क्रिकेट के इतिहास में राहुल द्रविड़ की क्या जगह होगी? क्या उन्हें एक सर्वश्रेष्ठ सहायक स्तंभ के रूप में याद किया जाएगा या फिर एक महान खिलाड़ी के तौर पर जो गलत दौर में पैदा हो गया? सुरेश मेनन का दिलचस्प आकलन
प्रशंसा और सहानुभूति, राहुल द्रविड़ के करिअर में ये दोनों चीजें अक्सर एक साथ मौजूद रही हैं. क्रिकेट के मक्का लॉर्ड्स में अपना पहला ही टेस्ट खेलते हुए द्रविड़ ने जब 95 रन बनाए तो उनसे सहानुभूति रखे बिना उन्हें बधाई नहीं दी जा सकती थी क्योंकि उसी मैच में सौरव गांगुली ने 131 रन बना दिए थे और गांगुली का भी वह पहला मैच था. इसी तरह अहमदाबाद में श्रीलंका के खिलाफ पहले टेस्ट में भी 177 रन की शानदार पारी के लिए उन्हें बधाई तो मिली पर साथ ही उनसे सहानुभूति भी जताई गई कि वे दुर्भाग्य से अपना छठवां दोहरा शतक बनाने से चूक गए.
द्रविड़ के मूल्यांकन की हर चर्चा तेंदुलकर से शुरू होती है, वैसे ही जैसे वॉल्टर हैमंड के आकलन के लिए पहले डॉन ब्रैडमैन और रोहन कन्हाई के विश्लेषण के लिए गैरी सोबर्स की बात करना जरूरी होता है. द्रविड़, हैमंड और कन्हाई की उपलब्धियों को सही जगह सिर्फ इसलिए नहीं मिल सकी क्योंकि उनके साथ उनके दौर के सबसे महान खिलाड़ी पैदा हो गए
द्रविड़ की किस्मत ही कुछ ऐसी रही है. एक टेस्ट में उन्होंने 180 रन का आंकड़ा छुआ तो उन्हीं के साथ दूसरे छोर पर खड़े वीवीएस लक्ष्मण ने 281 रन की पारी खेल डाली जिसे किसी भी भारतीय बल्लेबाज द्वारा अब तक खेली गई सर्वश्रेष्ठ पारी कहा जाता है. एक वनडे मैच में जब उन्होंने उस समय का अपना सबसे बड़ा स्कोर बनाते हुए 145 रन बनाए तो उसी पारी में सौरव गांगुली ने 183 रनों का शिखर छू लिया. फिर जब द्रविड़ ने अपना यह रिकॉर्ड तोड़ते हुए न्यूजीलैंड के खिलाफ 153 रन मारे तो उसी पारी में सचिन तेंदुलकर ने नाबाद रहते हुए 186 रन ठोक डाले. सवाल है कि क्रिकेट के इतिहास में राहुल द्रविड़ को कैसे याद किया जाएगा. एक सर्वश्रेष्ठ सहायक स्तंभ के रूप में या एक महान खिलाड़ी के तौर पर जो गलत दौर में पैदा हो गया? जवाब है, दोनों तरह से. खेल के इतिहास में द्रविड़ अब तक के सबसे सर्वश्रेष्ठ सहायक स्तंभ हैं इसका सबूत है टेस्ट मैचों में उनकी 79 शतकीय साझेदारियां, जो एक विश्व रिकॉर्ड है. और वे महान खिलाड़ी हैं यह इससे साबित हो जाता है कि खेल के दोनों ही संस्करणों में उन्होंने दस हजार से ज्यादा रन बनाए हैं.
इससे यह निष्कर्ष निकालना आसान लगता है कि द्रविड़ गलत दौर में पैदा हो गए जिसकी वजह से उन्हें सचिन तेंदुलकर की छाया में खेलना पड़ा. मगर यह बात उस शख्स के लिए जरा भी मायने नहीं रखती जिसकी होड़ सिर्फ खुद से है और जिसने कभी बिना हिचक कहा था, ‘ज्यादातर लोग चाहते हैं कि मैं जल्दी आउट हो जाऊं ताकि वे सचिन को बल्लेबाजी करता देख सकें.’ मगर आज सचिन का कोई धुर प्रशंसक भी द्रविड़ की बल्लेबाजी को धैर्य से देखने के लिए तैयार है क्योंकि उसे पता है कि द्रविड़ के जल्दी आउट होने का मतलब है मुसीबत. श्रीलंका के खिलाफ अहमदाबाद में खेले गए टेस्ट में 32 रन पर भारत के चार विकेट गिर गए थे. सहवाग, तेंदुलकर, लक्ष्मण पैवेलियन लौट चुके थे, मगर दर्शकों की उम्मीदें कायम थीं. इसलिए कि द्रविड़ क्रीज पर थे और जब तक वे क्रीज पर थे तो बिना चिंता किए रहा जा सकता था. उन्होंने निराश नहीं किया और भारत को 400 के पार ले गए.
सहवाग या तेंदुलकर जहां दर्शकों की सांसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे कर देते हैं वहीं द्रविड़ के साथ ऐसा नहीं होता. वे जिंदगी को सामान्य ताल से चलने देते हैं. चकाचौंध से परहेज करने वाला यह शख्स अपने लिए ज्यादा जगह घेरने में यकीन नहीं रखता. खेल के लिए उनके जुनून और उनकी सूझबूझ के बारे में सब जानते हैं और यह एक ऐसा संयोग है जो लगाव और उनसे घुलने-मिलने की इच्छा से कहीं ज्यादा उनके लिए प्रशंसा और आदर का भाव पैदा करता है. किसी को अगर यह जानना हो कि एक आदर्श खिलाड़ी को कैसा होना चाहिए तो द्रविड़ इसका जवाब हैं-विनम्र, भरोसेमंद, शिक्षित, दबाव में भी अपनी गरिमा बनाए रखने वाले और परिपक्व. राहुल द्रविड़ उन लोगों के लिए राहत हैं जिन्हें पता है कि वे सचिन तेंदुलकर नहीं बन सकते. वीरेंद्र सहवाग ने कभी उन्हें एक ऐसा मनोवैज्ञानिक कहा था जिसके पास अपनी सभी समस्याएं लेकर जाया जा सकता है.
तेंदुलकर के साथ खेलते हुए भी द्रविड़ ने अपनी एक अलग ही पहचान विकसित की. इस दौरान उन्होंने सुनिश्चित किया कि भारतीय टीम में क्रिकेट के कुछ अनूठे परंपरागत मूल्य बचे रहें. कोलकाता में लक्ष्मण के साथ की गई ऐतिहासिक पारी के कुछ साल बाद तक द्रविड़ ने भारतीय बल्लेबाजी को एक तरह से अपने कंधों पर ढोया. पोर्ट ऑफ स्पेन, जॉर्ज टाउन और नॉटिंघम में खेले गए टेस्ट मैचों में जिनमें हार सामने दिख रही थी, वे टीम के तारनहार बने. हेडिंग्ली, एडीलेड, कैंडी और रावलपिंडी में टीम को मिली जीत में उन्होंने अहम भूमिका निभाई. लगातार चार पारियों में उनके बल्ले से चार शतक निकले और 15 टेस्टों में उन्होंने चार दोहरे शतक अपने नाम किए. दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि इस दौरान सौरव गांगुली की कप्तानी में भारत ने जिन 21 मैचों में जीत हासिल की उनमें टीम के कुल रनों में से 23 फीसदी अकेले द्रविड़ बना गए थे और उनका औसत 102.84 था. इस दौरान उनका कुल औसत सचिन से भी आगे निकल गया था और गेंदबाजों के लिए उनका विकेट सबसे कीमती हुआ करता था.
गंभीरता और शांतचित्तता, द्रविड़ के ये दो ऐसे गुण हैं जो उन्हें उस तरह का हीरो नहीं बनने देते जैसे गांगुली कोलकाता में, धोनी झारखंड में और तेंदुलकर पूरे देश में हैं
आंकड़ों की गहराई में उतरने का मकसद सिर्फ यही दिखाना है कि द्रविड़ की वीरता को अक्सर भाग्य की क्रूरता लीलती रही है. वे एक मनमोहक शैली वाले बल्लेबाज हैं जिनकी हर पारी परिणाम के साथ जुड़ी दिखती है, जिनका हर शतक अलग नजर नहीं आता बल्कि टीम के अच्छे प्रदर्शन के साथ घुला-मिला लगता है. और इसके बावजूद द्रविड़ के मूल्यांकन की हर चर्चा तेंदुलकर से शुरू होती है, वैसे ही जैसे वॉल्टर हैमंड के आकलन के लिए पहले डॉन ब्रैडमैन और रोहन कन्हाई के विश्लेषण के लिए गैरी सोबर्स की बात करना जरूरी होता है. द्रविड़, हैमंड और कन्हाई की उपलब्धियों को सही जगह सिर्फ इसलिए नहीं मिल सकी क्योंकि उनके साथ उनके दौर के सबसे महान खिलाड़ी पैदा हो गए. ऐसे खिलाड़ी जिन्होंने उपलब्धियों के मामले में उनसे कुछ बड़ी लकीरें खींच दीं.
जिस गरिमा के साथ द्रविड़ ने अभी तक अपना सफर तय किया है वह एक असाधारण मिसाल है. विवादों से वे अप्रभावित रहे हैं. मैदान पर उनके साथ सबसे बुरा वाकया यही हुआ कि एक मैच के दौरान उनके मुंह में रखी टाफी अचानक बाहर निकलकर उनके हाथ पर गिर गई और चिपचिपी हो गईं उनकी उंगलियां जब गेंद पर लग गईं तो उन्होंने इसे पोंछ दिया. मैच रैफरी क्लाइव लॉयड ने इसे गेंद के साथ छेड़छाड़ माना और जुर्माने के तौर पर उनकी 50 फीसदी मैच फीस काट ली. द्रविड़ ने भी कुछ नहीं कहा और न किसी और ने. बात आई गई हो गई. मगर जब ऐसा ही एक फैसला तेंदुलकर के मामले में सुनाया गया तो पूरे देश में भूचाल आ गया और यह अंतरराष्ट्रीय महत्व की खबर बन गई.
गंभीरता और शांतचित्तता, द्रविड़ के ये दो ऐसे गुण हैं जो उन्हें उस तरह का हीरो नहीं बनने देते जैसे गांगुली कोलकाता में, धोनी झारखंड में और तेंदुलकर पूरे देश में हैं. असल में सज्जनता को बाजार भाव नहीं देता. हालांकि द्रविड़ कड़े मन वाले इंसान भी हैं. मुल्तान टेस्ट को ही लें जब उन्होंने यह जानते हुए भी कि तेंदुलकर 194 पर नाबाद हैं, पारी घोषित कर दी थी. मगर फिर भी उनमें वह धार नहीं है जो लोगों में बहस पैदा कर सके.मान लें कि तेंदुलकर पैदा नहीं हुए होते तो? (और यह बात पक्की है कि उन्हें बनाया नहीं जा सकता था) तो फिर हम उसी जुनून के साथ द्रविड़ की बात करते जिस जुनून में हम तेंदुलकर को भगवान कहते हैं. मीडिया यह बहस करता कि उनमें या सुनील गावस्कर में कौन श्रेष्ठ है. आंकड़ों के ये तर्क पेश किए जाते कि 23 टेस्ट मैचों में भारत की जीत के दौरान गावस्कर का औसत 44 था जबकि द्रविड़ के टीम में रहते भारत को जिन 44 मैचों में जीत हासिल हुई उनमें द्रविड़ का औसत लगभग 67 है. और जिन मैचों में भारत हारा उनमें द्रविड़ का औसत 26 है जो उनकी उपयोगिता दर्शाता है. यह भी कहा जाता कि द्रविड़ का औसत घर से ज्यादा विदेशी धरती पर बेहतर रहा है और उन्होंने जो 27 शतक बनाए हैं उनमें से 26 टीम की जीत के साथ जुड़े हैं.
क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसकी संदर्भ में कम ही रुचि रहती है. इस खेल की प्रकृति के चलते ही यह संभव है कि हम न सिर्फ व्यक्तिगत प्रदर्शनों को अलग करके देख सकते हैं बल्कि व्यापक परिदृश्य में उनकी प्रासंगिकता की परवाह किए बिना उनका विश्लेषण भी कर सकते हैं. द्रविड़ के रिकॉर्ड को अलग करके देखा जाए तो यह शानदार और हैरतअंगेज है, खासकर जीत और हार के संदर्भ में. उस दौर में जब भारत जीतने की बजाय हारता ज्यादा था तो कुछ व्यक्तिगत प्रदर्शनों को अलग करके देखना टीम के निराशानजनक प्रदर्शन की पीड़ा पर राहत के थोड़े से मरहम का काम करता था. आस्ट्रेलिया ने भले ही भारत को पस्त कर दिया हो मगर उस मैच को याद रखने के लिए विजय हजारे के दो शतक होते थे, टीम भले ही वेस्टइंडीज के सामने बिखर गई हो मगर सुनील गावस्कर की बल्लेबाजी सांत्वना का काम कर देती थी.
मैदान में भी कहानी कुछ ऐसी ही है. तेंदुलकर की बल्लेबाजी जहां घूमते बल्ले के अलग-अलग कोणों से निकलते शॉटों का सुखद नजारा होती है वहीं द्रविड़ सीधे बल्लों से खूबसूरत शॉटों की झड़ी लगाते हैं
तेंदुलकर और द्रविड़ दोनों अपनी पीढ़ी के और कहा जाए तो हर पीढ़ी के तकनीकी रूप से सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजों में से हैं. उनके बीच बुनियादी फर्क है उनकी शैली. तेंदुलकर सुरक्षात्मक कम हैं और आक्रामक ज्यादा. आक्रमण करते हुए वे ज्यादा सृजनात्मक होते हैं. उनके लिए शॉट के तरीके से ज्यादा जरूरी चीज है उस शॉट का नतीजा. वहीं बनिस्बत ऊंचे कद के द्रविड़ के लिए शैली और नतीजा दोनों ही अहम हैं. वे सही काम सही तरीके से करने में यकीन रखते हैं. यानी चीज आदर्श हो तो उसे बनाने का तरीका भी आदर्श ही होना चाहिए.
इस विचार प्रक्रिया का जितना लेना-देना लालन-पालन से है उतना ही शिक्षा से भी. द्रविड़ उस स्कूल और कॉलेज में पले-बढ़े जहां यह सिखाया जाता था कि अगर आप तरीके पर ध्यान दें तो उत्पाद अपने आप ही अच्छा बन जाएगा. अपनी जीवनी के जारी होने के मौके पर वक्ताओं द्वारा प्रशंसा किए जाने पर द्रविड़ का कहना था, ‘अगर आप 30 साल की उम्र तक कुछ अच्छा कर लेते हैं तो कुछ लोग इसे इस तरह बताते हैं कि आपने बहुत असाधारण काम कर दिया है. मेरे बारे में कही गई ये सब चीजें बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हैं इसलिए जब आप इस किताब को बढ़ें तो हर चीज पर आंख मूंदकर यकीन न करें.’ यह है द्रविड़ का बेजोड़ फॉरवर्ड डिफेंस और उनकी विनम्रता का उदाहरण भी.
यह बंगलुरु की घटना है, एक ऐसा शहर जहां के वे बाशिंदे हैं. जहां वे किसी रेस्टोरेंट या किसी आयोजन में बेझिझक जा सकते हैं. मुझे याद है कि एक संगीत आयोजन के दौरान वे किस तरह भीड़ में किसी आम आदमी की तरह जगह बनाते हुए आगे जा रहे थे. उन्हें तेंदुलकर की तरह भेष बदलने की जरूरत नहीं पड़ती. दूसरी ओर यह उनके गृहनगर में उनके प्रशंसकों की परिपक्वता को भी दिखाता है.
मैदान में भी कहानी कुछ ऐसी ही है. तेंदुलकर की बल्लेबाजी जहां घूमते बल्ले के अलग-अलग कोणों से निकलते शॉटों का सुखद नजारा होती है वहीं द्रविड़ सीधे बल्लों से खूबसूरत शॉटों की झड़ी लगाते हैं. इस मायने में वे गुंडप्पा विश्वनाथ के उत्तराधिकारी हैं जिनके स्क्वॉयर कटों की कला उन्हें मानो विरासत में मिल गई है. जब द्रविड़ को भारतीय टीम के लिए चुना गया था तो उन्होंने अपने एक साथी से कहा था, ‘मैं एक आम खिलाड़ी भर नहीं रह जाना चाहता. मैं चाहता हूं कि मुझे गावस्कर और विश्वनाथ की श्रेणी में रखा जाए.’ स्कूली दिनों में उन्होंने इन दोनों शख्सियतों के साथ फोटो खिंचवाई हुई थी. आने वाले दौर में वे अपने उन्हीं आदर्शों के साथ एक मेज पर खाना खाने वाले थे.
उन्होंने गावस्कर से ज्यादा स्ट्रोक खेले हैं और वह भी गावस्कर से ज्यादा निरंतरता के साथ. उन्होंने विश्वनाथ से भी ज्यादा जोखिम भरे शॉट खेले हैं मगर विश्वनाथ की तुलना में ज्यादा सुरक्षित तरीके से. अपनी पीढ़ी में अपनी तरह का यह अकेला खिलाड़ी तेज गेंदबाजों को या तो अपनी जगह पर खड़े-खड़े परेशान करता रहा है या कलाई के सटीक घुमाव और सही टाइमिंग और प्लेसमेंट के जरिए. पुल शॉट मारते हुए कभी-कभी तो द्रविड़ इतना घूम जाते हैं कि उनका चेहरा विकेटकीपर के सामने आ जाता है. यह बात भी गौर करने वाली है कि टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण के बाद 94 मैचों तक वे किसी बीमारी या चोट की वजह से बाहर नहीं हुए. यह उनकी शानदार फिटनेस का नमूना है. तेंदुलकर के कद पर डॉन ब्रैडमैन ने मुहर लगाई. द्रविड़ इस मामले में रह गए. उनके संदर्भ में यह काम वॉल्टर हैमंड कर सकते थे, मगर उनका देहावसान द्रविड़ के जन्म से पहले ही हो चुका था. और ग्रेग चैपल अभी उतने पुराने नहीं हुए कि यह काम कर सकें.
कुछ साल पहले द्रविड़ ने कहा था कि ऑफ साइड ड्राइव के मामले में भगवान के बाद तो सौरव गांगुली ही हैं. गांगुली ने अगर इसके बदले में कुछ कहा होता तो वे शायद यह कहते कि ऑन साइड में द्रविड़ की होड़ भगवान के साथ है. इस दौर के बल्लेबाजों को देखा जाए तो सिर्फ महेला जयवर्धने ही ऐसे नजर आते हैं जो लेग ग्लांस के मामले में द्रविड़ का मुकाबला कर सकें. द्रविड़ की लंबी पारियों पर नजर डालें तो साफ दिख जाता है कि ऑन साइड पर वे एकछत्र राज करते हैं. खेल के इतिहास की सबसे खूबसूरत कवर ड्राइवों में एक उनके पास है.
द्रविड़ के साथ अक्सर ऐसा रहा कि पहले उन्हें खारिज कर दिया गया और बाद में उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से हर आलोचक को खामोश कर दिया. चाहे वह एक दिवसीय क्रिकेट में छाने का उदाहरण हो या फिर आईपीएल में अपनी धाक जमाने का जिसके पहले संस्करण में असफल रहने के बाद दूसरे संस्करण में उन्होंने अपने बल्ले से सबका मुंह बंद कर दिया. द्रविड़ के पिता भी क्रिकेटर रहे हैं और उनके लिए भी यह सिर्फ एक खेल नहीं बल्कि जीवन दर्शन रहा है. शुरुआती दिनों में ही द्रविड़ ने यह साफ कर दिया था कि वे न सिर्फ टीम में किसी भी जगह पर बल्लेबाजी करने के लिए तैयार हैं बल्कि विकेटकीपिंग भी कर लेंगे और अगर जरूरत पड़ी तो शायद पिच भी तैयार कर लेंगे. खेल के साथ उनका जुड़ाव संपूर्ण है. 12 साल की उम्र पार करने के बाद भी किसी खेल के लिए इस तरह का जुनून किसी को समझने में मुश्किल लग सकता है मगर तेंदुलकर और द्रविड़ के लिए क्रिकेट ही जीवन है. एक आदर्श दिन की उनकी कल्पना किसी आम दिन से अलग नहीं है जिसमें वे क्रिकेट खेलते हैं और लगातार बल्लेबाजी करते चले जाते हैं.
मगर तेंदुलकर जहां हमले के जरिए अपनी बादशाहत कायम करते हैं वहीं द्रविड़ अपने प्रभुत्व को खुद के और गेंदबाज के बीच का राज रहने देते हैं. सिर्फ अनुभवी आंखें ही बता सकती हैं कि उन्होंने गेंदबाज को परेशान कर रखा है. उनकी भाव-भंगिमाएं या और कोई हरकत उनके हमले का संकेत नहीं देती. एक महान अभिनेता की तरह द्रविड़ बहुत ज्यादा मुखर नहीं होते. वे द्रुत की जगह विलंबित ताल में खेलते हैं और समय-समय पर अपने सुरक्षात्मक ठोस शॉट के जरिए भी गेंदबाज की हवा निकालते रहते हैं. उनके लिए रचा गया द वॉल यानी दीवार का संबोधन सही नहीं है. दीवार तो सिर्फ आक्रमण को झेलती है. उसका जवाब नहीं देती. द्रविड़ ऐसे नहीं हैं. वे जानते हैं कि शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर वे गेंदबाज से इक्कीस हैं. और वे इसी रणनीति के साथ लड़ाई को दुश्मन के खेमे में ही ले जाते हैं.
टेस्ट क्रिकेट द्रविड़ के मिजाज से मेल खाता है. जैसे उनसे पहले गावस्कर और उनसे भी पहले विजय हजारे और मर्चेंट के मिजाज से खाता था. ऐसे में यह कल्पना करना आसान है कि द्रविड़ का असली रूप खेल के इस लंबे संस्करण में ही दिख सकता है. मगर अपनी शुरुआती प्रतिकूलता पर विजय पाकर उन्होंने एकदिवसीय क्रिकेट में सफलता के जो झंडे गाड़े वह दिखाता है कि उनके दिल और दिमाग का तालमेल कितना जबर्दस्त है. गावस्कर ऐसा नहीं कर पाए थे.
इस बात पर बहस हो सकती है कि सबसे बड़ा भारतीय बल्लेबाज कौन है या किस स्पिनर को नंबर वन कहा जाना चाहिए मगर इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय टीम में अब तक द्रविड़ सर्वश्रेष्ठ स्लिप फील्डर रहे हैं जिनके नाम आउटफील्ड में सबसे ज्यादा कैच लेने का विश्व रिकॉर्ड है
द्रविड़ को खेल के इस छोटे संस्करण में स्वीकार्यता पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी. शुरुआती दिनों में उनके तरकश में शॉट तो होते थे मगर एक पारंपरिक क्षेत्ररक्षण व्यूह बनाकर उन्हें काबू किया जा सकता था. वे बॉल को उठाकर नहीं मारते थे और तेज पिचों पर उठती गेंदों को तेंदुलकर और गांगुली की तरह उनकी उछाल पर नहीं खेलते थे. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के अपने पहले साल में एकदिवसीय मैचों में द्रविड़ का उच्चतम स्कोर 90 रहा. उन्होंने 20 मैच खेले और उनका औसत रहा 28 जिसे ठीक-ठाक कहा जा सकता है. अगले साल उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ एक शतक जमाया और उनका औसत बढ़कर 40 हो गया. मगर इसके बाद उनसे साथ एक छल हुआ जो भारतीय क्रिकेट में नई बात नहीं है. उनसे कहा गया कि जब टीम में तेंदुलकर, अजहरुद्दीन, गांगुली, अजय जडेजा जैसे बल्लेबाज हैं तो उनकी भूमिका यह है कि वे एक छोर थामे रखें और 50 ओवर तक बल्लेबाजी करें.
द्रविड़ ने इन निर्देशों का पालन किया, इतनी अच्छी तरह किया कि उनका स्ट्राइक रेट गिर गया और विडंबना देखिए कि उन्हें इसी वजह से टीम से बाहर कर दिया गया. उनपर एक ठप्पा लगाकर उन्हें खारिज कर दिया गया. ठप्पा यह था कि उनकी रन गति धीमी है और इसलिए वे एकदिवसीय क्रिकेट में फिट नहीं हो सकते. मगर द्रविड़ ने कड़ी मेहनत की और टीम में फिर से जगह पाने में कामयाब रहे. 1999 का विश्व कप सामने था और इसमें उन्होंने खुद को एक शानदार एकदिवसीय बल्लेबाज के रूप में स्थापित कर लिया. अब उनके बल्ले से निकले शॉट सीमा पार पहुंच रहे थे और उन्हें उठाकर शॉट मारने में कोई हिचक नहीं हो रही थी. नतीजतन 461 रनों के साथ वे टूर्नामेंट के अगुवा बल्लेबाज के रूप में उभरे. इस दौरान उनका औसत 66 था और स्ट्राइक रेट 86. टूर्नामेंट में उन्होंने दो शतक लगाए थे.
जल्दी ही बल्लेबाजी क्रम में उन्होंने खुद को एक लचीले विकल्प के रूप में स्थापित कर लिया. वे पारी की शुरूआत भी कर सकते थे, नंबर तीन पर भी खेल सकते थे और अगर लक्ष्य का पीछा करते हुए मानसिक रूप से सुरक्षित रहने की जरूरत पड़ी तो और भी नीचे के क्रम में आ सकते थे. अनिच्छा के बावजूद उन्होंने विकेटकीपिंग भी की क्योंकि इससे टीम में जरूरत के मुताबिक एक अतिरिक्त गेंदबाज या बल्लेबाज की जगह हो जाती थी. एकदिवसीय क्रिकेट ने विश्वनाथ और द्रविड़ के बीच अंतर भी पैदा किया. विश्वनाथ अपने करिअर के बाद के वर्षों में शैली के लिहाज से लगातार पारंपरिक होते चले गए थे. यह एक ऐसा परिवर्तन था जिसे बढ़ती उम्र और धीमी प्रतिक्रिया ने उनपर थोप दिया था. उन्होंने लेग की बजाय मिडिल स्टंप पर गार्ड लेना शुरू कर दिया था और वे सीधे बल्ले से ज्यादा खेलने लगे थे. द्रविड़ इससे बिल्कुल उल्टी दिशा में गए. उन्होंने अपने कुछ ऐसे छिपे पहलू खोज निकाले जो एकदिवसीय क्रिकेट पर बिल्कुल फिट बैठते थे. उन्होंने परंपरा की बेड़ियों से धीरे-धीरे खुद को मुक्त किया और खेल को और भी सृजनात्मक तरीके से खेलना शुरू किया. वैसे भी अगर गेंदबाज और विकेटकीपर को छोड़ दें तो मैदान पर नौ जगहों पर ही तो क्षेत्ररक्षक लगाए जा सकते हैं. खाली जगहें तमाम होती हैं. मिड ऑन और मिड विकेट के बीच की जगह तो द्रविड़ की पसंदीदा बन गई. कवर प्वाइंट के बाईं तरफ की खुली जगह भी उन्हें रास आई. अगर कप्तान फील्डरों की जगह में बदलाव करते तो उनके तरकश में तब भी पर्याप्त हथियार होते जिनसे वे रन बटोर लेते.
तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी खेल में दुर्लभता से ही पैदा होते हैं और जब वे जाते हैं तो यह मान लिया जाता है कि उनकी जगह को कभी नहीं भरा जा सकता. उनकी कोई विरासत नहीं होती. विरासत गावस्कर और द्रविड़ सरीखे खिलाड़ी छोड़ते हैं
जब द्रविड़ ने कप्तानी की कमान संभाली तो उन्होंने खेल का आनंद लेने की अहमियत पर जोर दिया. यह बढ़िया रणनीति थी. उनका कहना भी था कि सहजता के बिना अच्छा नहीं खेला जा सकता. और जब इंग्लैंड के दौरे के बाद तत्कालीन बोर्ड मुखिया के साथ झड़पों की वजह से उन्होंने कप्तानी छोड़ी तो वे तेंदुलकर का ही अनुसरण कर रहे थे. तेंदुलकर ने भी कप्तानी छोड़ दी थी. इसलिए नहीं कि उन्हें यह पसंद नहीं थी बल्कि इसलिए कि इसके साथ जुड़ी राजनीति से उन्हें नफरत थी. इस बात पर बहस हो सकती है कि सबसे बड़ा भारतीय बल्लेबाज कौन है या किस स्पिनर को नंबर वन कहा जाना चाहिए मगर इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय टीम में अब तक द्रविड़ सर्वश्रेष्ठ स्लिप फील्डर रहे हैं जिनके नाम आउटफील्ड में सबसे ज्यादा कैच लेने का विश्व रिकॉर्ड है. उनके इस पहलू का ज्यादा जिक्र नहीं हुआ है. कैच लेने की उनकी शैली भी किसी कला से कम नहीं. अपने सटीक पूर्वानुमान के बूते वे तुरंत पोजीशन में आ जाते हैं और कैच कितना भी मुश्किल हो इसकी वजह से अक्सर उन्हें रोमांचक छलांग लगाने की जरूरत नहीं पड़ती. स्लिप में खड़े द्रविड़ का संतुलन देखने लायक होता है. पोजीशनिंग की कला का अध्ययन उन्हें देखकर किया जा सकता है. खासकर स्पिनरों के साथ. 100 के करीब कैच तो उन्होंने कुंबले और हरभजन की गेंदों पर पकड़े हैं. इससे पता लगता है कि भारत के दो सफलतम स्पिनरों के करिअर को आकार देने में उन्होंने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसलिए जब द्रविड़ खेल को अलविदा कहेंगे तो टीम में दो शून्य पैदा होंगे. पहला मध्यक्रम में एक शानदार बल्लेबाज की कमी का और दूसरा स्लिप में अब तक के सर्वश्रेष्ठ फील्डर का.
यह सब देखते हुए स्वाभाविक रूप से उनकी तुलना हैमंड के साथ होती है. हैमंड भी एक मनोहर बल्लेबाज थे जिनके पास सबसे मशहूर कवर ड्राइव थी और वे स्लिप के असाधारण फील्डर भी थे. हैमंड भी अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज होते मगर उनसे कम मनोहर मगर ज्यादा प्रभावी ब्रैडमैन के चलते ऐसा नहीं हो पाया. द्रविड़ पुराने मिजाज के आधुनिक खिलाड़ी हैं.
क्रिकेट उन चंद खेलों में से एक है जहां पुराने मिजाज का यानी ओल्ड फैशंड होना तारीफ के तौर पर लिया जाता है. दूसरे खेलों में ऐसा नहीं होता. उदाहरण के तौर पर यदि आप रफेल नाडाल को ओल्ड फैशंड कहेंगे तो यह उनका अपमान हो जाएगा. दरअसल भाषा में यह शब्द इस तरह से ढल गया है कि इसके मायने जिद्दी, कठोर या किसी नकारात्मक बात से लगाए जाने लगे हैं. मगर द्रविड़ के मामले में यह शब्द एक ऐसे खिलाड़ी को दर्शाता है जिसने आधुनिक चुनौतियों से निपटने के लिए पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल किया, एक ऐसा खिलाड़ी जो खेल का व्याकरण समझता है और इसका प्रयोग आदर्श निबंध जैसी पारियां लिखने में करता है.
हर पेशे में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अपने साथियों के लिए आदर और प्रेरणा की वजह होते हैं. यह सिर्फ क्षमताओं की बात नहीं होती बल्कि इसका लेना-देना स्वभाव, अनुशासन और विपरीत परिस्थितियों में संकट से बाहर निकलने और निकालने की योग्यता से भी होता है. पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से द्रविड़ भारतीय क्रिकेट में यह भूमिका निभाते आ रहे हैं. इसे देखते हुए यह बिल्कुल स्वाभाविक लगता है कि जब भी कल की बड़ी उम्मीदें लड़खड़ाने लगती हैं तो वर्तमान और भविष्य के बीच के पुल को मजबूत करने के लिए द्रविड़ सामने आते हैं. हाल ही में ऐसा तब हुआ जब दो साल तक एकदिवसीय क्रिकेट से दूर रखे जाने के बाद उन्हें चैंपियंस ट्रॉफी के लिए एकदिवसीय टीम में शामिल किया गया. मगर साफ था कि उनकी भूमिका उन्हें अच्छे से नहीं समझाई गई थी. क्या यह एक अस्थायी इंतजाम था क्योंकि टूर्नामेंट दक्षिण अफ्रीका की उछाल भरी पिचों पर खेला जा रहा था जहां आईपीएल के पहले एपिसोड के कई युवा स्टार ढेर हो चुके थे? या इसका मतलब यह था कि वे 2011 के विश्वकप के दौरान टीम में होंगे? या फिर ऐसा यूं ही किया जा रहा था?
चैंपियंस ट्रॉफी में तो द्रविड़ ने अच्छा प्रदर्शन किया मगर आसान घरेलू विकेटों पर उन्हें कहीं बड़ी चुनौती मिली और उन्हें नौजवानों के लिए जगह छोड़नी पड़ी. यह देखकर खराब लगता है कि अपने करिअर के शुरुआती और आखिरी दोनों छोरों पर द्रविड़ जैसे खिलाड़ी को इस तरह खिलाया गया. करिअर के मध्य दौर में तो कोई ऐसा सोच भी नहीं सकता था. इंग्लैंड के दौरे पर उनके लिए जो गड्ढ़ा खोदा गया था उससे बाहर निकलने में द्रविड़ को दो साल लग गए. वक्त बुरा हो तो साथी भी साथ छोड़ देते हैं. इस सीरिज के बाद कुछ जूनियर खिलाड़ियों ने भी उनकी आलोचना की थी. उनकी बल्लेबाजी का वह आत्मविश्वास गायब हो गया था. यहां तक कि उनकी फील्डिंग भी खराब हो गई. 14 पारियों में वे कोई शतक नहीं बना सके और उनका औसत फिसलकर 38 पर आ गया. लगातार यह कहा जाने लगा कि उनका वक्त खत्म हो गया है. कइयों ने उन्हें लड़ने की बजाय सम्मानजनक तरीके से संन्यास की सलाह भी दी. मगर शायद वे द्रविड़ की प्रकृति को भूल गए थे. भूल गए थे कि द्रविड़ को सबसे ज्यादा प्रेरणा ही तब मिलती है जब कोई कहे कि तुम इस लायक नहीं हो.
दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड के खिलाफ उनके शतक आलोचकों को शांत करने में नाकामयाब रहे. मगर इसके बाद न्यूजीलैंड सीरिज में भी जब उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया तो सब खामोश हो गए. फिर अहमदाबाद और कानपुर की पारियों में उसी पुराने द्रविड़ की झलक दिखी. उसी सफाई, आक्रमण और नियंत्रण की जिसके बल पर वे अपने बेहतरीन वर्षों में गेंदबाजों को पस्त करते रहे थे. अचानक ही 36 की उम्र में दो महान भारतीय खिलाड़ियों को एक नया जीवन मिल गया है. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 175 रनों की असाधारण पारी ने इस बहस को फिलहाल तो विराम दे दिया है कि 2011 में होने वाले विश्वकप के लिए तेंदुलकर टीम में होंगे अथवा नहीं. द्रविड़ भी हो सकते हैं मगर यदि ऐसा नहीं होता तो भी उन्हें ज्यादा निराशा नहीं होगी. क्योंकि उनके बल्ले से अब फिर से रनों की बरसात होने लगी है. और ये रन उसी तरीके से बन रहे हैं जिसमें उन्हें सबसे ज्यादा आनंद आता है.
तेंदुलकर सरीखी प्रतिभा की महानता को आंकना मुमकिन नहीं. द्रविड़ की महानता न सिर्फ समझ में आती है बल्कि आश्वस्त भी करती है. तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी खेल में दुर्लभता से ही पैदा होते हैं और जब वे जाते हैं तो यह मान लिया जाता है कि उनकी जगह को कभी नहीं भरा जा सकता. उनकी कोई विरासत नहीं होती. विरासत गावस्कर और द्रविड़ सरीखे खिलाड़ी छोड़ते हैं. अपनी सही कीमत और भारतीय क्रिकेट में अपने योगदान को जानने के लिए द्रविड़ को शायद अभी इंतजार करना होगा. वे असीमित धैर्य वाले इंसान हैं और लगता भी नहीं कि उन्हें कोई जल्दी है.