पिछले एक सप्ताह के दौरान झारखंड की राजधानी रांची में सभी मुख्य पार्टियों के कार्यालयों के बाहर नजारा देखते ही बन रहा था. रास्ते में टकटकी लगाए कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी दिखती थी. इस उम्मीद के साथ कि पता नहीं किस क्षण कौन उनकी पार्टी में आ जाए और उन्हें जय-जयकार करते हुए माला पहनाकर उसका स्वागत करना पड़े. करीब एक सप्ताह तक राज्य के सभी दलों में भगदड़ वाली स्थिति रही. अप्रत्याशित तरीके से आखिरी क्षण में प्रत्याशी हटते रहे, जुटते रहे और पाला बदलकर सीधे एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर जाते रहे. यह हलचल अब भी जारी है. दूसरे कार्यकर्ताओं या नेताओं की बात कौन करे, वर्तमान विधायकों में से भी तकरीबन 20 प्रतिशत ने आखिरी समय में पाला बदला. कुल 81 में 16 विधायक ऐसे रहे, जिन्होंने अपने दल का दामन छोड़ दूसरे का दामन थामा है. पल भर में पाला बदलने का खेल चल रहा है. क्षण भर नजरों में बसे रहनेवाले को नजरों में चढ़ा लेने और नजरों में चुभते रहनेवालों को नजरों में बसा लेने का खेल. चुनाव के पहले लगभग हर जगह ऐसे खेल होते हैं.
बतौर राज्य, छोटी-सी उम्र में ही राजनीति के क्षेत्र में कई अनोखे कीर्तिमान स्थापित कर चुके झारखंड में इस बार स्थिति बिल्कुल भिन्न है. एक-दूसरे को मात देकर मंत्री-मुख्यमंत्री तक बन जाने का खेल तो यहां बाकी राज्यों की तर्ज पर होता रहा है लेकिन चुनाव के वक्त किसी दल को पता तक न हो कि वह किस रास्ते चले और आखिरी समय तक प्रत्याशी तक का अभाव हो जाए, यह शायद पहली बार देखा जा रहा है. लेकिन इन तमाम बातों में यह बात साफ भी हुई कि झारखंड के चुनाव में इस बार की लड़ाई कैसी होगी. यह एकदम से साफ हुआ कि एक छोर पर भाजपा होगी और दूसरी ओर उससे लड़ने के लिए कई दलों का समूह.
भाजपा का मानना है कि उसे अपनी रणनीतियों के साथ-साथ विरोधी दलों के बिखराव का फायदा मिलना तय है
भाजपा अपना रुख पहले ही साफ कर चुकी है. कुछ माह पहले ही प्रधानमंत्री के तौर पर एक सरकारी आयोजन में आए नरेंद्र मोदी चुनावी बिगुल बजाकर जा चुके हैं. उनके तुरंत बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आकर कार्यकर्ताओं के बीच पार्टी की नीति और रणनीति का खुलासा कर गए थे. मोदी ने विकास का पासा फेका था. शाह ने द्वंद्व और दुविधा के बीच झारखंडवासियों को झूला दिया था. शाह ने कहा था कि पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी, मुख्यमंत्री का कोई उम्मीदवार पहले से घोषित नहीं होगा और यह भी जरूरी नहीं होगा कि आदिवासी ही मुख्यमंत्री बने. ‘जो योग्य होगा और जिसके नाम पर पार्टी की मुहर लगेगी, वही मुख्यमंत्री बनेगा.’ ऐसा कहकर भाजपा अध्यक्ष ने पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती लेते हुए झारखंड में पहली बार गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं की ओर संकेत दे दिए थे. झारखंड में आमतौर पर ऐसे बयान बहुत जोखिम भरे माने जाते हैं, लेकिन शाह ने किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाने का संकेत देकर पार्टी के कार्यकर्ताओं को एकजुट जरूर कर दिया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि झारखंड में भाजपा के जो भी चार-पांच बड़े नेता हंै, उनके मातहत नेता व कार्यकर्ता अपनी पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. इस उम्मीद के साथ कि क्या पता, बिल्ली के भाग से छींका फूटे और उनके नेता ही मुख्यमंत्री बन जाएं. भाजपा में उत्साह है, उम्मीदों की लहर है लेकिन उसके सामने चुनौतियां भी कोई कम नहीं. अमित शाह ने पहले से घोषणा कर रखी थी कि पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी लेकिन आखिरी समय में उसे झारखंड की एक प्रमुख पार्टी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन यानी आजसू से समझौता करना पड़ा. भाजपा को आजसू को आठ सीटें देनी पड़ीं और उनमें भी वैसी दो सीटों को छोड़ना पड़ा जो उसके लिए आसान थीं. इनमें से एक सीट रांची से सटे तमाड़ की है. यहां के विधायक राजा पीटर हाल ही में भाजपा में टिकट की उम्मीद में शामिल हुए थे. पीटर भाजपा की टिकट पर आसानी से जीतने वाले प्रत्याशी माने जा रहे थे. पार्टी को रांची से ही सटी एक और सीट सिल्ली छोड़नी पड़ी है. आजसू प्रमुख व राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो यहां से चुनाव लड़ने वाले हैं. गठबंधन से पूर्व चर्चा थी कि भाजपा में हाल ही में शामिल हुए युवा नेता अमित महतो इस सीट से चुनाव लड़ेंगे. यहां से उनकी जीत की पूरी संभावना बताई जा रही थी. भाजपा और आजसू के बीच आखिरी समय में तालमेल हुआ है. भाजपा के कई वरिष्ठ नेता इस मेल-मिलाप को लेकर हो-हल्ला मचाते रहे और विरोध जताते रहे लेकिन गठबंधन का खाका दिल्ली में अमित शाह ने तय किया था इसलिए विरोध करने वालों की आवाज रांची में ही दबकर रह गई. बताया जा रहा है कि भाजपा से आजसू के इस मेल-मिलाप में रिलायंस के प्रमुख पदाधिकारी और झारखंड से राज्यसभा सांसद परिमल नाथवाणी की भूमिका सबसे प्रमुख रही. नाथवाणी को राज्यसभा भेजने में आजसू ने मदद की थी और आजसू के सामने मुश्किल घड़ी आई तो उन्होंने भी भाजपा से मेल-मिलाप करवाकर आजसू के प्रति अपने फर्ज को पूरा किया. नाथवाणी कहते हैं, ‘ आजसू और भाजपा में नेचुरल एलायंस हुआ है, इसे किसी और नजरिये से देखे जाने की जरूरत नहीं.’
भाजपा में यह गठबंधन ही कलह की एकमात्र वजह नहीं है. इस बार झारखंड में यह भी हुआ कि भाजपा ने दिग्गज नेताओं जैसे पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, पूर्व उपमुख्यमंत्री रघुवर दास समेत कई नेताओं के खासमखास संभावित प्रत्याशियों के टिकट काट दिए और उनकी जगह दल-बदलकर आए लोगों को टिकट दिया गया है या फिर संघ की पृष्ठभूमि से आए कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारा है. झारखंड में संघ से जुड़े एक वरिष्ठ कार्यकर्ता बताते हैं, ‘पार्टी की रणनीति साफ है. चुनाव जिताने के लिए संघ और भाजपा के बीच बातें हो चुकी हंै. चुनाव में जीतने की संभावना देखी जाती है इसलिए दल बदलकर आए लोगों से लेकर जीत जाने की संभावना वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया जा रहा है.’ संघ ने भी इस बार पुराने चेहरों को हटाकर अपने कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारा है ताकि भाजपा की इस लहर में उन्हें भी सक्रिय राजनीति में जाने का मौका मिल सके. चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने मनोज नगेशिया जैसे चर्चित नक्सली से लेकर ढुल्लू महतो जैसे आपराधिक मुकदमे झेल रहे लोगों को भी दिल खोलकर टिकट बांटे हंै. भाजपा ने अपने तरीके से और भी तैयारियां पुख्ता की हैं. संथाल परगना में एक सीट बिहार में गठबंधन के साथी रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को दी गई है. पार्टी ने राज्य की सभी 81 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव रथ रवाना किए हैं. झारखंड में अमित शाह की 30 सभाएं तय की गई हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस छोटे से राज्य में पांच चुनावी सभाएं करने आएंगे. भाजपा ने इतनी तैयारियों के बाद यह दांव भी अभी ही खेल दिया है कि वह गैर आदिवासी को भी मुख्यमंत्री बना सकती है. भाजपा जानती है कि आदिवासी मतों को लेकर कई दलों के बीच घमासान मचना है, इसलिए उसने गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का दांव चला है. इसके जरिए वह गैर आदिवासी मतों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में है. इसी तरह की कोशिश वह हिंदू मतों के ध्रुवीकरण को लेकर भी कर रही है. यही वजह है कि राज्य में 15 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद पार्टी ने मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने से परहेज किया है.
कांग्रेस अपने लिए उम्मीदवार भी नहीं जुटा पा रही है और वह दूसरी पार्टियों से थक- हारकर आनेवाले लोगों पर निर्भर कर रही है
भाजपा का मानना है कि उसे अपनी रणनीतियों के साथ-साथ विरोधी दलों के बिखराव का फायदा मिलना तय है. पार्टी का ऐसा सोचना गलत भी नहीं है. पहली बार ऐसा हुआ है जब विरोधी दलों के बीच अंतर्कलह चरम पर दिखी और आखिरी समय तक वे अपने उम्मीदवार जुटाने में ही उर्जा लगाते रहे. इन दलों की स्थिति देखकर ऐसा लग रहा था जैसे चुनाव की कोई संभावना नहीं थी और चुनाव अचानक से आ गया. यह स्थिति भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी में लगे लगभग सभी दलों में देखी जा रही है. राज्य के सबसे प्रमुख दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की इस समय कांग्रेस के साथ सरकार है. यह बड़ी दिलचस्प बात है कि आखिरी समय में दोनों के बीच गठबंधन नहीं बन सका. अब झामुमो अकेले मैदान में है और उसकी निगाहें दूसरे दलों से आनेवाले नेताओं पर है. पार्टी किसी भी तरह जीत जानेवाले उम्मीदवारों की तलाश में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए है. लेकिन उसकी मुश्किल स्थिति रांची विधानसभा सीट से समझी जा सकती है. इस सीट पर उसे आखिरी दिनों तक कोई उम्मीदवार नहीं मिला. यहां से उसने हिंदी की मशहूर लेखिका और राज्य में महिला आयोग के अध्यक्ष पद पर आसीन महुआ मांझी को उम्मीदवार बनाने का एलान किया है. मजेदार बात यह है कि महुआ मांझी की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं रही और उनके चुनाव लड़ने की चर्चा भी दूर-दूर तक नहीं थी. सत्ताधारी झामुमो की तैयारी देखकर ऐसा लगता है जैसे वह भी नवंबर-दिसंबर में चुनाव की उम्मीद नहीं कर रही थी. न तो गंठबंधन की बात पहले से पार्टी तय कर सकी और न ही उम्मीदवारों का चयन. सबसे गौर करनेवाली बात यह रही कि चुनाव की घोषणा होते और कांग्रेस से गंठबंधन टूटते ही हेमंत सोरेन ने सार्वजनिक तौर पर यह बयान दे दिया कि कांग्रेस ने भाजपा को वॉकओवर दे दिया. ऐसा कहकर हेमंत ने एक तरीके से हथियार ही डाल दिए और भाजपा को एक आधार भी दे दिया. झामुमो मूल रूप से आदिवासी वोट बैंक के जरिए चुनाव जीतने की रणनीति में है. साथ ही उसने कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर एक जिताऊ मेल बनाने की कोशिश की है. आदिवासी मतदाताओं के लिए झामुमो सबसे बड़ी और विश्वसनीय पार्टी मानी जाती रही है. हेमंत सोरेन कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ने तय किया है कि जीत के बाद आदिवासी ही मुख्यमंत्री होगा और हम भाजपा की तरह नेता को लेकर दुविधा में नहीं रहते.’ हेमंत ने यह बयान तो दे दिया कि उनकी पार्टी अगर जीत जाती है तो आदिवासी ही राज्य का मुख्यमंत्री बनेगा लेकिन उनके पिता व राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन यह जान गए कि उनके बेटे ने नामसमझी में एक ऐसा बयान दे दिया है. ऐसा बयान जिसका नफा कम, नुकसान ज्यादा होनेवाला है. इसलिए उन्होंने अगले ही दिन से लगातार बयान देना शुरू किया, ‘गैर आदिवासी भी मुख्यमंत्री बन सकता है.’ शिबू सोरेन अपने बेटे के बयान के बाद उपजनेवाली स्थिति से निपटने के लिए डैमेज कंट्रोल करने में लगे हुए हैं लेकिन जाननेवाले जानते हैं कि शिबू की पूरी राजनीतिक आकांक्षा अपने बेटे हेमंत को राज्य का मुखिया बनाए जाने तक सिमट कर रह गई है. हेमंत बताते हैं कि वे भी अपने तरीके से हाईटेक प्रचार कर रहे हैं और इस चुनाव को बुद्धि से जीतकर दिखाएंगे. हालांकि यह इतना आसान नहीं दिख रहा. जिस आदिवासी और मुस्लिम मतदाताओं का मेल बनाकर वे जीत का समीकरण बनाना चाहते हैं, उसमें एक बड़े दावेदार की तरह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा भी है. हालांकि बाबूलाल मरांडी अभी सबसे मुश्किल दौर में चल रहे नेता हैं. पार्टी के कई प्रमुख नेता छह माह पहले ही उनका साथ छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं. बाबूलाल मरांडी की ताकत यह है कि वे आदिवासी नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने में तो ऊर्जा लगाए ही रहते हैं, साथ ही वे गैर आदिवासियों के बीच भी अपनी पैठ बनाए हुए हैं. इस बार वे तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. इसका फायदा उन्हें बंगाल से सटे झारखंड के हिस्से में मिल सकता है. झारखंड में भी बंगालियों की संख्या अच्छी-खासी होने की वजह से वे राज्य की राजनीति में खुद का बहुत भला कर पाएं या नहीं, दूसरों का खेल बिगाड़ने की स्थिति में जरूर आ सकते हैं.
इन चार प्रमुख दलों भाजपा, आजसू, झामुमो और झाविमो के बाद एक बड़ा दूसरा ध्रुव कांग्रेस के नेतृत्व में है, जो इस बार बिहार की दो प्रमुख पार्टियों राजद और जदयू के साथ चुनावी मैदान में है, लेकिन मजेदार यह है कि गंठबंधन में गांठ ही गांठ दिख रही हैं. भले ही बिहार में राजद और जदयू ने एक साथ मिलकर उपचुनाव लड़ा और जीत लिया लेकिन झारखंड में वे एक साथ आने में हिचकिचाते हुए दिखते रहे. नतीजा यह हुआ कि एक-दो सीट ऐसी भी रहीं जहां राजद और जदयू दोनों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी. इस गठबंधन में कांग्रेस ने अपने पास 66 सीटें रखी हैं जबकि राजद-जदयू गठबंधन को 15 सीटें दी हंै. राजद-जदयू विरोधियों से भिड़ने से पहले आपस में भिड़ रहे हैं. पलामू की दो सीटों पर राजद और जदयू के बीच घमासान मचा हुआ है और जदयू नेता कांग्रेस से आग्रह कर रहे हैं कि वह उनके बीच सुलह करवा दे. पलामू इलाके में हुसैनाबाद सीट राजद के कब्जे में रही है, अब यहां जदयू ने अपना उम्मीदवार उतार दिया है. दूसरी ओर पलामू की ही छतरपुर सीट पर जदयू की उम्मीदवार राज्य की पूर्व मंत्री सुधा चौधरी हैं और वह सीट राजद को मिल चुकी है. इस तरह बिहार में दो प्रमुख साथी दलों के बीच झारखंड में हल्की झड़पें हो रही हैं जिससे यूपीए गंठबंधन की किरकिरी हो रही है.
दूसरी ओर कांग्रेस 66 सीटों पर अपने लिए उम्मीदवार नहीं जुटा पा रही है, वह कछुआ चाल से अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रही है. कांग्रेस सभी दलों में चक्कर मारकर थक जाने के बाद आनेवाले उम्मीदवारों पर भी नजर टिकाए हुए है. इन सबके बीच वाम दलों का अपना मोर्चा है. वाम दलों में यहां भाकपा माले एक प्रमुख पार्टी है, जिसके विनोद कुमार सिंह, बगोदर के विधायक हैं. उनके पिता कॉमरेड महेंद्र सिंह भी उस सीट से जीत हासिल करते रहे हैं. वाम दलों के बाद राज्य के चर्चित पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा, अपने कारनामों की वजह से चर्चित रहे पूर्व मंत्री एनोस एक्का आदि के साथ मिलकर भारत समानता पार्टी बनाकर कोल्हान इलाके में चुनाव लड़ रहे हैं और उस इलाके में पूरे जोश के साथ प्रचार कर रहे हैं. इन सबके अलावा कई और दल भी चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं.
झारखंड में अलग-अलग वोट बैंक के सहारे किसी तरह सत्ता के नजदीक पहुंचने की जुगत में दिखे दलों में एक बात समान है कि अभी तक किसी ने अपना कोई ठोस चुनावी एजेंडा आगे नहीं बढ़ाया है. जितने दल चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं, कमोबेश किसी न किसी रूप में सत्ता का स्वाद चख चुके हैं. इतने सालों में राज्य की जो दुर्गति हुई है, उसमें सभी किसी न किसी तरह साझेदार भी रहे हैं, इसलिए एक-दूसरे पर प्रहार तो कर रहे हैं लेकिन कोई खुलकर भ्रष्टाचार या राज्य की दुर्गति के बारे में बोलने की स्थिति में नहीं है. बहरहाल, अब सबके घोषणा पत्र का इंतजार है, जिसके बारे में अभी से ही अनुमान लगाया जा रहा है कि उसमें शायद ही ऐसा कुछ हो जो लोगों को चौंका पाए.