उन्हें हिमाचल निर्माता कहा जाता है। उनकी ईमानदारी की बानगी यह कि जब उनका निधन हुआ तो उनके बैंक खाते में महज 563.30 रूपये थे। अपना कोई मकान मुख्यमंत्री रहते नहीं बनाया और कई बार तो साधारण बस में ही सफर कर लिया करते थे। बात यशवंत सिंह परमार की है जिनका इसी महीने 4 तारीख को जन्मदिन था। जब तक जि़ंदा रहे कांग्रेस में रहे। इंदिरा गाँधी उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानती थीं और उनकी मुरीद थीं। लेकिन यही परमार पिछले कुछ दशक में अप्रासंगिक से हो गए क्योंकि सरकारों ने, यहाँ तक कि कांग्रेस की ही सरकारों ने, उनकी सुध नहीं ली।
हिमाचल परमार के दिल में बसता था। उनकी उपेक्षा का आलम यह कि उनके नाम से दिया जाने वाला भाषा संस्कृति विभाग का राज्य पुरस्कार पिछले 13 साल से नहीं दिया गया है। वैसे विभाग इस तरह के चार पुरस्कार देता है और इनमें से एक भी 13 साल से नहीं दिया गया। इसके अलावा ले-देकर सोलन जिले के नौणी में स्थित बागबानी विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर है।
कांग्रेस ने उनकी उपेक्षा की। इसकी पुष्टि उनके पोते के कुछ माह पहले भाजपा में शामिल हो जाने से हो जाती है। परमार के पोते और पूर्व कांग्रेस विधायक कुश परमार के बेटे चेतन परमार जब भाजपा में शामिल हुए तो उनका आरोप था कि आज कांग्रेस हिमाचल निर्माता वाईएस परमार के योगदान को भूल गई है। इस पार्टी को मेरे दादाजी और पिता ने अपने खून-पसीने से सींचा था लेकिन वीरभद्र सिंह के नेतृत्व ने यशवंत सिंह परमार के नाम को एक सोचे समझे षड्यंत्र के तहत खत्म करना शुरू कर दिया था।
दरअसल परमार की उपेक्षा कांग्रेस के ही भीतर की राजनीति का हिस्सा है। कांग्रेस परमार के प्रति कितनी सम्मान की भावना रखती रही यह इस बात से साबित हो जाता है कि जिसे वे हिमाचल निर्माता कहते रहे हैं उसकी जयंती बंद कमरे में मानते रहे। इस पर कोई प्रदेश स्तरीय कार्यक्रम तक कभी आयोजित नहीं किया गया जबकि हर पांच साल बाद कांग्रेस की सरकार प्रदेश में रही है। राजनीति में इसे वीरभद्र सिंह बनाम परमार के रूप में देखा जाता रहा है। वीरभद्र सिंह विरोधी आरोप लगते हैं कि वे परमार के कद को छोटा करके रखना चाहते थे ताकि खुद उनका अपना कद उनसे छोटा न रह जाये। हालांकि वीरभद्र सिंह समर्थक और विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री इसे गलत बताते हैं। अग्निहोत्री कहते है – ‘वीरभद्र सिंह के मन में परमार के प्रति बहुत सम्मान रहा है। 1985 में नौणी में परमार साहब के नाम से बागवानी एवं वानिकी विश्वविदयालय वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्री रहते ही बना और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अप्रैल, 1988 में इसका उदघाटन किया।’
इसके बावजूद यह माना जाता है की परमार को कांग्रेस वो स्थान नहीं दे पाई जिसके वे वास्तव में अधिकारी थे। बहुत दिलचस्प है कि परमार तो जीवन भर कांग्रेस में रहे, अब भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री ने परमार को सही सम्मान देने के लिए उनकी जयंती हर साल बड़े पैमाने पर मनाने का ऐलान किया है। सीएम जय राम ने कहा – ‘एक बंद कमरे में अब तक हिमाचल निर्माता परमार का जन्मदिन मनाया जाता रहा यह बड़े अफ़सोस की बात है। अगले साल से उनका जन्मदिन बड़े स्तर पर सरकार मनाएगी।’
परमार का जीवन
4 अगस्त, 1906 में परमार ने सिरमौर के एक छोटे गांव चनालग में जन्म लिया। लखनऊ से एलएलबी और समाजशास्त्र में पीएचडी की। सिरमौर में जन्मे परमार सिरमौर की रियासत में 11 साल तक सब जज और मजिस्ट्रेट रहे और बाद में न्यायाधीश के रुप में 1937 से 1941 तक सेवाएं दीं।
नौकरी की परवाह न करते हुए परमार सुकेत सत्याग्रह प्रजामंडल से जुड़े। उनके ही प्रयासों से यह सत्याग्रह सफल हुआ। परमार के प्रयासों से ही 15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों का विलय हो सका जिसके बाद कहीं जाकर हिमाचल प्रदेश अस्तित्व में आया। उसके बाद 25 जनवरी,1971 को इस प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। साल 1963 से 24 जनवरी, 1977 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे और प्रदेश के विकास को नई दिशा दी। उन्हें 1957 में सांसद बनने का भी मौका मिला। परमार ने हिमाचल को केंद्र में रख कई पुस्तकें लिखी जिनमें ‘पालियेन्डरी इन द हिमालयाज’, ‘हिमाचल पालियेन्डरी। इट्स शेप एण्ड स्टेटस’, ‘हिमाचल प्रदेश केस फॉर स्टेटहुड’ और ‘हिमाचल प्रदेश एरिया एण्ड लेंगुएजिज’ काफी प्रसिद्ध हैं।
पर्यावरण के प्रति परमार के मन में विशेष चिंतन था। उन्होने एक बार कहा था – ‘वन हमारे बड़ा सरमाया है। इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल मे करनी है। नंगे पहाड़ों को हमें हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा।’
‘पंचायत टाइम्स’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक परमार को राजनैतिक सूझबूझ, वाकपटुता, कर्मठता और दूरदृष्टि के कारण मार्च 1947 में ‘हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउन्सिल’ का प्रधान चुना गया। परमार जब हिमाचल के राजनैतिक क्षितिज पर उभरे, तब यहाँ के लोग 31 छोटी-छोटी रियासतों में बँटे हुए थे। तब इन सभी रियासतों का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और भौतिक विकास अत्यंत दयनीय दशा में था।
पत्रिका के मुताबिक 15 अगस्त, 1947 को देश तो आजाद हुआ परन्तु पंजाब हिल स्टेट के तहत पडऩे वाली पाँच बड़ी रियासतों-चंम्बा, मंडी, बिलासपुर, सिरमौर और सुकेत के अलावा शिमला हिल स्टेट के नाम से जानी जाने वाली 27 छोटी रियासतों में गुलामी का अंधकार छाया रहा। परमार और इनके सहयोगियों के लगातार अथक प्रयास से 15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों को मिलाकर हिमाचल राज्य का गठन हुआ। तब इसे मंडी, महासू, चंबा और सिरमौर चार जिलों में बांट कर प्रशासनिक कार्यभार एक मुख्य आयुक्त को सौंपा गया। बाद में इसे ‘ग’ वर्ग का राज्य बनाया गया। वर्ष 1952 के आम चुनाव में 36 सदस्यीय विधानसभा में 28 कांग्रेस के और 8 निर्दलीय विधायकों के निर्वाचित होने के बाद 24 मार्च को मुख्यमंत्री परमार को बनाया गया। राजा आनन्द चंद के अधीन बिलासपुर अभी भी एक स्वतंत्र रियासत थी। जबकि प्रजा इसे हिमाचल में शामिल करने को आंदोलित थी। अंतत: पहली जुलाई, 1954 को इसका विलय हिमाचल में कर दिया गया। 1956 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा हिमाचल को पंजाब राज्य में मिलाने की सिफारिश करने के उपरांत इसका दर्जा ‘ग’ से घटाकर इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया और यहाँ 1 नवंबर, 1956 को उप-राज्यपाल की नियुक्ति के साथ ही ‘हिमाचल टैरिटोरियल काउन्सिल’ गठित कर दी गई। इसके विरोध में प्रदेश के मंत्रिमंडल सहित मुख्यमंत्री डॉ. परमार ने त्यागपत्र दे दिया और यहाँ लोकतंत्र की बहाली का अभियान जनसभाओं, प्रदर्शनों, ज्ञापनों आदि के माध्यम से जारी रखा। लंबे संघर्ष के बाद 1963 में तत्कालीन गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने लोकसभा में एक वक्तव्य में कहा-”निरुत्साहित मन से कोई कार्यवाही करने से बेहतर है कि जनप्रतिनिधियों को अपनी सरकार चलाने के लिए जो भी शक्तियां हम प्रदान करना चाहते हैं, वे दे दें।’’ फलस्वरूप हिमाचल टैरिटोरियल काउन्सिल को विधानसभा में परिवर्तित कर दिया गया और पहली जुलाई, 1963 को परमार के मुख्यमंत्रित्व में हिमाचल सरकार का गठन हुआ। मुख्यमंत्री बनने के बाद परमार ने हिमाचल के चहुँमुखी विकास के लिए रात-दिन एक कर दिया। उठते-बैठते, सोते-जागते उन्हें इस पर्वतीय क्षेत्र को आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित करने के साथ ही इसे एक सुदृढ़ रूप-आकार देने की धुन सवार रहती थी। हिमाचल के लिये अथक काम के बाद 2 मई, 1981 को परमार दिवंगत हो गए।
परमार के नाम पर विश्वविद्यालय
यशवन्त सिंह परमार के नाम पर जिस बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी (सोलन) का नाम रखा गया वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआइआरएफ) 2018 में देश के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में शामिल है। नौणी विवि देशभर के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में 71वें स्थान पर है। विश्वविद्यालयों की शीर्ष 100 की श्रेणी में हिमाचल प्रदेश का एकमात्र विश्वविद्यालय है। एशिया में यह अपने तरह का पहला विश्वविद्यालय है जिसमें बागवानी और वानिकी की शिक्षा, अनुसंधान और विस्तार (एक्सटेंशन) होता है। दरअसल बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय की शुरुआत एक कृषि कालेज के रूप में 1962 में हुई थी। तब यह पंजाब विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। 1970 में जब हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय (एचपीयू) की स्थापना हुई तो इस कालेज में एचपीयू का परिसर खोल दिया गया। इसके बाद 1978 में पालमपुर कृषि विश्विद्यालय, पालमपुर (कांगड़ा) की स्थापना हुई तो उसका हार्टिकल्चर काम्प्लेक्स यहाँ खोला गया। इस तरह लम्बे सफर के बाद पहली दिसंबर, 1985 को यहाँ उस समय के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की कोशिशों से सम्पूर्ण यशवन्त सिंह परमार बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय शुरू हो गया। 30 अप्रैल, 1988 को तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने इसका उदघाटन किया। परमार के नाम पर स्थापित इस विश्वविद्यालय में करीब 54 पाठ्यक्रम हैं जिनमें से 17 पीएचडी से जुड़े हैं। विश्वविद्यालय परिसर करीब पौने छह किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और आधुनिक सुविधाओं वाले भवन वहां हैं।
‘अब करेंगे कार्यक्रम’
परमार की जयंती अब महज रस्म अदायगी नहीं रहेगी। करीब साढ़े तीन दशक से चली आ रही परिपाटी को बदलते हुए जय राम सरकार ने निर्णय किया है कि हिमाचल निर्माता डा. यशवंत सिंह परमार की जयंती पर बड़ा समारोह आयोजित किया जाये। खुद मुख्यमंत्री जय राम ने परमार की जयंती के अवसर पर इसका ऐलान किया। मुख्यमंत्री ने कहा कि परमार की जयंती पर अब तक विधानसभा के एक छोटे से हॉल में कार्यक्रम होते आए हैं, परंतु रस्म अदायगी के रूप में एक छोटा सा कार्यक्रम कर देना नाकाफी है। इस पुरानी
व्यवस्था को बदला जाएगा और भविष्य में पीटरहॉफ में एक बड़ा समारोह सरकार द्वारा आयोजित किया जाएगा। जय राम ने कहा कि वर्तमान पीढ़ी को परमार के योगदान के बारे में जानकारी होनी चाहिए। इसलिए जरूरी है कि बड़े समारोह में उनकी जीवनी दिखाई जाए और युवाओं को बताया जाए कि परमार हिमाचल के लिए क्या सोच रखते थे और उन्होंने प्रदेश के लिए क्या किया है। विधानसभा में कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश संसदीय समूह ने आयोजित किया था जहाँ सीएम ने यह घोषणा की। जय राम ने कहा कि परमार का प्रदेश के किसानों के कल्याण और समाज के कमजोर वर्गों के प्रति हमेशा संवेदनशील दृष्टिकोण रहा। उन्होंने हमेशा ही इनके समग्र विकास को प्राथमिकता दी। उन्हीं के नेतृत्व में प्रदेश को अलग पहचान बनाने में सफलता मिली और हिमाचल प्रदेश भारतीय गणराज्य के 18वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। जय राम ने कहा कि परमार ने प्रदेश में सड़कों के निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी, क्योंकि वे मानते थे कि सड़कें ही पहाड़ी राज्य के विकास की भाग्य रेखाएं हैं। हमें परमार के जीवन और कार्य से प्रेरणा लेनी चाहिए। वैसे इस कार्यक्रम में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, परमार के पुत्र पूर्व विधायक कुश परमार और उनके परिवार के सदस्य भी अन्य के साथ उपस्थित थे।