चार साल पहले 28 वर्षीय रोहित शेखर ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ देश का पहला पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर किया था. इस मुकदमे ने कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए-मसलन क्या कोई ताकतवर राजनेता किसी संबंध के चलते हुई संतान को अपना मानने से इनकार कर सकता है और इस मामले में साफ-साफ बच निकल सकता है? यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि क्या किसी व्यक्ति को अपना डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या तिवारी का यह दावा सही है कि उन्हें एक ऐसे आदमी द्वारा ब्लैकमेल किया जा रहा है जो उनकी संतान नहीं है? और इस मुकदमे का उन बच्चों के लिए क्या निहितार्थ होगा, जो इसी तरह के संबंधों के चलते जन्म लेते हैं और ताजिंदगी सामाजिक तिरस्कार झेलते हैं?
शेखर का दावा है कि वे तिवारी के जैविक पुत्र हैं. उनकी मांग है कि तिवारी को यह बात स्वीकार करनी चाहिए. दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने 84 वर्षीय तिवारी को उनकी उम्र के मद्देनजर अपना डीएनए का नमूना देने का आदेश दिया था मगर तिवारी इससे बार-बार इनकार करते रहे हैं. पिछले पखवाड़े उनके फिर से इनकार के बाद अदालत ने कहा कि मामले के साक्ष्यों का आकलन करते हुए इस तथ्य को पूरक साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. यहां पेश है शेखर का पक्ष-
अक्सर पूछा जाता है कि मुझे नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर करने में इतना समय क्यों लगा. 18 साल के लड़के से इतने ताकतवर आदमी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की शुरुआत करने की उम्मीद करना लगभग असंभव है. 2001 में जब हमने दिल्ली के तिलक लेन स्थित उनके घर में उनसे मिलने की कोशिश की थी तो उनके आदमियों ने हमारे साथ मारपीट की थी. 2002 से 2005 के बीच मैं उनसे कभी-कभी मिलता रहा. वे कहते थे, ‘अरे! तुम्हारी नाक तो एकदम मेरी तरह है, तुम मेरी तरह दिखते हो, तुम लगभग मेरी तरह बोलते हो’, लेकिन जब मेरी मां उनसे पूछतीं कि फिर वे मुझे बेटे के रूप में क्यों नहीं स्वीकार करते तो उनके पास हर समय बहाना तैयार रहता था.
मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था
मैं भी उनसे यही सवाल पूछता ताकि अगर कुछ नहीं तो इस मामले को किसी तरह के अंजाम तक पहुंचाया जा सके. वे हमेशा कंधा उचका कर कहते कि वे स्वीकार कर सकते थे, लेकिन कुछ मजबूरियां थीं. मैं पूछता कि कौन सी मजबूरियां? आपने 53 साल की उम्र में 35 साल की मेरी मां के साथ आठ साल तक संबंध रखा. उनके पीछे पड़े रहे कि वे आपसे एक संतान पैदा करें और उसके बाद आप उनसे शादी कर लेंगे. आपने मेरी मां के साथ बहुत अन्याय किया है और मेरी जिंदगी के 23-24 (उस समय) साल बर्बाद कर दिए हैं. वे चुप रहीं क्योंकि वे मेरी पढ़ाई के दिन थे. लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा.’ मैं 24 साल का था और हर समय सोचता रहता था कि इस आदमी ने मेरी क्या गत बना दी है. मैं आईएएस की परीक्षा देना चाहता था, लेकिन अनिद्रा की बीमारी के कारण ऐसा नहीं कर सका.
2005 में बहुत-सी घटनाएं हुईं. हमें जलील करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. उन्होंने साफ कह दिया था कि वे हमें स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने मुझे लटकाए रखा. मैं कभी-कभी उन्हें अपने पिता के रूप में देखता था, जिसके लिए मन में इज्जत उभरती थी. लेकिन बाकी समय वे ऐसे प्रेत की तरह हमारे जीवन पर मंडराते रहे जो मेरी मां की शांति और मेरे पूरे परिवार को खा जाना चाहता हो. अपनी पहचान को लेकर मेरे मन में बहुत उथल-पुथल चल रही थी. यह तब की बात है जब यह व्यक्ति उत्तराखंड का मुख्यमंत्री था और बहुत ताकतवर था. बहुत से लोग उन्हें प्रेरणा के तौर पर देखते थे. वे बहुत ताकतवर थे और इसी ताकतवर व्यक्ति ने मेरे साथ अन्याय किया था जिसकी इबारत मेरे चेहरे पर साफ लिखी नजर आती थी.
मुझे गोद लेने वाले मेरे पिता बीपी शर्मा ने अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाई. मुझे अपने जैविक पिता के बारे में 11 साल की उम्र में बताया गया. मेरे दिमाग में हमेशा उस आदमी की छवि तैरती रहती थी जिसके बारे में मेरा मानना था कि मेरी शक्ल और आवाज उससे मिलती है. लोग कहते हैं कि मैं उनकी तरह ही दिखता हूं. सामान्य बच्चों के लिए यह आम बात होती है, लेकिन मेरे लिए नहीं थी. इसने मुझे चीर कर रख दिया. कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है यह मेरे लिए यह बड़ी विचित्र स्थिति थी.
कुछ घटनाओं के चलते मैं इस व्यक्ति के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा करने को बाध्य हुआ. 2005 में मैंने बहुत भोलेपन से उनसे कहा था, ‘आप अपनी सेहत का ध्यान क्यों नहीं रखते! आपको योग करना चाहिए. मैं 24 साल का हो गया हूं. मैं जल्दी ही परिवार बसाना चाहता हूं. आपके पोते-पोतियां होंगे. हम सब एक परिवार की तरह रहेंगे.’ जब यह बात मैंने अपनी नानी को बताई तो उन्होंने कहा, ‘तुम पागल हो. इस आदमी में भावनाएं हैं ही नहीं.’ ठीक यही हुआ भी. मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था. एक बार मैं उनसे मिलने के बाद उनके कमरे के बाहर इंतजार कर रहा था. वहां पहले से मौजूद विधायकों ने मुझे मुख्यमंत्री के कमरे से बाहर आता देखकर पूछा कि मैं कौन हूं. मैंने बहुत दबी आवाज में कहा कि एक शोध के सिलसिले में दिल्ली से आया हूं. जब तिवारी बाहर आए तो उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे वे मुझे जानते ही नहीं. ऐसा नहीं कि मेरी मां ने इस बारे में मुझे सचेत नहीं किया था, लेकिन सिर्फ मैं ही जानता हूं कि यह कितना तकलीफदेह होता है.
उनके 80 वें जन्मदिन पर तो मैं पूरी तरह टूट गया. मुख्यमंत्री के घर के सामने बधाई देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए थे. मैं भी वहां गया था. उन्होंने बहुत प्यार से मुझसे माला ली और मुझे एक गुलदस्ता भी दिया. मुझे लगा कि शायद अब से वे मुझे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने लगेंगे. मैं केक भी लेकर गया था. तभी कुछ लोग आए और बोले कि मेरा वहां होना तिवारी के लिए ठीक नहीं होगा. सौभाग्य से मेरे पास उस दिन के फोटोग्राफ मौजूद हैं.
अगले दिन जब उनसे मिला तो मैंने विरोध किया, ‘अब यह बात इस कमरे तक ही सीमित नहीं रहेगी. आप मुझे अकेले में गले लगाते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से मुझे जवाब देना पड़ता है कि मैं कौन हूं. मुझे नहीं पता कि मैं क्या करने जा रहा हूं, लेकिन इतना तय है कि यह बुरा होगा.’ उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका चेहरा लाल पड़ गया. शायद तभी मैं उनसे आखिरी बार मिला था.
मैंने उत्तराखंड में तमाम लोगों के पास चिट्ठियां भेजीं. 2006 में पूरे साल मैंने उनके खिलाफ अभियान चलाया और वे लगातार इसके विरोध में कहते रहे कि ‘ये मेरा लड़का नहीं है. सिर्फ मुझे ब्लैकमेल कर रहा है.’ तब मैंने कानूनी विकल्पों पर विचार करना शुरू किया. लोगों ने कहा कि मैं पागल हो गया हूं. मुकदमा बनता ही नहीं है. लेकिन मैं हार मानने को तैयार नहीं था. हम एक साल तक उनके खिलाफ अभियान चलाते रहे. 2007 में वे आंध्र प्रदेश के गवर्नर बनाए गए. मैं उनके खिलाफ कुछ भी करने से डर रहा था क्योंकि मेरे पास कोई सबूत नहीं था. मैं अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित था. फिर भी सितंबर 2007 में मैंने मुकदमा करने का निश्चय किया. लेकिन तब तक मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था. पांच जुलाई, 2007 को मुझे बड़ा हार्ट अटैक हुआ लेकिन इसका पता ही नहीं चल सका. दो महीने बाद सितंबर 2007 में धमनियों में रुकावट के चलते ब्रेन हैमरेज हुआ. डॉक्टरों ने कहा कि यह अटैक लंबे तनाव का नतीजा है.
कानूनी प्रक्रिया लंबी, खर्चीली और पीड़ादायक है. कई बार मैं इस मुकदमेबाजी से थक चुका हूं और फिलहाल बहुत तनावग्रस्त हूं. इस मामले में कई अभूतपूर्व निर्णय भी हुए हैं. मेरी जानकारी के अनुसार इससे पहले किसी अदालत ने पितृत्व और वैधता को अलग-अलग नहीं देखा था. सम्मानित उच्च न्यायालय ने पिछले साल इनके बीच फर्क किया. फिलहाल मैं उस कानून के चलते थोड़ा निराश हूं जिसके चलते मामले के उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन रहते कोई भी पक्ष दूसरे के खिलाफ अभियान नहीं चला सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया कि तत्काल डीएनए टेस्ट कराया जाना चाहिए नहीं तो मेरे न्याय पाने की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी. इसी साल सात फरवरी को अदालत ने कहा कि यदि तत्काल डीएनए टेस्ट नहीं कराया जाता है तो वादी को अपूरणीय क्षति होगी.
मेरी हताशा और निराशा का मूल कारण यह है कि इन आदेशों के बावजूद तिवारी ने डीएनए जांच के लिए अपने खून का नमूना नहीं दिया है. एक जून को उनके खून का नमूना लेने के लिए अदालत ने एक डॉक्टर नियुक्त किया था. लेकिन इसके दो दिन पहले ही तिवारी ने उन्हीं बातों को दोहराते हुए फिर से आवेदन दे दिया कि यह मुकदमा अत्यंत ओछा है और उन्हें डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. तब से नौ या दस सुनवाइयां हो चुकी हैं. मेरे लिए यह सब बहुत महंगा और कष्टकारी है.
वे मामले को अदालत में लंबा खींचने में सफल हो रहे हैं. अदालत द्वारा फरवरी और जुलाई में तत्काल डीएनए टेस्ट कराने पर जितना बल दिया गया था वह तकनीकी चीजों में उलझकर रह गया है. सबसे ज्यादा दुख की बात तो यह है कि मुझे न्याय तो मिल गया है, लेकिन उसे लागू नहीं किया जा रहा है. हर गुजरते दिन के साथ मेरे मामले के सबसे प्रबल सबूत के हमेशा के लिए मिट जाने की संभावना बढ़ती जा रही है. इसका मतलब होगा कि यह मुकदमा मेरे तईं असमाप्त ही रह जायेगा. अब यह सार्वजनिक हो चुका है. लोग मुझसे जीवन भर सवाल कर सकते हैं कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम कौन हो? मेरी मां और मेरे लिए यह बहुत जरूरी है कि यह मामला अपने अंजाम तक पहुंचे.
(रेवती लाल से बातचीत पर आधारित)