ कह कर उसने मेरा हाथ दबा दिया.

रेवा को बोटिंग में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, सो वह शॉल लेकर

किनारे रखी एक बेंच पर बैठ गई, मैं न चाह कर भी नीला के साथ बोटिंग पर चला गया.

‘अविनाश जी, सनसेट के वक्त सबकी आंखों का रंग बदल जाता है, देखो आपकी और मेरी.’

नीलांजना की आंखों में समुद्र उफान पर था. उसके खुले सीधे सीधे भूरे बाल सोने के तार लग रहे थे. हवा में उड़ता उसका लेस वाला कॉलर.

‘अविनाश जी!  क्या देख रहे थे?’

‘यही कि तुम बहुत सुंदर हो.’

‘हां हूं तो. पर उससे क्या फर्क पड़ता है. प्रकृति में हर चीज सुंदर है. मुझे तो हर चीज सुंदर लगती है.’

‘हां तुम्हारी उम्र में मुझे भी सब कुछ सुंदर लगता था.’

‘अब.’

‘अब! अब नजरिया बदल गया है. वास्तविकताएं अलग होती हैं.’

‘सबका सोचने का ढंग है अपना अपना! क्या ये झील वास्तविक नहीं? वो तांबई ‘जैसाना’ जलपांखियों का झुंड रियल नहीं?’

‘है, नीला.’

‘अविनाश जी, पापा से सुना था आप कविताएं लिखते थे. फिर छोड़ क्यों दीं?’

‘तुम्हें रुचि है?’

‘हां. बहुत. पर आपने क्यों छोड़ा?’

‘वही.’

‘रियेलिटीज.’ नीला ने दोहराया और दोनों हंस पडे.

नीला, तुम्हें क्या मालूम जिंदगी कितनी बड़ी ग्रिम रियेलिटी है, जिसे तुम्हें बता कर डराना नहीं चाहता. ईश्वर करे तुम्हें जिंदगी उन्हीं सुंदर सत्यों के रूप में मिले. डरावने मुखौटे पहन कर नहीं. अविनाश ने दुआ की.

‘अविनाश जी, चलिए किनारा आ गया. आप क्या सोचते रहते हैं?’

‘कैसी रही बोटिंग?’ रेवा  चलकर पास आ गई थी.’

‘मजेदार.’

रेवा एक चांदी के जेवरों की दुकान में चली गई तो वह और नीला बाहर की ओर बैठ गए.

‘तुम्हें जेवरों में रुचि नहीं?’

‘बुआ जैसी ज्यूलरी में नहीं. कहां-कहां से आदिवासियों के डिजायन कॉपी करवा के, सिल्वर का ऑक्सीडाइज्ड करवा कर पहनती है. मेरा बस चले तो कानों में बबूल के गोल फूल पहनूं, बालों में रंगबिरंगे पंख लगा लूं. वनकन्या की तरह (दोनों हंस दिए).’

‘हमारे घर में किसी को हंसने का शौक ही नहीं है.’

‘नीलू.’

‘जी, बुआ.’

‘देख ये एमेथिस्ट जड़ा कड़ा पसंद है तुझे? तेरे नए परपल सूट के साथ मैच करेगा.’

‘अच्छा है बुआ.’

‘अविनाश जी, यह आपके लिए.’

‘मेरे लिए क्या?’

‘देख लीजिये.’

एक्वामेराईन स्टोन के बहुत सुंदर कफलिंक्स थे. पहली बार रेवा ने अपनी आंखों में आत्मीयता भर मुस्कुरा कर उसे देखा था. यानी?

फिर भी अभी भी वह वक्त लेगा. हां करने से पहले. ऐसे ही न जाने तीन दिन कब बीत गए. वो और नीला बहुत आत्मीय हो गए थे दो दोस्तों की तरह. एक दिन देर शाम –

‘मैं बुआ की जगह होती तो बहुत पहले आपसे शादी के लिए हां कह देती.’

‘मैं किस की जगह होता फिर?’ फिर एक हंसी.

‘आपके बारे में कुछ सुना था.’

‘सच ही सुना होगा.’

‘कैसी होगी वह लड़की, जिसने आपको बिना जाने .’

‘छोड़ो न नीला, शायद उसकी ही कोई विवशता हो.’

‘क्या वह किसी और से प्यार करती थी?’

‘शायद.’

‘ऐसा क्यों होता है, अविनाश जी? शादी जबरदस्ती का सौदा नहीं होनी चाहिए ना! ऐसे तो अधूरे रिश्तों की कतार लग जाएगी. आप से वह प्यार नहीं करती थी और शादी हुई, आप किसी को प्यार करें और शादी किसी से हो जाए, फिर उसकी जिससे शादी हो वह. ऐसे जाने कितनी प्यार की अधूरी तस्वीरें ही रह जाती होंगी न….!’

‘तुम अभी छोटी हो नीला, जिंदगी के सच समझने के लिए.’

‘अच्छा आप बुआ से शादी करेंगे?’

‘पता नहीं, नीला. दरअसल मैं यह सब सोच कर ही नहीं आया हूं. बस मामा की बात रखने के लिए चला आया.’

‘आप बहुत भावुक हैं और बुआ बहुत प्रैक्टिकल.’

‘ मैं भावुक हूं कैसे जाना?’

‘जिन्हें आप एडमायर करते हैं उन्हें आप जान भी लेते हैं.’

‘….. ‘

‘आप बहुत अच्छे हैं.’ नीला के नाइट सूट के ढीले कुर्ते में धड़कते सुकुमार नन्हे वक्षों की धड़कन खामोशी में मुखर हो गई थी.

‘.’

‘नीला! रात हो गई अब जाओ.’

‘ कॉफी!’

‘ नहीं.’

‘ गुडनाइट.’

अविनाश का मन अजानी आशंका और एक अजाने भाव से थरथरा रहा था. ठंडी रात में भी वह पसीने में डूब गया. सुबह देर से उठा, बाथरूम से मुंह हाथ धोकर निकला तो सामने रेवा चाय और ब्रेकफास्ट दोनों लेकर खड़ी थी.

‘देर तक सोए आज आप. लगता है यह नॉवेल पढ़ते रहे देर रात तक.’  रेवा  ने नॉवेल उठा कर देखा फिर रख दिया. मैं हतप्रभ था, नॉवेल? और मैं….?

‘आज आपके मामा जी का फोन आया था, रात को पहुंच रहे हैं.’

चुपचाप चाय पी गई. ब्रेकफास्ट भी हुआ. अचानक रेवा ने पूछा.

‘आज हम दोनों को पूछा जाएगा. आपने क्या सोचा है?’

‘मैंने तो कुछ सोचा ही नहीं.’

‘तो सोच लीजिये, जवाब तो देना ही है. यही प्रयोजन है कि आप यहां आए और मैं ने अपनी छुट्टियां बढ़वा लीं.’

‘रेवा …हम जानते ही क्या हैं अभी एक-दूसरे के बारे में?’

‘जानने की मुहलत बस इतनी ही थी अविनाश जी, फिर जिंदगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं.’

‘मेरे बारे में सुना होगा.’

‘हां, वह अतीत था अविनाश आपका, सबका कुछ न कुछ होता है. उसे छोडि़ये.’

‘क्या तुम्हें पसंद आएगा इतने दिनों की आजाद जिंदगी के बाद बंधना?’

‘उम्मीद है आप ऐसा नहीं करेंगे. मैं भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विश्वास करती हूं!’

‘तुम्हारी जॉब?’

‘जॉब तो मैं नहीं छोड़ सकती, अविनाश. लंबी छुट्टियां मीन्स विदाउट पे लीव्ज अफोर्ड कर सकती हूं. फिर देखते हैं.’

‘तो…रेवा, तुमने फैसला ले लिया है?’

‘हां अविनाश, थक गई हूं, लोगों की सहानुभूति और सवालों से.’

‘थक तो मैं भी गया था रेवा, पर क्या यह समझौता नहीं?’

‘शायद हम एक-दूसरे को पसंद करने लगें.’ मुस्कुरा कर रेवा प्लेट्स उठाने लगी.

‘तो शाम को डिनर टेबल पर आने तक अपना फैसला कर लेना. ‘ना’  हो या ‘हां’ मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है.’ रेवा के जाते ही उसने नॉवेल उठाया,  ‘सेवेन्थ हेवेन’ एक रोमैंटिक नॉवेल था, उसके अंदर एक हाथ का लिखा पुरजा.

‘जब से आप आए हैं मुझे अपना होना और अच्छा लगने लगा है. आप बहुत बड़े हैं, यह खत पढ़कर जाने क्या प्रतिक्रिया करें. अगर मैंने न लिखा तो मैं घुटन से मर जाऊंगी. आप पहले पुरुष हैं और मैं खुद हैरान हूं कि क्यों खिंची जा रही हूं मैं आपकी ओर. कल रात न जाने क्यों लगा कि सौंप दूं अपने हाथों की नमी और स्पंदन आपको. लेकिन …’

उसे लगा कि वह चक्रवात में घिर गया है. यह पुरजा रेवा  के हाथ लग जाता तो? वह क्या सोचती? वह घबरा कर तैयार होकर बाहर निकल आया. रामसिंह ने पूछा भी गाड़ी के लिए पर वह मना करके पैदल तीन-चार किलोमीटर चला आया. पहाड़ी ढलवां रास्ते और पहाड़ी वनस्पति, बड़े पेड़ और उन पर उछलकूद मचाते बंदर. वह एक चट्टान पर सुस्ताने लगा और आंखें मूंदते ही नीला का चेहरा सामने आ गया. मासूम आंखें, सीधे रेशमी बालों में खुल-खुल जाती लाल साटिन के रिबन की गिरह, तिर्यक मुस्कान.

‘नीला, तुम मुझे प्रिय हो, तुम्हारी निश्छलता मुझे पसंद है. तुम वह अनगढ़ कोमल स्फटिक शिला हो जिसे मैं मनचाहा गढ़ सकता था. तुम्हारा समर्पण बहुत कीमती और नाजुक है, और नियति बहुत क्रूर है, नीला. जिस संभावना को हम सोचते डरते हैं, वह संभव तो हो ही नहीं सकती ना. मैं कल ही यहां से चला जाऊंगा. आज रात डिनर पर मामा जी से क्या कहूंगा. मना कर दूंगा.’

जब बहुत देर भटक कर वह ब्रिगेडियर सिन्हा के घर के जरा नीचे वाले मोड़ पर मुड़ा ही था कि नीला साइकल पर उतरती दिखाई दी. पास आई तो परेशान लगी.

‘आप यहां हो? और मैं…सॉरी मेरा इरादा कुछ नहीं… अविनाश जी बस, कनफेस किए बिना न रह सकी….’

‘और मैं किससे कनफेस करूं ?’

‘अविनाश, आय एम पजेस्ड बाय यू, मुझ पर छाया पड़ गई है आपकी.’

‘तुम पागल हो, नीला. मैं जा रहा हूं, यहां से, यही उचित होगा, मुझमें साहस नहीं है, एक साथ बहुत लोगों का विश्वास तोड़ने का!’

‘और बुआ.’

‘क्या बुआ! बेवकूफ लड़की वो खत जो छोड़ आई थी उसके हाथ पड़  जाता तो? मुझे नहीं करनी शादी-वादी. कहां फंस गया मैं.’  बुरी तरह झल्ला गया अविनाश और सर पकड़कर पुलिया पर बैठ गया. नीला सुबकने लगी. वह उसके पास उठ आया, उसके मुंह पर ढके हाथ हटा कर बोला,  ‘क्या करुं मैं, नीला?  अब आगे कोई भी रिश्ता हम दोनों के लिए ही घातक है. मुझे जाना ही होगा.’

नीला उसकी बांह पर टिक गई और रोते हुए बस इतना कह सकी, ‘आप बुआ से शादी कर लो, अविनाश जी. आज पहली बार वो खुश होकर पापा से कह रही थीं कि, दादा, अविनाश को देख कर पहली बार लगा कि शादी कर लेनी चाहिये.’

‘और तुम…’

‘ मैं…मेरा क्या, अविनाश जी?’

“ओह – ओह ये स्त्रियां! अजूबा हैं. नहीं समझ पाता मैं इन्हें. मुझे खुद नहीं पता शाम को क्या होना है. पर तुम अब कोई बेवकूफी नहीं करोगी.’

डिनर के समय नीला नदारद थी. मामा जी और ब्रिगेडियर साहब के घेरे में अविनाश  ‘ना’ नहीं कह सका. हां में सर हिला देने के बाद का समय उसके लिए यूं बीता कि जैसे वह दर्शक हो सारी प्रक्रिया का और अविनाश का किरदार निभाता कोई और ही है.

घर का वही हिस्सा जो गेस्टहाउस था, शादी के बाद अविनाश और रेवा  का हो गया. तीन दिन के बाद दोनों को अलग-अलग दिशाओं में जाना है. उसकी बांहों में अलसाती रेवा उसका हाथ खींच अपने वक्ष पर रख लेती है. दो बजे हैं और वह उठ कर सिगरेट जलाता है, खिड़की में उठ कर आता है. सामने नीला के कमरे की लाइट जली है, और रेवा की बनाई अधूरी तस्वीर सामने वाली दीवार पर लगी है.