भारत पर क़र्ज़ का अनुपात कुल जीडीपी का 90 फ़ीसदी हो गया है : आईएमएफ रिपोर्ट
सरकार प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा समर्थक सोशल मीडिया की देश को क़र्ज़ से मुक्ति दिलाने की लुभावनी, लेकिन भ्रमित करने वाली कहानियों के विपरीत भारत पर क़र्ज़ का पहाड़ इतना बड़ा हो गया है कि कोविड-19 की वर्तमान बदतर स्थिति और सम्भावित लॉकडाउन भारत को आने वाले समय में चिन्ताजनक आर्थिक स्थिति की तरफ़ धकेल सकते हैं। मोदी सरकार के बड़े पैमाने पर निजीकरण और सरकारी सम्पतियों को निजी हाथों बेच देने के बीच अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 90 फ़ीसदी के अनुपात तक क़र्ज़ हो गया है। यूपीए की सरकार के समय यह 2013-14 में 75,66,767 करोड़ अर्थात् जीडीपी का 67.4 फ़ीसदी ही था। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी भारत के सबसे ज़्यादा ते ज़ क़र्ज़ लेने वाले प्रधानमंत्री बन गये हैं। क़र्ज़ का एक नु क़सानदेह पहलू यह है कि इसके कारण केंद्र सरकार के ख़र्च हुए हर एक रुपये में से 25 पैसे ब्याज का भुगतान करने में ही ख़र्च हो जाएगा, जिसका सीधा असर विकास पर पड़ेगा। ऊपर से तुर्रा यह है कि 2021-22 के वित्त वर्ष के लिए भी मोदी सरकार ने 12 लाख करोड़ के भारी भरकम क़र्ज़ की तैयारी कर ली है। एक और रिपोर्ट है, जो चिन्ता पैदा करती है। रिसर्च ग्रुप प्यू रिसर्च सेंटर की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक, 45 साल बाद भारत फिर सामूहिक $गरीबी की श्रेणी वाले देशों में शामिल हो गया है।
देश की इस छवि के बीच अमेरिका ने इसी 21 अप्रैल को भारत को तब बड़ा झटका दिया, जब उसने भारत को 10 अन्य देशों के साथ करेंसी मैनिपुलेटर्स (मुद्रा के साथ छेड़छाड़ करने वाला) देश की निगरानी सूची में डाल दिया। भारत ने अमेरिका के इस ऐलान के बाद कहा कि इस फ़ैसले में कोई आर्थिक तर्क समझ नहीं आता। आर्थिक जानकारों के मुताबिक, करेंसी मैनिपुलेटर्स की सूची में भारत का शामिल होना कोई अच्छी ख़बर नहीं, क्योंकि इससे भारत को विदेशी मुद्रा बा ज़ार में आक्रामक हस्तक्षेप करने में परेशानी आएगी। अमेरिका का कहना है कि वह सूची में उन देशों को ही डालता है, जो मुद्रा के अनुचित व्यवहार अपनाते हैं, ताकि डॉलर के मु क़ाबले उनकी ख़ुद की मुद्रा का अवमूल्यन हो सके।
कोरोना महामारी के बाद देश का क़र्ज़ जीडीपी अनुपात के ख़तरनाक स्तर पर पहुँच गया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की 8 अप्रैल को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में देश का जो क़र्ज़ 74 फ़ीसदी था, वह कोरोना और लॉकडाउन के बाद बढक़र 90 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। साल 2020 में देश की कुल जीडीपी 189 लाख करोड़ रुपये थी, जबकि क़र्ज़ क़रीब 170 लाख करोड़ रुपये था। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोविड-19 का फिर से और पहले से ज़्यादा ख़तरनाक रूप से सामने आना भारत की अर्थ-व्यवस्था के लिए ख़राब साबित हो सकता है। यदि ऐसा हुआ, तो दिसंबर से मार्च के बीच अर्थ-व्यवस्था में सुधार और उगाही की गति देखने को मिल रही थी, वह बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। अर्थ-व्यवस्था में सुधार और उगाही को देखते हुए आर्थिक जानकार अनुमान लगा रहे थे कि इससे देश का क़र्ज़-जीडीपी अनुपात बेहतर होकर 90 से क़रीब 10 फ़ीसदी नीचे जाकर 80 फ़ीसदी तक पहुँच सकता है, जो थोड़ी-बहुत राहत की बात होगी। लेकिन कोरोना वायरस के दोबारा पाँव पसारने से इस अनुमान पर ख़तरे की बादल मँडरा रहे हैं। बता दें यदि किसी देश पर क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात बढ़ता है, तो उसके दिवालिया होने की आशंका उतनी अधिक हो जाती है। विश्व बैंक के अनुसार, अगर किसी देश में बाहरी क़र्ज़ यानी विदेशी क़र्ज़ उसके जीडीपी के 77 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जाए, तो उस देश को आगे चलकर बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा होने पर किसी देश की जीडीपी 1.7 फ़ीसदी तक गिर जाती है। ‘तहलका’ की जुटायी जानकारी के मुताबिक, भारत ने वित्त वर्ष 2021-22 में (मार्च 31, 2021 तक) क़रीब 12 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के वित्तीय मामला विभाग के उप निदेशक पाओलो मॉरो ने कहा कि कोरोना महामारी से पहले साल 2019 में भारत पर क़र्ज़ का अनुपात जीडीपी का 74 फ़ीसदी था। लेकिन साल 2020 में यह जीडीपी के क़रीब 90 फ़ीसदी तक आ गया है। उनके मुताबिक, यह बड़ी बढ़त है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे उभरते बा ज़ारों या उन्नत अर्थ-व्यवस्थाओं की भी कमोवेश यही हालत है। हमारा अनुमान है कि जिस तरह से देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार होगा, देश का क़र्ज़ भी कम होगा और जल्द ही यह क़र्ज़ 80 फ़ीसदी पर पहुँच जाएगा। हालाँकि यह भी सच है कि भारत में वर्तमान कोविड-19 स्थिति ने इस उम्मीद के लिए गम्भीर चुनौती खड़ी कर दी है।
आर्थिक कुप्रबन्धन के आरोप मोदी सरकार पर पहले से लगते रहे हैं। ऊपर से कोरोना और लम्बे लॉकडाउन और अब दोबारा वैसी ही स्थिति बनने से आर्थिक मोर्चे पर दोबारा गम्भीर स्थिति बन गयी है। देश में आर्थिक वृद्धि पर कोरोना वायरस की वजह से बड़ी मार पड़ी है। निर्यात बुरी तरह से प्रभावित हुई है और छोटे कारोबारियों की कमर टूट गयी है। आम आदमी की जेब में पैसा नहीं है। ऐसे में देश पर क़र्ज़ का यह बोझ चिन्ता पैदा करता है। क़र्ज़-जीडीपी अनुपात या सरकारी क़र्ज़ अनुपात के ज़रिये किसी भी देश के क़र्ज़ चुकाने की क्षमता का पता चलता है। जिस देश का क़र्ज़-जीडीपी अनुपात जितना ज़्यादा होता है उस देश को क़र्ज़ चुकाने के लिए उतनी ही ज़्यादा परेशानी झेलनी पड़ती है।
सरकार के दावे
वैसे अनुपात को लेकर भी मत साफ़ है। ज़्यादातर उन्नत देशों में क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 40 से 50 फ़ीसदी रहता है। वित्त वर्ष 2014-15 में जब मोदी सरकार सत्ता में आयी थी, तो देश का क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात क़रीब 67 फ़ीसदी था। वैसे देश का जो भी कुल क़र्ज़ होता है, वह केंद्र और राज्य सरकारों के क़र्ज़ का योग होता है।
भले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि ग्रोथ को बनाये रखने के लिए अर्थ-व्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए मोदी सरकार ने कई क़दम उठाये हैं, लेकिन ज़मीनी ह क़ी क़त चिन्ता पैदा करने वाली है। कोरोना वायरस और लॉकडाउन से उपजी स्थितियों के कारण सरकार के राजस्व में जिस तरह से कमी हुई है, उसने भी मोदी सरकार को ज़्यादा क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर किया है। जानकारों के मुताबिक, कोरोना की वर्तमान गम्भीर स्थिति को देखते हुए अगले कुछ साल तक यही स्थिति बनी रह सकती है, भले ही सरकार दावे कर रही हो कि इन सबके बावजूद भारत में क़र्ज़ बोझ की स्थिति संतुलित रहेगी। आरबीआई की हाल की एक रिपोर्ट में भी यह कहा गया है कि भारत सरकार को राजस्व बढ़ाने के तमाम प्रयास करने होंगे।
सरकार के वित्त प्रबन्धकों का दावा है कि क़र्ज़ अदायगी को लेकर कोई समस्या नहीं आएगी; क्योंकि भारतीय अर्थ-व्यवस्था की स्थिति क़र्ज़ सँभालने लायक है। उनके मुताबिक, देश की जीडीपी के मु क़ाबले सरकार पर क़र्ज़ का अनुपात भले आज 90 फ़ीसदी पहुँच गया है, वर्ष 2026 तक घटकर यह 85 फ़ीसदी तक आ जाएगा। आरबीआई की रिपोर्ट में भी यह बात कही गयी है। आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2020-21 में भारत ने बजटीय राजस्व का 25 फ़ीसदी हिस्सा क़र्ज़ चुकाने में ख़र्च किया, लेकिन भारत पर ब क़ाया क़र्ज़ की परिपक्वता अवधि 11 साल से ज़्यादा की है और इसमें विदेशी क़र्ज़ की हिस्सेदारी दो फ़ीसदी ही है।
आपको बता दें जीडीपी का अर्थ है- देश के कुल उत्पाद, बिक्री, ख़रीद और लेन-देन का निचोड़। यदि इसमें वृद्धि है, तो पूरे देश का लाभ है। इससे ही सरकार को ज़्यादा टैक्स हासिल होगा, कमायी ज़्यादा होगी और तमाम कामों पर और उन लोगों पर ख़र्च करने के लिए ज़्यादा पैसा होगा, जिन्हें मदद की ज़रूरत है। इसके विपरीत यदि ग्रोथ कम ज़ोर हुई, तो समझो बेड़ा गर्क। देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति को इसी दौर से गु ज़रता हुआ कहा जा सकता है। कोरोना वायरस के कारण वास्तव में देश की अर्थ-व्यवस्था को कितना नु क़सान होने वाला है, इसके बारे में केंद्र सरकार खुलकर कहने से हिचकती रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोरोना वायरस का संकट विकराल होता है, तो जीडीपी बड़ी गिरावट की तरफ़ बढ़ सकती है।
और क़र्ज़ की योजना
सरकार का कहना है कि आकस्मिक परिस्थितियों में भारत अपनी मुद्रा में भी क़र्ज़ चुकाने की क्षमता रखता है। साथ ही भारत की आर्थिक विकास दर विदेशी क़र्ज़ पर औसत देय ब्याज में होने वाली सालाना वृद्धि दर से ज़्यादा रहेगी। पिछले वित्त वर्ष के पहले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई, 2020) के दौरान केंद्र और राज्यों के राजस्व में बड़ी गिरावट हुई। कोरोना के बाद देशव्यापी लॉकडाउन से यह स्थिति बनी। आम बजट 2020-21 में मोदी सरकार ने बा ज़ार से सात लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ का अनुमान रखा था; लेकिन ह क़ी क़त में सरकार को मार्च, 2021 तक 12.80 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लेना पड़ा। अब 2021-22 के वित्त वर्ष में मोदी सरकार ने 12.05 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ की योजना बनायी है। लेकिन कोरोना वायरस से जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, वो संकेत दे रही हैं कि यह आँकड़ा 15 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच सकता है, जिससे क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात 90 फ़ीसदी से का फ़ी आगे चला जाएगा, जो बेहद चिन्ताजनक स्थिति होगी। आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि सि$र्फ केंद्र सरकार पर ही क़र्ज़ का अनुपात स्तर जीडीपी के मु क़ाबले 64.3 फ़ीसदी हो गया है, जो राज्यों को मिलाकर वर्तमान में जीडीपी के 90 फ़ीसदी से अनुपात से अधिक है। आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक, दुर्भाग्य से यदि भारत की आर्थिक विकास दर के नतीजे विपरीत आते हैं, तो आर्थिक स्थिति भयावह होने का बड़ा ख़तरा देश के सामने है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारी भरकम क़र्ज़ के कारण ही मौजूदा माली साल में राजकोषीय घाटा 9.5 फ़ीसदी है, जो एक रिकॉर्ड है। सितंबर, 2020 तक भारत का कुल सार्वजनिक क़र्ज़ 1,07,04,293.66 करोड़ रुपये (107.04 लाख करोड़ रुपये से अधिक) तक पहुँच गया, जो जीडीपी के क़रीब 68 फ़ीसदी के बराबर है। इस क़र्ज़ में इंटरनल डेट 97.46 लाख करोड़ और एक्सटर्नल डेट 6.30 लाख करोड़ रुपये का था। वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 साल में क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 67 से 68 फ़ीसदी के बीच रहा है। सार्वजनिक क़र्ज़ में केंद्र और राज्य सरकारों की कुल देनदारी शामिल है, जिसका भुगतान सरकार की समेकित राशि (इंटीग्रेटेड फंड) से किया जाता है।
सत्ता में आने से पहले अर्थ-व्यवस्था को लेकर नरेंद्र मोदी के जो विचार थे, वो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद बिल्कुल बदल गये हैं। आर्थिक सुधारों के नाम पर देश के संसाधनों और बैंकों आदि का व्यापक निजीकरण करने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर गम्भीर सवाल उठ रहे हैं। आश्चर्य यह है कि मोदी कुछ साल पहले तक इस तरह के बैंकों के निजीकरण के फ़ैसलों के अपने ही वित्त मंत्री अरुण जेटली के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ दिखते थे। मोदी की शैली के समर्थक भले उनके अभियान और नीति को कथित आत्मनिर्भरता के रूप में देखते हों, ज़्यादातर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी राजस्व के ढेर होने जैसी स्थिति में पहुँचने के कारण सरकार को चलाने के लिए सरकारी सम्पत्तियों, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के ब्लू चिप उपक्रम, बैंक और गैस पाइपलाइन, पॉवर ग्रिड आदि जैसे बुनियादी ढाँचे शामिल हैं; को पैसे का इंत ज़ाम करने के लिए सरकारी सम्पत्तियाँ बेचना भविष्य में बहुत घातक साबित हो सकता है।
क़र्ज़ और उसका असर
यह जानना भी ज़रूरी है कि क़र्ज़ लिया कैसे जाता है? दरअसल क़र्ज़ लेने के सरकार के दो तरी क़े हैं। एक आंतरिक (इंटरनल) और दूसरा बाहरी (एक्सटर्नल) यानी विदेश से क़र्ज़। आंतरिक क़र्ज़ बैंकों, बीमा कम्पनियों, रिजर्व बैंक, कॉरपोरेट कम्पनियों, म्यूचुअल फंड कम्पनियों आदि से लिया जाता है, जबकि विदेशी क़र्ज़ मित्र देशों, आईएफएम विश्व बैंक जैसी संस्थाओं और एनआरआई आदि से लिया जाता है। विदेशी क़र्ज़ का बढऩा अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि इसका जब सरकार को भुगतान करना होता है, तो यह अमेरिकी डॉलर या अन्य किसी विदेशी मुद्रा में करना पड़ता है। इससे देश का विदेशी मुद्रा प्रभावित होता है और उसमें कमी आती है। इंटरनल डेट में सरकार सरकारी प्रतिभूतियों (जी-सिक्यूरिटीज) के ज़रिये लोन लेती है। सरकार के लिए वह सारा धन क़र्ज़ ही होता है, जो बा ज़ारी स्थायीकरण ऋण-पत्र (मार्केट स्टेबिलाइजेशन बॉन्ड), राजकोष विपत्र (ट्रेजरी बिल), विशेष सुरक्षा (स्पेशल सिक्योरिटीज), स्वर्ण ऋण-पत्र (गोल्ड बॉन्ड), छोटी बचत योजना (स्माल सेविंग स्कीम), न क़दी प्रबन्धन विपत्र (कैश मैनेजमेंट बिल) आदि से आता है। किसी का भी जी-सिक्यूरिटीज (जी-सेक) या सरकारी ऋण-पत्र में निवेश एक तरह से सरकार को क़र्ज़ देना ही होता है और सरकार एक तय व क़्त के बाद तय ब्याज के साथ सरकार यह क़र्ज़ लौटाती है। विकास के कई कामों जैसे सडक़, स्कूल भवन आदि के निर्माण के लिए अक्सर सरकार इस तरह के जी-सेक जारी करती है।
एक साल से कम परिपक्वता अवधि वाले जी-सेक को राजकोष विपत्र कहा जाता है, जबकि इससे अधिक अवधि वाले जी-सेक सरकारी ऋण-पत्र कहलाते हैं। उधर राज्य सरकारें सि$र्फ बॉन्ड जारी करती हैं, जिन्हें राज्य अवमूल्यन ऋण (स्टेट डेवलपमेंट लोन्स) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सरकार ऑफ बजट क़र्ज़ भी लेती है। केंद्र सरकार इनका बजट में ज़िक्र नहीं करती न ही इसका असर राजकोषीय घाटे में दिखाया जाता है। केंद्र या राज्य सरकारों का क़र्ज़ जब तय सीमा से बाहर निकल जाता है, तो रेटिंग एजेंसियाँ सरकार या राज्य सरकार की रेटिंग घटा देती हैं, जिसका नु क़सान निवेश पर पड़ता है; क्योंकि विदेशी निवेशक एफडीआई के रूप में निवेश से हिचकते हैं और कम्पनियों के लिए भी क़र्ज़ महँगा हो जाता है।
क़र्ज़ का बढ़ता पहाड़
दुनिया भर में क़र्ज़दार देशों की सूची में भारत का आठवाँ स्थान है। अर्थात् दुनिया में सबसे ज़्यादा क़र्ज़ में डूबे देशों में हम आठवें स्थान पर हैं। भारत पर कुल 1,851 अरब डॉलर से ज़्यादा का क़र्ज़ है। वैश्विक क़र्ज़ में इसकी हिस्सेदारी 2.70 फ़ीसदी है। फरवरी 2021 के आँकड़ों के मुताबिक, क़र्ज़दार देशों की सूची में अमेरिका टॉप पर है और उस पर क़रीब 29,000 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। जापान क़र्ज़दारों की सूची में दूसरे नंबर पर है और उस पर उस पर 11,788 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। तीसरा नंबर चीन का है, जिसके सिर पर क़रीब 6,764 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। इस लिस्ट में चौथे स्थान पर इटली का नाम आता है, जिस पर 2,744 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। पाँचवाँ नंबर फ्रांस का है, जिसके ऊपर क़रीब 2,736 अरब डॉलर का क़र्ज़ है।
बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था वाला देश अमेरिका भारत का भी क़र्ज़दार है। भारत का अमेरिका पर 216 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। अमेरिकी सांसद एलेक्स मूनी ने हाल में कहा था कि देश का क़र्ज़ बढक़र 29,000 अरब डॉलर तक पहुँचने जा रहा है, जो बेहद चिन्ता का विषय है। इसके अलावा भारत के सन्दर्भ में कोरोना के कारण नकारात्मक वृद्धि (नेगेटिव ग्रोथ) का भी ख़तरा है। नकारात्मक वृद्धि का सीधा मतलब है कारोबार में कमी, बिक्री और मुनाफ़े में भी कमी। यहाँ बता दें कि जीडीपी अनुपात के मामले में भारत पर पिछले सात वर्षों में तेज़ी से क़र्ज़ बढ़ा है।
इस संकट में हमें देश की कम्पनियों और लोगों की मदद करनी चाहिए, जिससे वह अपने कामकाज को आगे बढ़ा सकें। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था को भी रफ़्तार मिलेगी। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आम जनता और निवेशकों को यह फिर से भरोसा दिया जाए कि लोक-वित्त नियंत्रण में रहेगा और एक विश्वसनीय मध्यम अवधि के राजकोषीय ढाँचे से इसे किया जाएगा।’’
पाओलो मॉरो
उप निदेशक, आईएमएफ (वित्तीय मामलों का विभाग)