उमा का पूरा जीवन मानवीय संसार के विभिन्न रंगों से सराबोर है. आठ साल की उम्र में भाजपा से जुड़ने वाली उमा धर्म और राजनीति के घालमेल तथा धर्म की ताकत और उसकी सीमाओं का सबसे सटीक उदाहरण हैं. टीकमगढ़ के एक लोध परिवार में जन्मी उमा रागिनी भारती ने जब बहुत छोटी उम्र में ही धार्मिक प्रवचन देने की शुरुआत की तो अपेक्षाकृत स्त्री विरोधी समझा जाने वाला बुंदेलखंडी समाज नतमस्तक हो गया. जिस उम्र में बच्चे पढ़ने-लिखने की शुरुआत करते हैं, उस समय वह रामायण और गीता सहित दूसरे धर्मग्रंथों को कंठस्थ करके जनता को उसका मर्म समझा रही थी. उस बच्ची की चहुंओर इतनी ख्याति हुई कि वह जहां भी जाती उसे देखने और सुनने के लिए लाखों की संख्या में भीड़ आया करती थी. उसी समय उस बच्ची पर ग्वालियर घराने की राजमाता विजयराजे सिंधिया की नजर पड़ी. यहीं पर धर्मसत्ता का राजनीति और राजसत्ता से मेल हुआ. वह विलक्षण बच्ची अब अपने राजनीतिक गुरु के संरक्षण में थी. समय का पहिया घूमता गया और प्रवचन देने वाली लड़की धीरे-धीरे राजनीतिक भाषण देने लगी. 25 साल की उम्र में मध्य प्रदेश की खजुराहो लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर उमा ने पहली बार औपचारिक रूप से चुनावी राजनीति में कदम रखा. चूंकि वह समय इंदिरा गांधी की हत्या के बाद का था इसलिए कांग्रेस के प्रति उपजी सहानुभूति की लहर में उमा की नयी नवेली राजनीतिक कश्ती डूब गई. बाद में उसी सीट से खजुराहो की जनता ने उन्हें लगातार चार बार संसद भेजा. इसके बाद उमा ने राजधानी भोपाल का रुख किया. यहां से चुनाव लड़ा और जीतीं.
धर्म और राजनीति के घालमेल का व्यक्ति के तौर अगर पर सबसे सटीक उदाहरण उमा हैं तो पार्टी के तौर पर भाजपा
धर्म और राजनीति के घालमेल का व्यक्ति के तौर पर अगर पर सबसे सटीक उदाहरण उमा हैं तो पार्टी के तौर पर भाजपा. चूंकि 90 के दशक में पार्टी का एकमात्र एजेंडा राम और अयोध्या था, इसलिए वहां उमा का एक बड़ा रोल तो तय होना ही था. आडवाणी और बाकी दूसरे नेताओं की उम्मीदों पर 5 साल की उम्र से ही राम नाम जपने वाली उमा बिलकुल खरी उतरीं. गेरुए वस्त्रों वाली उमा ने जब दूसरे नेताओं के साथ मिलकर अयोध्या में ‘एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो’ का नारा दिया तो उन्मादी भीड़ ने उसका अक्षरश: पालन किया. एक तरफ मस्जिद का ढांचा टूट कर जमीन पर आ रहा था दूसरी तरफ उमा और भाजपा का राजनीतिक कद ऊपर जा रहा था. उमा के जीवन का यह टर्निंग प्वाइंट था. अब उमा केवल उमा नहीं थीं बल्कि अयोध्या आंदोलन फिल्म की प्रमुख पात्र भी थीं. जाहिर था जहां-जहां भी इस फिल्म के पोस्टर लगे उसमें आडवाणी के संग उमा भी थीं. फिल्म हिट हो गई. फिल्म के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर अब उन्हें और बड़ा रोल देना चाहते थे. इधर उमा को भी एहसास हो गया था कि वह कोई छोटी-मोटी अदाकारा नहीं है. आत्मविश्वास में अति जुड़ने की शुरुआत हो चुकी थी. इसके बाद बनने वाली एनडीए सरकारों में उमा ने मानव संसाधन, पर्यटन, युवा एवं खेल तथा कोयला मंत्रालय तक संभाला. अपनी राजनीति की शुरुआत ही उमा ने केंद्र से की.
इधर मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह दस साल से मुख्यमंत्री बने हुए थे. जनता में सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में नकारात्मक विकास के कारण रोष था, जिसकी वजह से उनके खिलाफ एक मजबूत सत्ता विरोधी लहर थी. लेकिन भाजपा में कोई ऐसा नेता नहीं था जो दिग्गी राजा की इस कमी को अपनी ताकत बना सके. मध्य प्रदेश में पार्टी ने दिग्गी को हराने की जिम्मेदारी अपनी उस नेता को दी जिसके पैर कभी दिग्गी भी छुआ करते थे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनडी शर्मा कहते हैं, ‘जब उमा भारती को हाईकमान ने राज्य में भेजा तो दबी जुबान में कुछ लोगों ने उसका विरोध किया था. प्रदेश में हमेशा एक वर्ग ऐसा रहा जो उमा का विरोधी रहा. लेकिन चूंकि उमा को दिल्ली से भेजा गया था इसलिए इन नेताओं ने इस निर्णय को स्वीकार कर लिया.’
मानव संसाधन मंत्रालय में राज्य मंत्री रही उमा ने प्रदेश के मानव संसाधन को ऐसे मैनेज किया कि दिग्गी राजा के पैरों तले जमीन खिसक गई. धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाला राजा एक भगवा महिला के हाथों पराजित हो चुका था. इतनी बड़ी जीत के बाद उमा को मुख्यमंत्री तो बनना ही था. साध्वी का स्वर्णिम युग प्रारंभ हो चुका था, लेकिन उसकी उम्र गर्भ में पलने वाले शिशु जितनी ही थी. सिर्फ नौ महीने में इस युग को अनिश्चितकाल के लिए ग्रहण लगने वाला था. उमा इधर जीत के जश्न में मगन थीं वहीं दूसरी तरफ सतह के नीचे कुछ और भी घट रहा था. इसकी खबर उमा को पहले से थी तो लेकिन उन्होंने इसके प्रभाव को कम करके आंका था. उमा ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि सन, 96 बीजेपी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ था. 13 दिन की सरकार में राजनीतिक मैनेजरों तथा पार्टी के लिए पैसा उगाही करने वाले न सिर्फ मजबूत हुए बल्कि वे पार्टी और वरिष्ठ नेताओं को दिशानिर्देश तक देने लगे थे. मुख्यमंत्री बनने से पूर्व उमा जब केंद्र की राजनीति में थीं तो उन्होंने ऐसे लोगों के खिलाफ मोर्चा भी खोला था. जैसा उमा बताती हैं कि इस संबंध में उन्होंने आडवाणी से भी कहा था, ‘दादा आप ऐसे लोगों की संगत में आज हैं जो आपके स्वभाव के ठीक विपरीत हैं.’ पॉलिटिकल और फ्रंट मैनेजरों को इसकी जानकारी हो गई थी. जाहिर है वे इससे नाराज हुए. लेकिन अयोध्या आंदोलन से निकली उमा को सबक सिखाना तब उनके बूते से बाहर था. कभी कोयला मंत्रालय में राज्य मंत्री रहीं उमा भारती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही प्रदेश में भी काले कारनामे करने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया. इस शिकंजे की गिरफ्त में सिर्फ कांग्रेसी ही नहीं बल्कि भाजपा के भी लोग आए.
मध्य प्रदेश में पक्ष और विपक्ष के बीच अद्भुत जुगलबंदी चल रही थी, लेकिन उमा भारती के मुख्यमंत्री बनने के बाद खेल बिगड़ने लगा
उमा के मुख्यमंत्री बनने के पूर्व तक मध्य प्रदेश की राजनीति में कमाल का मैनेजमेंट था. शर्मा कहते हैं, ‘उमा के आने से पहले दोनों प्रमुख दलों अर्थात कांग्रेस और बीजेपी ने एक ऐसा सिस्टम विकसित कर लिया था जिसके आधार पर दोनों मिलकर प्रदेश को लूटते थे. विपक्ष जैसी कोई चीज नहीं थी. विपक्ष सत्ता पक्ष को छेड़ता नहीं था और न ही उनकी काली करतूतों के खिलाफ उतना बोलता था कि कोई सुन ले. इसके बदले में सत्ता पक्ष विपक्ष को वही सुविधाएं देता था जो उसे खुद हासिल थीं.’ इस अद्भुत समाजवाद में सब मजे से खा-कमा रहे थे. किसी को किसी से भय नहीं था. पक्ष और विपक्ष के बीच इस प्रकार की आपराधिक सहमति की परंपरा 90 के दशक में अर्जुन सिंह के कार्यकाल में शुरू हुई थी. उनके सुंदरलाल पटवा से हमेशा अच्छे संबंध रहे. जब पटवा मुख्यमंत्री बने उस दौरान श्यामा चरण शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे. लेकिन विधानसभा में कांग्रेस के अधिकांश विधायक अर्जुन सिंह कैंप से थे. पटवा की सरकार बाबरी मस्जिद टूटने के बाद भले बर्खास्त हो गई लेकिन जब तक वे मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह ने उन्हें सदन के भीतर कभी कोई असुविधा नहीं होने दी. दिग्विजय सिंह के दूसरे कार्यकाल में बाबूलाल गौर नेता प्रतिपक्ष थे. गौर के न केवल दिग्गी से संबंध अच्छे थे वरन अर्जुन सिंह, कमलनाथ समेत कांग्रेस के अन्य नेताओं से भी उनकी जबर्दस्त पटरी बैठती थी. बाद में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके इस व्यवहार के कारण भाजपा के ही नेता कहने लगे थे कि वे भाजपा सरकार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हैं.
पक्ष और विपक्ष के बीच की यह अद्भुत जुगलबंदी ठीक-ठाक चल रही थी कि उमा भारती बीच में आ गईं. उन्होंने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करनी शुरु कर दी. सबसे पहले उन्होंने सहकारिता के भ्रष्टाचार पर निशाना साधा, जो लंबे समय से कांग्रेसियों के कब्जे में था. उमा के कार्यकाल में सहकारिता मंत्री थे गोपाल भार्गव. भार्गव ने जांच में तेजी दिखाई और जल्द ही अर्जुन सिंह के एक करीबी नेता को जेल जाने की नौबत आ गई. भार्गव पर कुछ नेताओं ने मामले को ठंडे बस्ते में डालने के लिए दबाव बनाना शुरू किया, लेकिन उमा से इस मामले के लिए ग्रीन सिग्नल पा चुके भार्गव इसके लिए तैयार नहीं थे. तभी 1994 के हुबली दंगा मामले में एक गिरफ्तारी वारंट उमा के खिलाफ जारी होता है. केंद्र से लेकर राज्य तक उमा से खार खाए नेताओं के लिए उमा से निपटने का यह एक बड़ा मौका था.दिल्ली से लेकर भोपाल तक उमा की राजनीतिक हत्या की साजिश रची जाने लगी. उमा को समझाया गया कि वे कुछ समय के लिए अपना पद छोड़ दें और जैसे ही मामले से बरी होंगी उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा. कभी केंद्र में खेल राज्य मंत्री रही उमा भारती अपनी ही पार्टी के नेताओं के खेल नहीं समझ पाईं. उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
अगस्त, 2004 का वह दिन उमा के जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट था. इस दिन वे अनिश्चितकाल के लिए सत्ता से बाहर कर दी गई थीं. मामले से बरी होकर जब उन्होंने वापस मुख्यमंत्री पद की मांग की, तो उन्हें मायूसी हाथ लगी. उनके विरोधियों ने अपनी चालें चल दी थीं. उन्होंने पहले बाबूलाल गौर को सीएम बनाया फिर शिवराज को स्थापित कर दिया. भावुक और ज़ज्बाती उमा के लिए यह सब बर्दाश्त कर पाना असंभव हो गया. पीड़ा जब हद से गुजर गई तो उसने व्यवहार को हिंसक और अशोभनीय बना दिया. उमा ने एक-एक कर केंद्र और राज्य के लगभग सभी बड़े नेताओं को गरियाना शुरू कर दिया. गौर जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में गौर पर दुराचारी और व्याभिचारी होने तक का आरोप लगा दिया था.
उमा को यह पता था कि इस षड्यंत्र की रचना दिल्ली में हुई थी. उन्हें सर्वाधिक पीड़ा इस बात की थी कि आखिर अटल और आडवाणी उनके खिलाफ हुए इस षड्यंत्र में कैसे भागीदार बन गए. यही असहनीय पीड़ा उस दिन खुलकर उनकी जुबान पर आ गई जब आडवाणी भाजपा के सभी बड़े नेताओं के साथ बैठक कर रहे थे. इस बैठक में वे आडवाणी से ही उलझ पड़ीं, और नाराज होकर मीटिंग से बाहर निकल गईं. जाते-जाते कह गईं कि आडवाणी जी मेरे इस व्यवहार के लिए आप मेरे खिलाफ कार्रवाई कीजिए. पूरे मीडिया के सामने हुई इस घटना के बाद उमा पार्टी से निलंबित कर दी गईं. मई 2005 में संघ में दबाव में उमा का निलंबन तो वापस ले लिया गया मगर एक बार फिर भोपाल में हुई विधायक दल की मीटिंग में शिवराज के सीएम बनने के प्रस्ताव का विरोध करते हुए वे मीटिंग से बाहर चली गईं. इस बार उनके विरोधी उन्हें पार्टी से निकालने में सफल रहे.
इसके बाद उमा भोपाल से अयोध्या तक राम-रोटी यात्रा पर निकल पड़ीं. शर्मा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘वे जहां जाती थीं हर तरफ लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता था. हर तरफ से बच्चे, बूढे, जवान और महिलाएं उनके चरण छूने और उन्हें देखने के लिए दौड़ पड़ते थे.’ जानकारों के मुताबिक लोगों के इस सैलाब ने ही उमा के अंदर यह भाव भर दिया कि बीजेपी को उनकी शर्तों पर उन्हें वापस लेना पड़ेगा. लेकिन जब लंबे इंतजार के बाद भी ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली. उमा को पूरा यकीन था कि जो विशाल भीड़ राम-रोटी यात्रा में उनकी एक झलक भर पाने को बेताब है वह उन्हें जरूर वोट देगी. उमा को यह विश्वास था कि या तो वे बीजेपी को नाकों चने चबवा देंगी जिसके कारण या तो वह उन्हें पार्टी में दुबारा स्वीकार कर लेगी या फिर वे प्रदेश में बीजेपी का विकल्प बन कर उभरेंगी. लेकिन यहीं वे चुनावी राजनीति को समझने में भूल कर गईं. दर्शन करने आई जनता ने साध्वी से आशीर्वाद तो लिया लेकिन बदले में अपने वोटों की श्रद्धा उन्हें अर्पित नहीं की. उमा चुनाव दर चुनाव हारती चली गईं. एक वक्त ऐसा भी आया कि यह करिश्माई नेता अपनी सीट तक नहीं जीत पाईं. भाजपा को छोड़कर जो नेता उनके साथ गए थे वे भी बाद में एक-एककर वापस भाजपा में आ गए. इसके बाद भाजपा में वापस आना ही एकमात्र विकल्प उनके सामने बचा रह गया था.
विश्लेषक इस बात पर एकमत हैं कि उमा ने अपनी क्षमता को अधिक आंक लिया था. उमा कभी कहा करती थीं कि वे बीजेपी के पास नहीं जाएंगी बल्कि बीजेपी उनके पास आएगी. अब यह तो वही बता पाएंगी कि इस बार कौन किसके पास गया था. यह जग जाहिर है कि राज्य से लेकर केंद्र तक कोई भी बड़ा नेता उमा की वापसी के पक्ष में नहीं था लेकिन संघ के दबाव और गडकरी की उमा के प्रति श्रद्धा भाव के कारण वे वापस आईं हैं. वरिष्ठ राजनीतिक प्रेक्षक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘उमा के मामले में निर्णय हमेशा या तो संघ ने किया है या फिर हाईकमान ने. उमा के पूरे राजनीतिक करियर में स्टेट लीडरशीप का कोई रोल नहीं रहा. 2003 में भी उमा को मध्य प्रदेश भेजने से पूर्व हाईकमान ने स्थानीय नेताओं से उनकी राय जानने की कोशिश नहीं की. इस बार भी लगभग वही हुआ है.’ इस बार खास बात यह है कि यह निर्णय बीजेपी ने नहीं वरन संघ ने बीजेपी के राज्य से लेकर केंद्र तक के सभी नेताओं को सुनाया और स्वीकार करने पर मजबूर किया है.