एक बार हाथ उठ जाता है तो फिर वह कभी भी उठ सकता है… और जब सामने वाला बर्दाश्त करता जा रहा हो तो बार-बार उठ सकता है. फिर भी बहुत अंतर था दोनों प्रसंगों में. रौशनी-प्रसंग में तो कमलेश्वर जी शरीर से कहीं ज्यादा उनकी भावनाओं को आहत प्रताड़ित कर रहे थे…भयंकर अपमानबोध की झुलसन अलग. कहते हैं कि लेखक संवेदनशील होते हैं पर कहां चली जाती है उनकी संवेदनशीलता पत्नियों के संदर्भ में?
फिल्मों का कायाकल्प करने वाले कमलेश्वर जी का इधर फिल्मों ने ही ऐसा कायाकल्प कर दिया कि वे खुद अब व्यावसायिक फिल्मों की ओर मुड़ गये. उनकी लिखी फिल्म ‘द बर्निंग ट्रेन’ के बुरी तरह फ्लाप होने के कारण निर्माता बी.आर. चोपड़ा का सारा पैसा डूब गया. पैसा तो निर्माता का डूबा था पर उसके बाद ऐसा कुछ हुआ कि कमलेश्वर जी फिल्मी दुनिया को अलविदा कह कर टीवी के एडीशनल-डाइरेक्टर होकर दिल्ली आ गये. यहां उन्हें सरकारी फ्लैट मिला था पर उस दौरान किसी भी मुलाकात की मुझे कोई याद नहीं. तनातनी तो उनकी राजेन्द्र से चलती थी पर अलगाव मुझसे भी हो ही जाया करता था. कुछ समय बाद उन्होंने टीवी भी छोड़ दिया… सुनने में तो यही आया कि धीरेन्द्र ब्रह्मचारी को लेकर उनका कुछ मतभेद चला और वे निकल आये. फिल्मी दुनिया और टीवी छोड़ने की वास्तविक और विस्तृत जानकारी मुझे आज तक नहीं है. उसी समय पेट्रियट संस्थान ने श्री आर.के. मिश्रा की देख-रेख में ‘गंगा’ नाम से एक नई हिंदी-पत्रिका का शुरुआत की और उसके पहले संपादक बने कमलेश्वर जी. उनके व्यक्तित्व के सारे नकारात्मक पहलुओं के बावजूद यह तो मानना पड़ेगा कि अपनी प्रतिभा के चलते वे जब जहां चाहते नौकरी पा लेते थे. ‘गंगा’ की ओर से उन्हें ग्रीन-पार्क में एक फ्लैट मिला… ग्रीन-पार्क यानी हमारे घर से इतना पास कि चाहो तो पैदल चले जाओ पर उसके बावजूद मिलना-जुलना बहुत ही कम हो गया था. मैं सोचा करती कि कहां तो सन 64 में दूर-दूर रह कर भी हम सप्ताह में चार दिन की शामें साथ गुजारते थे और आज पास रह कर भी बीस-पच्चीस दिन में कभी मिल भर लेते हैं. कभी वे आ जाते तो कभी हम चले जाते. हां, इतना जरूर कहूंगी कि राजेन्द्र से सारी खींचतान चलने के बावजूद मुझसे वे उतने ही सहज भाव से मिलते जैसे पहले मिला करते थे.
एक बार लिखने पढ़ने की बात चली तो उन्होंने बताया कि वे अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं या शायद लिखने जा रहे हैं. सुनते ही मैने पूछा- ‘लिख भी सकेंगे अपने बारे में सब सच-सच?’ मेरा इशारा वे समझ गये और बिना किसी संकोच के हंसकर बोले- ‘मन्नू, तुम भी बस एक ही बात को लेकर बैठी रहती हो. अब देखो आदमी जिंदगी के टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर चलते-चलते जब थक जाता है तो सुस्ताने के लिए किसी हरे-भरे पेड़ की छाया में थोड़ी देर बैठ जाता है- फिर चलता है, फिर थकता है तो सुस्ताने के लिए फिर किसी दूसरे पेड़ की छाया में बैठ जाता है… अब यह सिलसिला तो चलता ही रहता है- जरूरी जो है – और तुम हो कि, ‘और हंसने लगे. अपने सारे गुस्से के बावजूद हंसे बिना मुझसे भी न रहा गया. क्या विट कैसा रूपक बांधा है अपनी खुराफातों के लिए… और कैसी उसकी अदायगी. लगा जैसे बहुत पहले वाले कमलेश्वर जी जिंदा हो गये हों. चुप तो मैं भी नहीं रही, इतना जरूर कहा- ‘यह मत भूलिये कि जिंदगी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलती तो औरतें भी हैं और थकती भी हैं पर जिस दिन वे अपनी थकान मिटाने के लिए पेड़ों के नीचे बैठने लगेंगी तो बर्दाश्त कर सकेंगे?’ आश्चर्य कि मात्र दिखाने के लिए भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बैठो न तुम लोग भी… कौन मना करता है… केवल हंसते रहे. बात केवल कमलेश्वर जी की ही नहीं, केवल बातों में आधुनिकता बघारने वाली इनकी पूरी पीढ़ी की है जो ऐसे ही सामंती संस्कारों से ओत प्रोत थी. कमलेश्वर जी तो व्रत-उपवास के दौरान भाभी जब उनके पैर छूने आती तो बिना किसी दुविधा के अपने पैर आगे बढ़ा देते थे.
जहां कमलेश्वर जी के प्रशंसकों…चहेतों की बहुत बड़ी संख्या थी, वहीं उनके आलोचकों-निंदकों की भी कोई कमी नहीं थी. ‘गंगा’ पत्रिका हाथ में आते ही उन्होंने कलम से सबका हिसाब-किताब करना शुरू कर दिया. बातें तो याद नहीं पर इतना याद है कि राजेन्द्र के खिलाफ भी जाने क्या-क्या लिखा. राजेन्द्र कौन चूकने वाले थे, अपने ‘हंस’ के माध्यम से उन्होंने भी उतने ही तीखे प्रहार किये. हुआ यह कि ‘गंगा’ एक कीचड़ उछालू पत्रिका बनकर रह गई और कुछ समय बाद मिश्रा जी ने उसे बंद ही कर दिया. श्रीमती मिश्रा से मेरा पारिवारिक संबंध था- मैंने उनसे ‘गंगा’ के बंद करने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा- ‘ज्यादा तो मैं जानती नहीं पर पत्रिका को अपना हिसाब-किताब चुकता करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालने के लिए तो निकाला नहीं था सो उन्होंने पत्रिका बंद कर दी.’
‘गंगा’ पत्रिका के बाद कमलेश्वर जी ने फिर कभी नौकरी नहीं की. बस, पूरी तरह लिखने की दुनिया में लौट आए. हां, लिखने के साथ-साथ अब वे टीवी के लिए लिए पटकथाएं लिखते रहते थे. ‘गंगा’ पत्रिका के दौरान इनके और राजेन्द्र के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का जो सिलसिला चला था, उसके बाद राजेंद्र से तो इनके संबंध पूरी तरह समाप्त ही हो गए मुझसे जरूर कभी-कभी फोन पर बात कर लिया करते थे. भाभी बहुत आग्रह से मिलने के लिए भी बुलाती, पर कभी जाना संभव ही नहीं हुआ. बस, एक मुलाकात की याद जरूर है उन दिनों ये गिरजा झवेरी (बदला हुआ नाम) नाम की अपनी एक मित्र के साथ टीवी के लिए एक सीरियल बनाने की योजना बना रहे थे.
इधर-उधर की बातचीत के बाद दो टूक शब्दों में उन्होंने कहा- ‘देखो मन्नू, मैंने गायत्री, मानू (बेटी) और उसके पति को सामने बिठाकर साफ-साफ कह दिया कि नीना से मेरे संबंध बहुत घनिष्ठ हो गए हैं और इस संबंध को तुम्हें भी स्वीकार करना ही होगा. यहां तो मैं रहूंगा ही पर बंबई जाकर उसके पास भी रहा करूंगा.’ भाभी सिर झुकाए सामने ही बैठी थीं. वे शायद अपनी स्वीकृति दे चुकी थीं… आज तक कमलेश्वर जी ने जितने भी संबंध बनाए सबको स्वीकारती ही तो आई हैं. उनकी तो बस, एक ही आकांक्षा थी कि कमलेश्वर जी जो चाहे करें… जिससे चाहें संबंध बनाएं बस यह घर न तोड़ें… उन्हें न छोड़ें. जब उनके परिवार को कोई आपत्ति नहीं तो भला मैं किस मुंह से प्रतिरोध करती? हां, मन में एक प्रश्न जरूर आया कि कभी बंद भी होगा यह सिलसिला या नहीं? भाभी के सामने यह सब सुनने के बाद मेरे लिए और ज्यादा देर तक वहां बैठे रहना संभव नहीं था. मैं लौट आई.
दूसरा प्रसंग फोन पर हुई बातचीत का है. इस घटना के काफी दिन बाद अपनी लेखकीय-यात्रा के दौरान नई कहानी की इस तिकड़ी के आपसी संबंधों के सिलसिले में मैंने ही किया था यह फोन और पूछा था- ‘कमलेश्वर जी, नई कहानियां के सौजन्य संपादक की हैसियत से राकेश जी आपके पास अपने आदेशों की जो छोटी-छोटी पर्चियां लिखकर भेजते थे, मैं जानना…’ उन्होंने मुझे वाक्य भी पूरा नहीं करने दिया और इस कदर भभक पड़े… ‘क्या बकवास कर रही हो तुम… मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम इतनी गिरी हुई औरत हो… ऐसी घटिया हरकत भी कर सकती हो, क्यों तुम दोनों पति-पत्नी राकेश की छवि खराब करने में लगे हो. पहले तो राजेंद्र यादव ने पुष्पा (राकेश जी की दूसरी पत्नी) को टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस में भेजकर हंगामा खड़ा करवाया और अब तुम हो कि इस कमीनेपन पर उतरी हुई हो… अरे, राकेश ने तो इतना स्नेह… इतना प्यार… इतना सम्मान दिया है मुझे- वो क्या भेजेगा पर्चियां पर तुम हो कि, ‘मैंने फोन काट दिया. ये क्या हो गया है कमलेश्वर जी को? मेरे नाम के आगे ऐसे विशेषण तो आज तक मेरे किसी दुश्मन ने भी नहीं लगाये थे फिर कमलेश्वर जी! पहली बात तो यही उभरी कि शायद इन्होंने बुरी तरह पी रखी है इन्हें खुद भी होश नहीं होगा कि क्या बोल रहे हैं. या कहीं ऐसा तो नहीं कि आज यश और धन के ढेर पर बैठकर अब ये बर्दाश्त ही नहीं कर सकते कि कोई उनके संकट के दिनों पर उंगली भी रखे! जो भी हो, उसके बाद मैंने भी फोन करना बंद कर दिया.
इस बात को लंबा समय गुजर गया. इतना जरूर सुना कि वे अपने सूरजकुंड वाले मकान में शिफ्ट हो गए हैं. कभी-कभी बीमारी की खबर भी सुनने को मिली… पर फिर भी फोन नहीं किया. एक दिन अचानक उनका ही फोन आया- बड़ी प्रसन्न मुद्रा में, ‘मन्नू, मैंने तुम्हारे कहानी-संग्रह की भूमिका लिख दी है… पर इसे प्रकाशक को तभी दूंगा जब तुम एक बार यहां आकर उसे सुन लोगी.’ मैं हैरान. मैंने तो आज तक अपने किसी भी कहानी संग्रह की भूमिका न कभी खुद लिखी…न किसी और से लिखवाई फिर यह… मेरी चुप्पी तोड़ते हुए वे बोले- ‘प्रवीण-प्रकाशन’ वालों ने कहा था- ‘मेरी श्रेष्ठ प्रेम कहानियां’ संकलन की भूमिका लिखने के लिए. अब तुम्हारा संकलन था तो लिखनी तो थी ही… इसी बहाने तुम आओगी तो मिलना भी हो जाएगा. कितने दिन हो गए तुमसे मिले भी- कितनी पुरानी मित्रता हम लोगों की…कभी-कभी तो मिलते रहना चाहिए न?’ वही अपनापन… वही लगाव भरा निमंत्रण! सचमुच मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे लूं उनकी इस बात को… पुराने फोन से जो घाव किए, उन पर मलहम लगाने की कोशिश या पुरानी मित्रता का हवाला देकर मेरी कमजोर नस पर हाथ रखने की कोशिश?
‘मैं तो आपका घर भी नहीं जानती शायद बहुत दूर है.’