यहां कुछ समय तो कमलेश्वर जी का अच्छा बीता पर समय को तो बदलना ही था सो बदला और हालात भी बदले… लेखन बदला और लेखक भी बदले. कथा समारोह में ये लोग पुरानी पीढ़ी को ध्वस्त करके आए थे पर वहां साठोत्तरी पीढ़ी की कहानियों की चर्चा भी हुई थी. युवा आलोचक देवी शंकर अवस्थी ने इन कहानीकारों और इनकी कहानियों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए ‘नई कहानी’ से इसकी विभाजन रेखा खींचने का सिलसिला शुरू कर दिया था. हो सकता है कि कमलेश्वर जी को यह स्थिति ‘नई कहानी’ और अपने लिए खतरे की घंटी लगी हो सो उन्होंने इस पीढ़ी को ध्वस्त करने के लिए ‘ऐय्याश प्रेतों का विद्रोह’ नाम से एक धांसू लेख लिख डाला था, जो धर्मयुग के दो अंकों में प्रकाशित हुआ था.
इस पीढ़ी के कथाकारों ने लिखना तो सन 60 में ही शुरू कर दिया था और कमलेश्वर जी ने खुद इनकी कहानियों को ‘नई कहानियां’ में छापा था पर तब स्थिति बिल्कुल दूसरी थी. उस समय कमलेश्वर जी का वरदहस्त इन लेखकों के सिर पर था और मन में था ‘नई प्रतिभाओं ‘को सामने लाने का गुरूर. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. इनके वरदहस्त से पूरी तरह मुक्त होकर आज ये अपने दम-खम पर खड़े ही नहीं थे बल्कि नये कहानीकारों और उनकी कहानियों को हाशिये पर सरकाकर कहानी के केंद्र में भी आ गए थे. कहानी के प्रतिष्ठित आलोचक भी उनकी कहानियों पर बोलने-लिखने लगे थे. यह बहुत स्वाभाविक भी था क्योंकि इनकी कहानियां सभी दृष्टि में नई कहानी से बिल्कुल भिन्न थी. जीवन-जगत को देखने का इनका नजरिया भिन्न था… इनकी संवेदना भिन्न थी… इनकी मानसिकता बिल्कुल भिन्न थी… परिवार और संबंधों के प्रति इनका रवैया बिल्कुल भिन्न था और भाषा-शैली भी इन्होंने भिन्न ही अपनाई. नई कहानी को हाशिये पर जाना ही था सो गई.
स्थिति को देखते हुए राकेश जी ने अपनी विधा ही बदल दी और वे नाटकों की ओर मुड़ गये. काफी पहले उनका नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ बहुत लोकप्रिय ही नहीं, चर्चित, पुरस्कृत और मंचित भी हो चुका था. यहां उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था और उनके लिए बड़ा आश्वस्तिदायक था यह क्षेत्र. इधर मुड़कर उन्होंने ‘आधे अधूरे’ नामक जो नाटक लिखा उसने तो धूम ही मचा दी… बहुत कुछ तो नाटक के कारण और कुछ धूम मचाने की कला में उनकी सिद्धहस्तता के कारण. जो भी हो वे नाटक के क्षेत्र के सिरमौर बन गये थे. राजेंद्र जी आलोचना की ओर मुड़ गये और उन्होंने ‘कहानी : स्वरूप और संवेदना’ नाम से दो पुस्तकें लिख डालीं. रह गये कमलेश्वर जी सो सारिका के साथ जुड़े होने के कारण कहानी में ही बने रहना उनकी मजबूरी थी पर ऐसी मजबूरियों में से भी अपने लिए नये रास्ते निकाल लेना उनके लिए मुश्किल बात नहीं थी सो उन्होंने ‘नई कहानी’ को तो अलविदा कहा और ‘समान्तर कहानी’ नाम से एक नया आंदोलन शुरू कर दिया जिसके पुरोधा भी वही थे और सर्वेसर्वा भी वही थे. सारिका के माध्यम से इस आंदोलन की वैचारिक पृष्ठभूमि को लेकर बड़ी लंबी-चौड़ी बातें बघारी गईं पर दुर्भाग्य से इस आंदोलन ने न तो एक भी अच्छा कथाकार पैदा किया और न ही इसके माध्यम से कुछ अच्छी कहानियां सामने आईं.
पता नहीं सारिका के दिनों की शोहरत के कारण या टीवी कार्यक्रमों की लोकप्रियता के कारण फिल्म वालों का ध्यान इनकी ओर गया या इन्होंने ही कुछ और जोड़-तोड़ करके फिल्मी दुनिया में प्रवेश करने की जुगत बिठाई. जो भी हो ‘समान्तर कहानी’ की असफलता के बाद कमलेश्वर जी फिल्मों की ओर मुड़ गये. उनकी आरंभिक फिल्में अच्छी भी थीं जैसे- ‘अमानुष’ ‘आंधी’ ‘मौसम’ आदि. उसी दौर में उन्होंने कुछ ऐसे लेख भी लिखे जिसमें साहित्यकारों के फिल्म से जुड़ने की पैरवी की गई थी. उनका कहना था कि फिल्म जैसे सशक्त माध्यम को सुधारना है… उसका कायाकल्प करना है तो जरूरी है अच्छे साहित्यकार उसके साथ जुड़ें पर दुर्भाग्य या सौभाग्य से कोई भी साहित्यकार फिल्मों से नहीं जुड़ा. अब कमलेश्वर जी की स्थिति यह थी कि नौकरी तो सारिका की कर रहे थे पर जुड़ाव फिल्मों के साथ ज्यादा था… यहां तक कि फिल्मी हस्तियां सारिका के आफिस में ही इनसे मिलने चली आती थीं. सारिका के प्रबंधकों को यह सब नागवार तो गुजरना ही था सो उन्होंने ‘सारिका’ को ही दिल्ली ले जाने का निर्णय ले लिया. फिल्मों के कारण कमलेश्वर जी तो बंबई छोड़ नहीं सकते थे सो सारिका ने उन्हें छोड़ दिया.
विभिन्न क्षेत्रों को अपने कब्जे में रखने का भरपूर कौशल ही नहीं कमलेश्वर जी के पास वैसी प्रतिभा भी थी सो सारिका से हटते ही उन्होंने जितेन्द्र भाटिया के साथ मिलकर ‘कथा-यात्रा’ नामक नई पत्रिका निकालने की योजना बना डाली. उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ था कि उनके प्रशंसकों और चहेतों की कभी कोई कमी नहीं रही. कई लोग इस योजना के साथ जुड़ गये और पत्रिका निकल भी गई. बहरहाल पत्रिका के चार अंक निकले कि जितेन्द्र के आफिस से तबादले का आदेश आ गया. पांचवें अंक की सामग्री उन्होंने जुटा दी थी पर अंक निकला उनके जाने के बाद और उनके जाते ही पत्रिका ठप्प हो गई. जाहिर है सारा काम जितेंद्र अकेले ही संभाल रहे थे.
फिल्मों के साथ-साथ कमलेश्वर जी की ऐय्याशी के किस्से भी जब-तब सुनाई देते रहते. दिल्ली आने पर एक बार बासु चटर्जी (फिल्म निर्देशक) ने बताया, ‘मालूम है, आपके कमलेश्वर जी के एक बेटा रौशनी सचदेव (बदला हुआ नाम) से भी है.’ तो मैं विश्वास ही नहीं कर सकी. मेरे अविश्वास करने पर उन्होंने गोद में बच्चा खिलाती हुई रौशनी से अपनी बातचीत जस की तस सुना दी. याद आई रवींद्र कालिया की अपनी शैतानियत में लिपटी वह बात, ‘मैं जब बंबई गया था तो मुझे वहां कई छोटे-छोटे कमलेश्वर घूमते नजर आए थे.’ पहली बार कमलेश्वर जी के लिए मन में एक धिक्कार-भाव फूटा और मेरे सामने गायत्री भाभी का पहली मुलाकात वाला चेहरा घूम गया, उदास, आभाहीन. हो सकता है कि ऐसा एक तो दीपा संबंध के दंश की वजह से हो… दूसरा इस भय से कि इस संबंध के चलते कमलेश्वर जी कहीं उन्हें छोड़ ही न दें. उस पीढ़ी के लेखकों में पत्नियों को छोड़कर प्रेमिकाओं के साथ रहने का आम प्रचलन था ही… अश्क जी, भारती जी, राकेश जी के उदाहरण सामने थे, सो यह भय भी स्वाभाविक ही था. कमलेश्वर जी के सामने हीन-भाव से ग्रस्त भाभी सब कुछ बर्दाश्त करने के लिए तैयार थीं… कर भी रही थीं जिससे इस स्थिति में बची रह सकें. पर उनकी सहनशीलता पर कितने और आघात करेंगे कमलेश्वर जी? या शातिराना अंदाज में इस बेटे के लिए भी पहले बेटे की तरह कोई किस्सा गढ़कर सुना दिया हो भाभी को.
वह किस्सा पहली बार मुझे सुधा ने सुनाया था. सारिका के दिनों से ही जितेंद्र-सुधा अक्सर कमलेश्वर जी के यहां जाया करते थे. भाभी के लिए भी वे सबसे अच्छे दिन थे. उन्हीं दिनों कमलेश्वर जी की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए एक दिन भाभी बोलीं, ‘ये तो इतने भोले हैं कि क्या बताऊं, सबकी मदद करने को हमेशा तैयार… अब देखिए, दीपा के जो बेटा है वह है तो दुष्यंत जी का, पर दुष्यंत जी उसे अपना नाम देने को तैयार ही नहीं. उनकी बीवी को पता लग गया तो वो तो हड़कंप मचा देगी… उनका तो घर ही टूट जाएगा. इसलिए इन्होंने मुझसे कहा कि गायत्री यदि तुम कहो तो मैं अपना नाम दे दूं. अब बच्चे के लिए तो बाप का नाम चाहिए न! पर तुम कहोगी तभी दूंगा. अब देखिए न सुधा जी, मुझे सारी बात बताई… मुझ से पूछा तो मैं भी भला कैसे मना कर देती? इनका तो स्वभाव ही ऐसा है कि सबकी मदद करने को हमेशा तैयार! ‘सुधा ने मुझे जब यह बात बताई तो पहली प्रतिक्रिया तो यह हुई… ‘वाह! जवाब नहीं, कमलेश्वर जी आपका भी.’ और ये भाभी इतने दिन साथ रहकर भी नहीं जान पाईं कि झूठ तो इनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है. बाद में गंगा प्रसाद विमल, चित्रा मुद्गल के मुंह से भी ऐसा ही किस्सा सुना तो लगा कि उन्होंने उस बेटे को अपनी जिंदगी से खारिज ही कर दिया, कभी जिसकी तस्वीर अपने पर्स में लेकर घूमा करते थे, जिससे उन्हें बहुत लगाव था और जो ‘कथा-यात्रा’ के पते पर उन्हें बहुत भावपूर्ण चिट्ठियां लिखा करता था. उसे खारिज करने की भी एक कहानी है पर वह फिर कभी.
एक तो कमलेश्वर जी की अपनी ही वृत्ति, दूसरे फिल्मी दुनिया का वह माहौल, सो छुट-पुट प्रेम प्रसंगों की चर्चा जब-तब हमारे सुनने में भी आ जाती. रौशनी का मामला थोड़े मजबूत पायों पर टिका था. एक तो जुहू वाला फ्लैट उसने अपने कब्जे में कर रखा था दूसरे एक बेटा भी था. पर जब सुना कि रौशनी को लेकर कमलेश्वर जब-तब गायत्री भाभी पर हाथ उठाते रहते हैं तो बरसों पुरानी एक घटना आंखों के आगे कौंध गई!
सन 72 में राकेश जी की आकस्मिक मृत्यु की सूचना मिलते ही कमलेश्वर जी ने भाभी को तो उसी शाम बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में चढ़ा दिया और खुद भारती जी के साथ सवेरे फ्लाइट से दिल्ली पहुंचे. इन लोगों के आने के बाद ही अंतिम संस्कार हुआ. हम लोग भी सवेरे से वहां बैठे थे. शव जाने के कुछ देर बाद गायत्री भाभी पहुंचीं. उनकी लस्तपस्त हालत ही बता रही थी कि बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में उन्हें काफी तकलीफ उठानी पड़ी है. आते ही अनीता से मिलकर रोने-धोने का दौर तो समाप्त हुआ पर वहां उन्हें चाय के लिए भी कोई पूछ सके, ऐसी स्थिति नहीं थी. एक बजे के करीब जब हम घर जाने के लिए उठे तो मैं गायत्री भाभी को खींचकर अपने साथ ले आई. घर लाकर उन्हें चाय पिलाई, नहाने की व्यवस्था की. खाना खिलाया और कहा कि अब थोड़ा आराम कर लें. कोई तीन बजे के करीब अचानक कमलेश्वर जी प्रकट हो गये. दरवाजा मैंने ही खोला था. मुझे देखते ही बोले, ‘मन्नू, विश्वास ही नहीं होता कि राकेश चला गया…’ उनकी आवाज सुनते ही भाभी निकल आईं. भाभी को वहां देखकर उनका दुख एकाएक गुस्से में बदल गया… ‘तुम यहां?’ गिड़गिड़ाती-सी भाभी बोलीं, ‘मैं नहीं आ रही थी ये तो मन्नू जी मुझे खींचकर ले आईं कि घर चलकर कुछ खा लो.’ उनकी पीठ पर भरपूर हाथ का एक धौल जमाते हुए दहाड़े कमलेश्वर, ‘यहां खाने-पीने के लिए आई हो या अनीता के पास बैठने के लिए? लो मैं खिलाता हूं तुम्हें,’ और भाभी को अपनी ओर खींचकर वे दूसरा धौल जमाने ही वाले थे कि मैं बीच में आ गई, ‘क्या कर रहे हैं आप? बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में रवाना कर दिया उन्हें… हालत देखी है उनकी!’ कमलेश्वर जी शायद थोड़ी देर रुकने के लिए आए थे… रोना चिल्लाना सुनकर राजेंद्र भी निकल आए. उन्होंने भी कमलेश्वर को रोकने की बहुत कोशिश की पर वे बिल्कुल नहीं रुके और रोती गिड़गिड़ाती भाभी को घसीटते हुए ले गये.