एक पुलिसिया दंगा

 

जयपुर से तकरीबन 170 किलोमीटर दूर भरतपुर का गोपालगढ़. सांप्रदायिक हिंसा के मानचित्र पर एक ताजातरीन नाम. 14 सितंबर को यहां की जामा मस्जिद पर हुआ पुलिस का हमला आज भी आसपास के 40 गांवों को आतंक से उबरने नहीं देता. इस दिन मेव और गूजर समुदाय के एक झगड़े को मस्जिद और उसके अंदर-बाहर मेवों पर चलाई पुलिस की गोलियों ने सांप्रदायिक बना दिया. उसके बाद से हवाओं, गलियों में पसरे सन्नाटे और कई मकानों पर लटके ताले बताते हैं कि तकरीबन पांच हजार की आबादी वाले इस गूजर बहुल कस्बे में मेव समुदाय के ज्यादातर लोग अभी भी अपने घरों में लौटना नहीं चाहते. हालांकि अब पुलिस और अर्धसैनिक बलों की टुकड़ियां चौकन्नी नजर आती हैं. सियासी और समाजसेवी संगठनों की आवाजाही भी लगातार जारी है. मगर पीडि़तों को शायद किसी पर भरोसा नहीं. पुलिस और सरकार की एजेंसियों पर तो बिल्कुल भी नहीं.

आधिकारिक आंकड़ा कहता है कि 14 सितंबर को गोपालगढ़ में कुल 10 लोग मारे गए और 23 से ज्यादा घायल हुए. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में मिले संकेत बताते हैं कि पुलिस की गोली से तीन लोगों की मौत हुई है. इन तीनों को शरीर के ऊपरी हिस्से में गोली लगी थी. जबकि पुलिस फायरिंग में पैरों को निशाना बनाया जाता है. घटना में बाकी लोगों की मौत से जुड़े सवालों को भरतपुर के नवनियुक्त पुलिस अधीक्षक विकास कुमार यह कहकर टाल देते हैं कि इसी के लिए तो जांच एजेंसियां नियुक्त हुई हैं. यह पहला मौका है जब राज्य में एक ही प्रकरण की न्यायिक और सीबीआई दोनों जांचें कराई जा रही हैं.

आधिकारिक आंकड़ा कुछ भी कहे मगर घटना के बाद लापता लोगों और जली लाशों की कुल संख्या अब तक स्पष्ट नहीं हो सकी है. घटना के चौथे दिन गोपालगढ़ से तीन किलोमीटर दूर लदुमका गांव के बाशिंदों ने तहलका को बताया था कि उनके पास दो जली लाशों के अंग हैं. यह पूछने पर कि उन्होंने अब तक इस बारे में पुलिस को क्यों नहीं बताया, उनका जवाब था कि हमने पहले भी ऐसी पांच लाशों को पुलिस को सौंपा था मगर उन्हें आधिकारिक मौतों में गिना ही नहीं गया. मस्जिद के पीछे और सामने तीन से पांच शरीरों को जलाने के निशान पाए गए. जब इस बारे में तहलका ने भरतपुर के आईजी सुनील दत्त से पूछा तो उन्होंने माना कि यह सच है, मगर इसके आगे वे कुछ नहीं बताते. अपने जले जख्मों का इलाज करवा रहा इस्माइल बताता है कि जब वह मस्जिद के भीतर लोगों के साथ था तो कुछ पुलिसकर्मियों के साथ कई सारे गूजर भी भीतर आ गए और ज्वलनशील पदार्थ फेंकना शुरू कर दिया. इस्माइल बताता है, ‘एक पुलिसवाले ने मुझे पकड़कर कहा कि इसका अंतिम संस्कार यहीं कर दो.’ इसके बाद उसे जान बचाने के लिए आग पर से दौड़ना पड़ा. फिर उसने कीचड़ से भरे गड्ढ़े में कूदकर अपनी जान बचाई. जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में भर्ती एक घायल ईशा खां बताता है कि गूजरों ने पहले उसे लाठी-सरियों से मारा, फिर पेट्रोल छिड़ककर पुलिस की मौजूदगी में आग लगा दी. दूसरे घायल मौलाना खुर्शीद की मानेंगे तो फायरिंग के बाद पुलिस ने मस्जिद के भीतर गंभीर और मृत अवस्था में पड़े लोगों के शरीरों से गोलियों के निशान हटाने के लिए उनके अंगों को काटा.

लदुमका के ताहिर खान बताते हैं, ‘अचानक हुई पुलिस फायरिंग ने किसी को कुछ भी सोचने का मौका नहीं दिया. उसी वक्त गूजरों ने भी हमला कर दिया. हमलावरों के पास तीन चीजें थीं गाय का सूखा गोबर, सूखी लकडि़यां और पेट्रोल. उनका मकसद हमें जिंदा या मार कर जला देना था. ’ताहिर तो किसी तरह अपनी जान बचा पाए मगर उनके चचेरे भाई जाकिर हुसैन मस्जिद के भीतर पुलिस के हमले में मारे गए. 14 सितंबर को पुलिस की गोलियों ने और लोगों के साथ नमाज अदा करने जामा मस्जिद गए लदुमका के भी दो लोगों की जान ली और चार को लापता बनाया. घटना के बाद अब तक लापता लोगों की ठीक-ठीक संख्या का अंदाजा नहीं लगाया जा सका है. फिलहाल यह कहना भी मुश्किल है कि उनका अंजाम क्या हुआ.

पुलिस कहती है कि उसने शांति व्यवस्था कायम करने के लिए फायरिंग की थी और उसकी गोली से जो मौतें हुई हैं वे गलती से हुईं. मगर दंगा नियंत्रण वाहन को मस्जिद के सामने खड़ा करके 209 गोलियां दागने से पहले लाठीचार्ज या रबर बुलेट जैसे तरीकों को क्यों इस्तेमाल नहीं किया गया? और अगर गोलीबारी अनियंत्रित भीड़ पर की गई थी तो मस्जिद के भीतर ऐसा क्यों किया गया? यह सवाल भी उठता है कि अगर यह दो समुदायों के झगड़े को रोकने की पुलिस की कोशिश का नतीजा था तो एक ही मेव समुदाय के लोगों की जानें क्यों गई. ज्यादातर मौतें भी मस्जिद के भीतर या उसके आसपास हुई हैं. इससे यह संदेह मजबूत होता है कि पुलिस फायरिंग एक ही समुदाय को लक्ष्य बनाकर की गई थी. पुलिस फायरिंग से पहले एक भी जान जाने की रिपोर्ट दर्ज नहीं है, न ही घायल होने की. मगर ज्यों ही फायरिंग होती है, लोगों की मौतों का सिलसिला शुरू हो जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता रमजान चौधरी के मुताबिक, ‘दंगा दबाने के लिए खुली गोलीबारी जैसी स्थिति नहीं थी, इसलिए घटना में गूजरों और पुलिस की मिलीभगत की बू आती है.’

सवाल यह है कि 209 गोलियां दागने से पहले पुलिस ने लाठीचार्ज या रबर बुलेट जैसे तरीके क्यों इस्तेमाल नहीं किए?

तहलका ने मस्जिद के बाहर और भीतर कई गोलियों के निशान देखे. मेव पंचायत का आरोप है कि पुलिस ने सच्चाई छिपाने के लिए न केवल मरने वालों की संख्या में हेर फेर किया बल्कि मस्जिद में हुई पुलिस फायरिंग के सबूत भी मिटाने की कोशिश की. घटना के तीसरे दिन तहलका को मिली मस्जिद के भीतर की तस्वीरें बताती हैं कि दीवारों पर कई जगह गोली के निशानों को छिपाने के लिए ताजा सीमेंट लगाया गया था. उस समय पुलिस फायरिंग के बाद मस्जिद परिसर पुलिस के कब्जे में था; इससे इस निष्कर्ष को बल तो मिलता ही है.

ताजा संघर्ष की जड़ मस्जिद के पास की एक दशक पुरानी विवादित जमीन है. 2000 में गोपालगढ़ के कुरैशी मोहल्ले ने कब्रिस्तान के विस्तार के लिए मस्जिद के पीछे सवा चार बीघा जमीन जगदीश प्रसाद शर्मा से खरीदी थी. उसके आसपास गूजर समुदाय के कुछ घर होने के चलते आपसी रजामंदी के बाद सवा दो बीघा जमीन गूजरों को दे दी गई. बाकी बची दो बीघा जमीन पर गूजरों ने कब्जे के तो मेवों ने कागजों में नाम होने के आधार पर दावा किया. मामला पहाड़ी जिला न्यायालय में था और तनाव बढ़ता जा रहा था. 12 सितंबर को पहाड़ी के तहसीलदार ने गूजरों से जमीन खाली करवाने का आदेश दिया. इसकी प्रतिक्रिया में 13 तारीख को कुछ गूजरों ने मस्जिद के इमाम अब्दुल राशिद से मारपीट की. इसके विरोध में 14 तारीख को सुबह जामा मस्जिद में एक सभा बुलाई गई जिसमें आसपास के गांवों से बड़ी संख्या में मेव आए. उसी दिन स्थानीय नेता अबु और शेर सिंह के घर भी सैकड़ों गूजर जमा हुए.

गोपालगढ़ की हिंदू आबादी में गूजर समुदाय का दबदबा है. आम तौर पर यह समुदाय मस्जिद में होने वाली सभाओं को लेकर आशंकित रहता है. उस दिन भी मेवों के जनसैलाब ने गूजरों को कई तरह की आशंकाओं से घेर लिया था. गोपालगढ़ के एक गूजर रहवासी के मुताबिक, ‘मुसलमानों की रोज बैठकें होती थीं. मगर उस दिन मस्जिद में हजारों लोग जमा हुए. ऐसा लगता था कि उनकी तरफ से किसी बड़े हमले की तैयारी हो रही हो.

14 की सुबह करीब 11 बजे जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक की मौजूदगी में मेवों और गूजरों के बीच प्रारंभिक संघर्ष हुआ. स्थिति नियंत्रण से बाहर होती देख कामां विधायक जहीदा खान और नगर विधायक अनीता भदेल के हस्तक्षेप से दोनों समुदायों के नेताओं ने दोपहर को पुलिस स्टेशन पहुंचकर विवाद सुलझाना चाहा. बैठक में मौजूद प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि इस दौरान शेर सिंह गूजरों की ओर से इमाम के साथ की गई मारपीट के लिए उनसे माफी मांगने के लिए भी तैयार हो गया था. मगर शाम के करीब पांच बजे कुछ लोग आए और उन्होंने यह अफवाह फैला दी कि मुसलमानों ने दस गूजरों को मार डाला है, उनके शवों को मस्जिद में रखा गया है. बैठक में मौजूद रही विधायक जहीदा खान ने तहलका को बताया, ‘उसके बाद भरतपुर से आए भाजपा और आरएसएस के दस-बारह नेताओं ने पुलिस पर मस्जिद के भीतर से शवों को छुड़ाने की कार्रवाई के लिए दबाव बनाया. जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक ने थाने में ही पुलिस फायरिंग का आदेश तब दिया जब असर की नमाज का वक्त था और लोगों को जिला प्रशासन द्वारा की गई बातचीत के नतीजे का इंतजार था.’

जहीदा कहती हैं, ‘धर्मस्थल में एक आतंकवादी भी घुसता है तो उसके लिए बाहर से ही घेराबंदी की जाती है, मगर भीतर जाने की अनुमति नहीं होती और यहां तो मस्जिद के भीतर घुसकर मारा गया.’ राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ निजाम मोहम्मद का आरोप है, ‘यहां गाय बचाने के नाम पर आरएसएस ने गूजरों को मेवों के खिलाफ खड़ा कर दिया है.’

अगर प्रारंभिक संघर्ष के बाद कोई कार्रवाई की जाती तो यह घटना टाली भी जा सकती थी. गोपालगढ़ के तनाव को देखते हुए पुलिस के पास काफी मौका भी था, मगर उसने न तो कस्बे में धारा 144 लगाई, न दंगे की आशंका के मद्देनजर हथियार जब्त किए और न ही समय रहते भीड़ को हटाने की कोई कोशिश की. आम तौर पर दंगों के बाद का विवरण गृह सचिव या पुलिस प्रमुख द्वारा दिया जाता है. मगर इस बार मुख्य सचिव एस अहमद से वक्तव्य दिलवाया गया. राजस्थान लोक प्रशासन संस्थान के पूर्व प्रोफेसर एम हसन के मुताबिक, ‘इसके पीछे यह चालाकी दिखती है कि एक अल्पसंख्यक की आवाज के जरिए उसके समुदाय के बीच आधिकारिक विवरणों पर भरोसा जमाया जाए. ’पुलिस की ओर से फायरिंग करने के सवाल पर मुख्य सचिव का कहना था, ‘गोपालगढ़ में पुलिस अगर गोली नहीं चलाती तो 150 से ज्यादा लोग मारे जाते.’

प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक शेर सिंह गूजरों की ओर से इमाम से माफी मांगने के लिए तैयार हो गया था

हालांकि राशिद अल्वी के नेतृत्व में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने इसके लिए सीधे तौर पर गृहमंत्री शांति धारीवाल को जिम्मेदार ठहराया है. सोनिया गांधी को सौंपी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि गृहमंत्री स्थितियों को संभाल नहीं पाए और उनके निर्णय भी एकपक्षीय थे. दूसरी तरफ भाजपा की प्रदेश इकाई ने अपनी प्रेस रिलीज में प्रशासन को घेरने की बजाय उसकी कार्रवाई का समर्थन किया है. मेवात में देश के विभाजन के बाद से कोई दंगा नहीं हुआ था. मेवात का मेव समुदाय बाकी इलाकों के मुसलमानों से अलग है; रहन-सहन के मामले में तो यह हिंदुओं के ज्यादा करीब लगता है. इसलिए स्थानीय रहवासी शमशेर सिंह को ताजा घटना पर भरोसा नहीं होता. वे कहते हैं, ‘मेव और गूजर के बीच इससे पहले कभी इतना बड़ा तनाव नहीं सुना.’ यहां तक कि कई पीडि़तों का भी यह मत है कि आपस में छोटा-मोटा वाद-विवाद तो चलता रहता था मगर कोई जान का प्यासा तो नहीं ही था.

राजनीतिक तौर पर हुए नुकसान की भरपाई के लिए मुख्यमंत्री गहलोत को जल्द से जल्द जवाब देना है, लिहाजा उन्होंने सीबीआई के साथ ही न्यायिक जांच का एलान भी किया है. यहां सवाल उठता है कि दोनों जांचों के निष्कर्षों में ही कहीं विरोधाभास की स्थितियां न बन जाए.