भारत में 01 जुलाई 2017 को जैसे ही एक देश एक कर के नाम पर गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी लागू हुआ, देश के अनेक उद्योग-धन्धों पर इसका बुरा असर पड़ा। इससे पहले ही नोटबन्दी से विकट मार पड़ चुकी थी। आज साढ़े तीन साल बीत जाने के बावजूद भी अनेक उद्योग-धन्धे इन दो बड़ी चोटों से उबर नहीं पाये हैं। आज सरकार भले ही दावे करे कि सब कुछ ठीक हो गया है, लेकिन यह सच्चाई नहीं है। ठप या ठण्डे पड़ चुके व्यवसायों और उद्योगों में गुजरात का कपड़ा उद्योग भी है। यहाँ कई कम्पनियाँ, खाते और छोटे कारखाने बन्द होने की कगार पर हैं। कामगार मज़दूर रोज़गार के लिए परेशान हैं। कम्पनी और फैक्टरी मालिकों, व्यापारियों, ठेकेदारों और कामगारों में एक निराशा पनपने लगी है। गुजरात के अहमदाबाद में चिरीपाल टैक्सटाइल्स प्रा. लि., अनुनय, सागर, आदि कम्पनियों से लेकर अनेक कम्पनियों का उत्पादन आज आधे के आसपास ही रह गया है। अनुनय के प्रोडक्शन मैनेजर जगदीश भाई ने बताया कि काम की कमी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता कि एक समय में अनुनय के पास हर माह एक से दो करोड़ का भारत से और पाँच से सात करोड़ का विदेशों से ऑर्डर कम्पनी को मिलता था; लेकिन आज कुल मिलाकर भी एक से तीन करोड़ का ऑर्डर नहीं मिलता। कम्पनी से तकरीबन 40 फीसदी कामगार, जो बाहरी थे; अपने गाँव-शहर चले गये। बहुत मुश्किल समय है। अगर ऐसा ही रहा तो गुजरात में कपड़ा उद्योग बीते समय की बात होने लगेगी। सागर के जनरल मैनेजर राम सिंह ने बताया कि सागर में अब आधा भी काम नहीं बचा है। एक समय था, जब रात-दिन काम करके भी माल की आपूर्ति नहीं हो पाती थी। आज महीने में 15-15 दिन तो काम ही बन्द रहता है। सागर के ही एक ठेकेदार मुकेश भरवाड़ ने बताया कि हमारे पास 30 से 35 लोग काम करते थे। मैं हर महीने लाखों रुपये तनख्वाह में बाँटता था, आज काम इतना कम है कि दो-तीन कारीगर और पाँच-छ: हेल्पर ही रखना मुश्किल हो गया है। एक दूसरी कम्पनी के कारीगर राकेश कुमार मिश्रा ने बताया कि उन्हें कभी इतना काम मिलता था कि वे महीने में कम से कम 16 से 20 रातें भी काम में गुज़ार देते थे; मगर आज 16 से 20 दिन काम भी नहीं मिलता। यहाँ की हालत बहुत खऱाब हो चुकी है। अभी भी हम इसी आस में हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी गुजरात के हैं और इस राज्य की डूबती रोज़ी-रोटी को फिर से अच्छे मुकाम पर ले जाएँगे। कपड़ा उद्योग की हालत आज इस कदर खराब हो गयी है कि बहुत लोग परेशानी में आ गये हैं। मैं हमारे प्रधानमंत्री जी से अनुरोध करूँगा कि वे इस इंडस्ट्री को डूबने से बचा लें। एक कारीगर कुमा ने बताया कि पहले वे ठेकेदारी करते हैं, अब नौकरी करने को मजबूर हैं। नौकरी भी परमानेंट नहीं है उनके पास, जब काम आ जाता है, तब दिहाड़ी के तौर पर करते हैं। एक कामगार राकेश ने बताया कि पहले उन्हें 550 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कपड़ा कटिंग का काम मिलता था; अब कोई 350 रुपये भी देने को तैयार नहीं होता। इतने पर भी कभी काम मिलता है, तो कभी कई-कई दिन घर में बैठे रहने को हम मजबूर हैं।
बता दें कि कपास के उत्पादन में गुजरात देश भर में पहले स्थान पर आता है। इस राज्य की 16 फीसदी उपजाऊ भूमि पर कपास की ही खेती होती है। इतना ही नहीं, भारत की अर्थ-व्यवस्था में कृषि के बाद कपड़ा उद्योग का सबसे बड़ा योगदान रहा है। गुजरात कपड़ा उद्योग में सबसे अग्रणी भी रहा है और पूरे देश के कपड़ा निर्यात में 12 फीसदी हिस्सेदारी अकेले गुजरात की है। लेकिन जीएसटी लगने के बाद पिछले साढ़े तीन साल से इस क्षेत्र में आयी मंदी से न केवल उद्योगपतियों की, बल्कि कामगारों की भी परेशानी बढ़ी है। इतना ही नहीं गुजरात का आर्थिक विकास भी कपड़ा उद्योग पर बहुत हद तक निर्भर करता है। क्योंकि कपड़ा उद्योग के ठीक-ठाक चलने के दौरान राज्य की 23 फीसदी जीडीपी इसी उद्योग से ही आती रही है। लेकिन अब इसमें गिरावट आयी है; जो अभी थमी नहीं है।
एक समय था, जब भारत के 7वें सबसे बड़े मेट्रोपोलिटन शहर अहमदाबाद को ‘मैनचेस्टर ऑफ इंडिया’ की ख़्याति मिली थी, जो अब तक तो बनी हुई है; लेकिन अगर यही हाल रहा तो अहमदाबाद की यह छवि धूमिल हो सकती है। अब से साढ़े तीन साल पहले इस शहर में तकरीबन 250 यूनिट स्थापित थीं, लेकिन अब इनमें से कई बन्द होने की कगार पर पहुँच चुकी हैं। इतिहास की बात करें, तो 1950 और 60 के दशक में कपड़ा उद्योग के क्षेत्र में अकेले अहमदाबाद ने एक लाख से भी •यादा लोगों को रोज़गार दिया था। इसके बाद से इस उद्योग में बड़ी तेज़ी आयी और 2017 तक अनुमानित आधार पर इस क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या तीन लाख से ज़्यादा हो चुकी थी। मगर अब इसमें गिरावट आने लगी है। 1950-60 के दशक में अहमदाबाद में औद्योगिक उत्पादन का दो-तिहाई उत्पादन कपड़ा और उससे जुड़े उद्योगों से होता था। वहीं कपड़ा उद्योग का सबसे बड़ा हब बन चुका ‘सिल्क सिटी’ यानी सूरत भी आज मंदी के दौर से गुज़र रहा है। 2017 तक इस शहर में सूत काटने की तकरीबन साड़े छ: लाख मशीनें यानी पॉवरलूम थीं। वहीं सूरत और उसके आसपास में करीब 450 कपड़ा उत्पादन (डाइंग और प्रिंटिंग) की इकाइयाँ थीं। इन पॉवरलूम के ज़रिये तकरीबन चार लाख मीट्रिक टन सूत का उत्पादन होता था। आज की तारीख में यहाँ के व्यवसायी और कामगार भी रो ही रहे हैं। पहले इस उद्योग से लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपये का सालाना कारोबार होता था। आज अनुमानत: यह 60 से 65 फीसदी ही रह गया है। ये सभी इकाइयाँ कच्चे कपड़ों को अंतिम रूप देती (तैयार करती) हैं। शहर में रोजाना लगभग दो करोड़ मीटर कच्चे कपड़ों (ग्रे टेक्सटाइल) का उत्पादन होता है। सूरत शहर में करीब 150 होलसेल मार्केट हैं और तकरीबन राज्य से कपड़ा निर्यात का 40 फीसदी हिस्सेदारी अकेले सूरत रखता था, जो अब घट रही है। देखने में आया है कि जीएसटी लागू होने के बाद से कपड़ा व्यापारी अब दूसरे कामों तक में हाथ आजमाने को मजबूर हो रहे हैं। रूई और कपड़ों में जीएसटी की दरों को लेकर हज़ारों छोटे और बड़े व्यापारियों ने कई दिनों तक हड़ताल भी की थी। इस उद्योग से बड़े पैमाने पर जुड़े सूरत के पाटीदार समुदाय ने भी केंद्र और राज्य सरकार के िखलाफ हड़ताल आदि की थी; लेकिन सरकार पर कोई भी असर नहीं हुआ और इन व्यापारियों को कोई राहत नहीं मिली। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली से जब इस मामले को लेकर व्यापारी और उद्योपति वर्ग मिला था, तब उन्होंने संसद में इस मामले को उठाने का वादा किया था; लेकिन उठाया नहीं था। इसे लेकर गुजरात के उद्योगपति प्रधानमंत्री कार्यालय को भी पत्र लिख चुके हैं, पर कोई फायदा नहीं हुआ है। समस्या जस की तस है। उद्योग और उत्पादन सब कुछ घट रहा है और बेरोज़गारी बढ़ रही है।
विचारणीय पहलू यह है कि इससे न केवल कपड़ा उद्योग ठप हुआ है, बल्कि सरकार को मिलने वाले कर में भी कमी आयी है। ऐसे में सरकार को समझना चाहिए कि भले ही कर अधिक कर दिया जाये, परन्तु अगर उत्पादन ही घट जाएगा और निर्यात कम हो जाएगा, तो फिर अधिक कर वसूलने से भी उतनी वसूली नहीं हो सकती, जितनी अधिक उत्पादन और निर्यात से हो सकती है। क्या सरकार ऐसा करके चीन का व्यवसाय नहीं बढ़ा रही है? क्या देश में इससे आर्थिक समस्या, बेरोज़गारी और बेकारी नहीं बढ़ रही है? क्या कम रोज़गार अपराध को बढ़ावा नहीं देता? क्या सरकार यह इंतज़ार कर रही है कि यह उद्योग ठप हो जाए? या फिर यह सोच रही है कि यह उद्योग धीरे-धीरे पनप जाएगा? व्यापारी रो-पीटकर बढ़ा हुआ कर देने लगेंगे? या फिर यह इंतज़ार कर रही है कि जब गुजरात के व्यापारी इस उद्योग से काफी दूरी बनाने लगेंगे, तो विदेशी हाथों में इस इंडस्ट्री को सौंपने का सुनहरा अवसर हाथ लग जाएगा? अगर सरकार की इनमें से एक भी सोच है, तो यह बहुत ही ग़लत और घातक है। इससे आिखर देश और देश के लोगों का ही बड़ा नुकसान होगा।
किस शहर में कौन-सा कपड़ा अधिक?
अहमदाबाद : अहमदाबाद सूती वस्त्र उत्पादन का मुख्य केन्द्र है।
सूरत : इस शहर में पॉलिस्टर के कपड़े का उत्पादन सबसे अधिक होता है।
कच्छ : कच्छ हाथ से प्रिंटेड किये कपड़ों के लिए मशहूर है।
जेतपुर : डाइंग और प्रिंटिंग के लिए जेतपुर का नाम अग्रणी है।