निदा नवाज मूल रूप से कवि हैं और उनकी कविता में सिर्फ कश्मीर की प्रकृति और संस्कृति के सौंदर्य और संघर्ष के ही चित्रण नहीं मिलते हैं बल्कि उसकी आंतरिक पीड़ा की अनुगूंज भी सुनाई पड़ती हैं. इनके ‘अक्षर अक्षर रक्त भरा’, ‘बर्फ और आग’ और ‘किरन किरन रौशनी’ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. पिछले 27-28 साल से निदा लगातार आकाशवाणी श्रीनगर के संपादकीय कार्यक्रम ‘आज की बात’ का लेखन कर रहे हैं. इन्हें मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, भाषा संगम सहित कई अन्य पुरस्कार व सम्मान से नवाजा जा चुका है. हाल ही में अंतिका प्रकाशन से इनकी डायरी ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ प्रकाशित होकर आई हैं. डायरी में दर्ज इनके संघर्ष और अनुभवों को लेकर स्वतंत्र मिश्र की बातचीत
आपके लेखन को लेकर कश्मीर में किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं?
मेरा पहला कविता संग्रह ‘अक्षर अक्षर रक्त भरा’ 1997 में उस समय प्रकाशित हुआ जब कश्मीर घाटी में आतंकवाद अपनी चरम सीमा पर था. यह किसी भी भाषा में लिखी गई पहली पुस्तक थी जिसमें खुले तौर पर कश्मीर में उत्पन्न हुए आतंकवाद के विरोध में आवाज उठाई गई थी. यहां लोग हिंदी न के बराबर जानते हैं. अंग्रेजी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई प्रतिक्रियाओं के चलते मेरा आतंकवादियों द्वारा अपहरण किया गया और जमकर टार्चर भी किया गया था. मेरा दूसरा कविता संग्रह ‘बर्फ और आग’ 2015 में प्रकाशित हुआ. दोनों संग्रहों पर कश्मीर घाटी में कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई लेकिन इसके विपरीत जम्मू प्रांत में इन दोनों कविता संग्रहों को खूब सराहा गया.
अपनी डायरी ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ का महत्व आप कश्मीर के संदर्भ में कितना देखते हैं?
पहली बात तो यह कि डायरी में एक लेखक खुले तौर पर अपने विचारों और अपने आसपास हो रही घटनाओं की अभिव्यक्ति कर सकता है. विश्वभर में वर्तमान अनिश्चिता के समय डायरी लेखन का महत्व बढ़ गया है. कश्मीर घाटी में जब हालात बहुत खराब थे तब उस समय मैंने एक-एक घटना को चिह्नित करने की एक ईमानदार कोशिश की. जहां तक मेरी डायरी के महत्व की बात है तो कश्मीर की परिस्थितियों को लेकर पिछले 25 वर्षों के दौरान बहुत-सी पुस्तकें लिखी गईं लेकिन वे विशेष तौर पर कश्मीर से बाहर रहनेवाले लोगों ने या करीब ढाई दशक पूर्व कश्मीर घाटी से पलायन करनेवाले लोगों ने लिखी हैं. मैं पिछले 25 वर्षों से कश्मीर घाटी में रहने वाला हिंदी का एकमात्र लेखक हूं जो आम लोगों के साथ बिना किसी सुरक्षा घेरे के रह रहा है और हिंदी में लिख रहा है. मैं यहां की एक-एक घटना का साक्षी रहा हूं और यही वजह है कि मेरी लिखी हुई
डायरी ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ कश्मीर के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है.
डायरी में आपने मीडिया पर यह आरोप लगाया है कि वह कश्मीर के हालात पर ‘राष्ट्रीय हित’ की छानी पहले लगाता है और कभी गृह-मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से आगे नहीं निकलता है. इसका मतलब तो यह हुआ कि मीडिया अपने विवेक और समाज के हित की बजाय सरकार के एजेंडे पर काम करता है?
इतिहास साक्षी है कि हमारे देश के लोकतंत्र पर भी बारहा प्रश्न उठते रहे हैं और इस लोकतंत्र की छत्रछाया में पलने वाला मीडिया भले ही कश्मीर घाटी से बाहर स्वतंत्र हो लेकिन कश्मीर घाटी में हो रही घटनाओं को दर्शाते समय वह हमेशा गृह-मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से आगे नहीं निकलता है जो हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए भी ठीक नहीं है. यहां पिछले 25 वर्षों के दौरान कई बार हमारे देश के सैनिकों और पुलिस द्वारा मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है जिस पर हमारे देश की मीडिया ने सदैव पर्दा डालने का हरसंभव प्रयत्न किया है.
आप कह रहे हैं कि पिछले 25 सालों के दौरान कश्मीर संकट को लेकर सही दिशा में काम करने की बजाय गैर सरकारी संगठनों, प्रगतिशील लोगों और बुद्धिजीवियों ने अपना हित साधने का काम किया? ऐसा क्यों लगता है आपको?
यहां मेरी बात को आपने थोड़ा उलझा दिया है. मैंने गैर सरकारी संगठनों की नहीं बल्कि उन गैर सरकारी साहित्यिक संगठनों की बात की है जो कश्मीर से बाहर कश्मीर में रचे जा रहे साहित्य के नाम पर दुकानदारियां करते हैं. यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि कश्मीर के लगभग सभी हिंदी लेखक कश्मीरी हिंदू थे जो 25 वर्ष पूर्व कश्मीर घाटी से पलायन करके देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हैं. आम हिंदी पाठक यह समझते हैं कि ये कश्मीर में बैठकर लिख रहे हैं. कश्मीर में बैठा मैं अकेला हिंदी लेखक हूं जो यहां की परिस्थितियों और आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर के हालात को अपनी रचनाओं में प्रतिबिंबित कर रहा हूं. कश्मीर में पनप चुके इस आतंकवाद के बीच रहकर, इसे भोगकर लिखने और कश्मीर से बाहर किसी शांतिपूर्वक माहौल में रहकर लिखने में बहुत फर्क है. जहां तक यहां के प्रगतिशील लोगों और बुद्धिजीवियों की बात है वे अपनी आंखों पर पट्टी बांधे या तो आतंकवादियों के हक में या सरकार के हक में खड़े दिखते हैं जबकि उनका काम मानवता के हक में खड़ा होने का होना चाहिए. यहां हो रहे आतंकवादियों और फौजियों द्वारा मानव अधिकारों के उल्लंघन का वे ठीक तरह से विरोध भी नहीं कर पाते हैं.
आप डायरी में कश्मीरी पंडित की बजाय कश्मीरी हिंदू शब्द के प्रयोग की सलाह देते हैं? क्यों?
मैंने डायरी में कश्मीरी पंडित लिखने के विपरीत कश्मीरी हिंदू लिखा है. इसका कारण यह है कि यथार्थ में हर कश्मीरी हिंदू पंडित नहीं है. पंडित शब्द का हम दो तरह से प्रयोग करते हैं. एक संस्कृत और हिंदू मत के विद्वान के तौर पर और दूसरा एक जाति के तौर पर. जहां तक पंडित शब्द के पहले अर्थ का संबंध है तो उस सूरत में सभी कश्मीरी हिंदी, संस्कृत और हिंदू मत के विद्वान नहीं हो सकते. हाथ में चिराग लेकर ढूंढने पर भी पूरे कश्मीरी हिंदू समाज में दर्जन भर से ज्यादा पंडितों का मिलना कठिन है. जहां तक पंडित शब्द के एक जाति के तौर पर इस्तेमाल करने का संबंध है तो कश्मीरी हिंदुओं में बहुत कम लोग पंडित जाति के हैं जबकि दूसरे कौल, काक, दर आदि जाति वाले हैं. आम तौर पर कश्मीरी ब्राह्मणों को पंडित कहा जाता था. उन्हें भट्ट भी कहा जाता था और मैं स्वयं इसी जाति का रहा हूं. उनमें से अधिकतर लगभग 500 वर्ष पूर्व मुसलमान बन गए. कश्मीर घाटी में हजारों मुसलमान आज भी मौजूद हैं जिनकी जाति पंडित है और मुसलमान पंडितों की यह संख्या हिंदू पंडितों से अधिक है. इस सिलसिले में जम्मू कश्मीर राज्य की प्रशासनीय सेवा में कार्यरत मुहम्मद शफी पंडित और ह्वाइट-हाउस से संबंधित फरह पंडित के उदाहरण दिए जा सकते हैं. इसलिए यदि सभी कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीरी पंडित कहा जाए तो उन पंडित जाति के हजारों कश्मीरी मुसलमानों को किस खाते में डाला जा सकता है जो घाटी भर में रहते हैं. कश्मीर से पलायन के बाद कश्मीरी हिंदुओं ने पूरे कश्मीरी हिंदू समुदाय को पंडित समुदाय के रूप में पेश किया जो सच नहीं है .
डायरी की शुरुआत में आप कह रहे हैं कि आम लोग उम्मीद और डर के बीच कहीं खड़े हैं. उनकी उम्मीद 25 सालों में कितनी पूरी हुई है और उनका डर कितना दूर हो पाया है?
आतंकवाद के शुरुआती दौर में आम कश्मीरियों को यह विश्वास होने लगा था कि शायद यह उन्हें राजनीतिक शोषण से मुक्ति दिलाएगा. शायद उन दिनों वे नहीं समझ पाए थे कि धार्मिक कट्टरवाद और आतंकवाद स्वयं एक बड़ा शोषण है. अब वे इसको समझ चुके हैं. आतंकवाद अब बहुत हद तक समाप्त हो चुका है किंतु राजनीतिक शोषण न केवल कायम है बल्कि बढ़ गया है. अब जम्मू कश्मीर में विभिन्न धर्मों से संबंधित कट्टरवाद का विवाह हो चुका है. पीडीपी और भाजपा का जम्मू कश्मीर राज्य में मिलन हो चुका है. अब गिलानी और अाडवाणी की यह मित्रता राज्य में कौन-से गुल खिलाती है, यह तो आनेवाला समय ही बताएगा. भाजपा से हिंदी पाठकों का परिचय तो है लेकिन जहां तक पीडीपी की बात है, यह पार्टी कश्मीरी अलगाववादियों यहां तक कि आतंकवादियों का मुख्यधारावाला चेहरा है.
1991 की डायरी में आप लिखते हैं, ‘जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के केंद्रीय बस अड्डे से ‘पिंडी-पिंडी’ (रावलपिंडी) की आवाजें साफ सुनाई दे रही हैं.’ क्या आज भी ‘पिंडी-पिंडी’ की आवाजें लगाई जा रही हैं?
कश्मीर में आतंकवाद अब लगभग समाप्त हो चुका या यूं कहें कि विफल हो चुका है. (यह अलग बात है कि हमारे देश की खुफिया एजेंसियां और अधिकतर फौजी अपनी ड्रामेबाजियों से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि हालात आज भी बहुत खराब हैं क्योंकि वे किसी भी सूरत में समय से पहले प्रमोशन और अन्य सुविधाओं को छोड़ना नहीं चाहते). लेकिन धार्मिक कट्टरवाद, अलगाववाद और भारत के विरुद्ध नफरत, हमारे देश के फौजियों द्वारा की गई फर्जी झड़पों और ड्रामेबाजियों के कारण बढ़ गई हैं. राज्य में हुए मतदान से कभी भी यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि अब कश्मीर में सब कुछ ठीक है.
आप लिखते हैं, ‘कुछ नामनिहाद प्रगतिवादी लेखकों ने दाढ़ियां बढ़ानी और मौलवियों का लहजा अख्तियार करना शुरू कर दिया है.’ प्रगतिशीलता की बुनियाद किन मजबूरियों में दरकने लगती हैं?
मैंने नामनिहाद व प्रगतिशील शब्द का इस्तेमाल किया है. जहां तक प्रगतिशीलता की बात है तो ऐसेे लोग गलत के साथ समझौता नहीं करता. हां, मुझ जैसे प्रगतिशील लोग उस समय भीतर ही भीतर तड़प जाते हैं जब हमारे देश में धार्मिक कट्टरवादी लोकतंत्र का चोला पहनकर लोग हुकूमत करने लगते हैं .
आप यह भी लिख रहे हैं, ‘वे मुझे भारतीय एजेंट, मुल्हिद और कम्युनिस्ट कहकर मार रहे थे.’ कोई कम्युनिस्ट या नास्तिक है तो इससे उन्हें क्या खतरा है?
जिस समाज में धार्मिक कट्टरवाद विशेषकर इस्लामी कट्टरवाद पनप चुका होता है वहां कम्युनिस्ट को मुल्हिद अर्थात नास्तिक कहा जाता है. इस्लामिक कट्टरवाद के अनुसार एक मुल्हिद का कत्ल अनिवार्य होता है. विश्व भर में जहां भी आतंकवाद विकसित हुआ, वहां सबसे पहले आम लोगों की आजादी खत्म की गई और उसके बाद प्रगतिवादियों को निशाने पर लिया गया.
आप यह लिख रहे हैं कि यहां लोगों की जिंदगी, बुनियादी सुविधाओं को पूरा करते-करते निकल जाती है? किन विफलताओं की वजह से ऐसा होता चला आ रहा है?
न केवल कश्मीर घाटी बल्कि तीसरी दुनिया के अधिकतर देश के लोगों की जिंदगी बुनियादी सुविधाओं को पूरा करने मेंे ही निकल जाती हैं. जहां तक कश्मीर की बात है तो इसको खराब करने में घाटी के धार्मिक कट्टरवादी, राज्य और केंद्र के मुख्यधारा के राजनेता और पाकिस्तान की आईएसआई बराबर की जिम्मेदार है क्योंकि कश्मीर का जलते रहना, इनकी धार्मिक और राजनीतिक दुकानों के चालू रहने के लिए जरूरी है.
‘मीडिया भले ही कश्मीर से बाहर स्वतंत्र हो लेकिन यहां की घटनाओं को दर्शाते वक्त वह हमेशा गृह मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से आगे नहीं निकलता है’