कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसे लम्हे आते हैं जो आपको याद दिलाते हैं कि इंसानियत के आगे नियम-कायदे छोटे पड़ जाते हैं. बात 1985 की है. तब मैं हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड में काम करता था. एक दिन कार्मिक विभाग में काम करने वाले एक कर्मचारी ने मुझसे भीतर आने की इजाजत मांगी. पूरा नाम तो मुझे ध्यान नहीं है पर लोग उन्हें उपाध्याय जी बुलाते थे. खैर मैंने उन्हें भीतर बुलाया और उनके आने का कारण जानना चाहा. उन्होंने कहा, ‘सर मुझे एडवांस सेलरी चाहिए.’ मैं सोच में पड़ गया. दरअसल मेरे सामने एक दुविधा खड़ी हो गई थी. उपाध्याय चौथी बार सेलरी एडवांस देने की मांग कर रहे थे. उधर विभाग का नियम कहता था कि एक साल में इस सुविधा का फायदा तीन से ज्यादा बार नहीं उठाया जा सकता.
इसलिए स्वाभाविक ही था कि मैंने इसके लिए असमर्थता जता दी. यह सुनकर उपाध्याय का मुंह उतर गया. उनका कहना था, ‘साहब मैं आपके पास बहुत उम्मीद ले कर आया था. पर उदास हो कर जा रहा हूं.’ वे बड़बड़ा रहे थे कि सारे नियम-कायदे तो गरीब लोगों के लिए ही बनते हैं. और इसमें उनके जैसे गरीब लोग ही पिसते हैं. तब मैंने उस चेहरे की तरफ देखा. उस पर चिंता और उदासी छाई हुई थी. वास्तव में ऐसा लग रहा था कि उपाध्याय मुझसे काफी उम्मीदें लगाकर आए थे जिन पर मैंने तुषारापात कर दिया था. उनके चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी नजर आ रही थी.
मुझे लगा कि मुझे मसले को यूं ही खारिज नहीं करना चाहिए. क्या पता इस व्यक्ति के साथ क्या दिक्कत हो. मैंने उन्हें कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और पूछा कि आखिर क्या वजह है कि उन्हें निर्धारित सीमा से ज्यादा एडवांस लेना पड़ रहा है. ऐसा क्या हो गया है? जो वजह निकलकर आई उससे मैं धर्मसंकट में पड़ गया. उपाध्याय ने बताया कि उनका सात साल का बेटा गहरी मुसीबत में है. उसके एक दोस्त ने तीर-कमान का खेल खेलते-खेलते तीर उसकी आंख में मार दिया है. उनका कहना था, ‘बहुत परेशानी है सर. समझ में नहीं आ रहा क्या करूं. बच्चे का इलाज लखनऊ और सीतापुर से कराने के बाद भी कोई लाभ नहीं हुआ है. उसकी आंख की रोशनी करीब-करीब जा चुकी है. उसी के लिए अब दिल्ली जाने के लिए एडवांस की अर्जी आपको दी है.’ मैं सोच में पड़ गया. मुझे लगा कि संकट के इस समय में इस शख्स को सिर्फ पैसों की ही नहीं सहानुभूति की भी जरूरत है. नियम-कायदे अपनी जगह हैं मगर इस तरह की मुसीबत है तो कैसे भी करके मुझे कुछ करना चाहिए.
इसके लिए बस थोड़ी सी कोशिश की जरूरत थी. मैंने विभागीय नियमों में ढील देकर उपाध्याय के लिए तीन हजार रु की राशि मंजूर करवाई. मैंने उन्हें यह सलाह भी दी कि वे दिल्ली न जाकर अपने बच्चे को अलीगढ़ के एक मशहूर नेत्र सर्जन को दिखाएं. उपाध्याय ने मेरा सुझाव माना भी. अलीगढ़ में ठहरने, खाने-पीने के प्रबंध और डॉक्टर से अप्वाइंटमंेट के सिलसिले में भी मैंने जहां तक हो सका सहायता करने की कोशिश की.
फिर एक दिन ऐसी खुशखबरी मिली जिसका मुझे समेत कई लोग महीनों से इंतजार कर रहे थे. ईश्वर की ऐसी कृपा हुई कि उपाध्याय के बेटे की आंखों की रोशनी वापस आ गई. बच्चे को आंख की रोशनी दोबारा मिलने से जो खुशी उपाध्याय परिवार को मिली, उस खुशी में मेरा भी हिस्सा था. आज 27 साल बाद भी इस वाकये के बारे में सोचकर दिल में खुशी महसूस होती है.
(इस आपबीती के लेखक प्रभु वार्ष्णेय सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी हैं और लखनऊ में रहते हैं)