यह महज संयोग है कि एक तरफ बच्चों को बंधुआ मजदूरी और शोषण से बचाने के लिए एनजीओ चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलता है, तो वहीं दूसरी तरफ हिंदी में एनजीओ की भीतरी दुनिया के जाल-फरेब, अमानवीयता और संवेदनहीनता को परत दर परत उधेड़ता भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’ का प्रकाशन होता है. उपन्यास जनता की गरीबी, अशिक्षा, जहालत, भूख जैसे नरक से छुटकारा दिलाने के नाम पर अपने लिए स्वर्ग पैदा करने वाले नरक मसीहाओं की दिलचस्प गाथा है.
पिछले दो दशकों में तेजी से पनपी और फली-फूली एनजीओ संस्कृति ने इस देश में जनआंदोलनों को लगभग समाप्त कर दिया है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के गठजोड़ ने एनजीओ का एक ऐसा महासमुद्र बनाया है जिसमें सभी परिवर्तन कामी धाराएं आकर मिलती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं. फिर मार्क्सवादी, गांधीवादी और अंबेडकरवादी सभी का रंग और चरित्र एक-सा हो जाता है. सभी के लिए लोगों के दुख और सपनों को बेचकर आर्थिक लाभ उठाना ही प्रधान उद्देश्य बन जाता है जिसके चलते सामाजिक परिवर्तन का स्वप्न कहीं खो जाता है. तात्पर्य यह कि एनजीओ आर्थिक लाभ और शोहरत का एक ऐसा अचूक साधन बनकर उभरा है जिसने व्यवस्था परिवर्तन या व्यापक बदलाव के लिए हो रहे हर एक प्रयास को खोखला कर दिया है.
प्रतिरोध का एनजीओकरण वर्तमान दौर की सबसे बड़ी समस्या है. एनजीओ संस्कृति में शामिल हो जाने के बाद कोई व्यक्ति न तो मार्क्सवादी रहता है और न ही गांधीवादी, न नारीवादी और न ही दलितवादी; वह सिर्फ और सिर्फ एनजीओवादी होता है. हिंदी में संभवतः यह पहला उपन्यास है जिसमें एनजीओ के पीछे की वैचारिक पृष्ठभूमि, पूंजीवाद से उसके नाभि-नाल संबंध और उसकी कारगुजारियों को एक आख्यान का रूप दिया गया है. एनजीओ युग के इस प्रचंड दौर में यह उपन्यास न सिर्फ एक सार्थक हस्तक्षेप है बल्कि इसे एक हिंदी लेखक के लेखकीय प्रतिरोध के रूप में भी देखा जाना चाहिए.
उपन्यासकार के रूप में मोरवाल की खासियत यह है कि वे नैरेटर के तौर पर अलग से अपनी बात नहीं कहते बल्कि उन्हें जो कुछ कहना होता है, उसे पात्रों के संवादों के माध्यम से अभिव्यक्त कर देते हैं. इसका सफल यह होता है कि कथा-प्रवाह कहीं बाधित नहीं होता और अपने पात्रों के बीच संवाद के माध्यम से आगे बढ़ता उपन्यास बहुत जल्दी ही अपने पाठक से भी संवाद का एक रिश्ता बना लेता है. कॉमरेड सोहनलाल ‘प्रचंड’ का बेटा जब उनके पास एक एनजीओ खोलने का प्रस्ताव लेकर जाता है और अपने तर्क देकर उनसे पूछता है कि आखिर इसमें बुराई क्या है, तब प्रचंड कहते हैं, ‘माना इस आर्थिक विषमता और जातिवादी समाज में ऐसा करना कोई बुराई नहीं है. मगर, संघर्ष और कुर्बानी के जरिए हक दिलाने के लिए लोगों को इकट्ठा करने के बजाय, उनमें मुफ्त में मिली खैरात से जीने की आदत डालना बुराई है. बुराई है इस साम्राज्यवादी शोषण और मुनाफे की दुकानों का सेल्समैन बनने में.’ उपन्यास में ऐसी अनेक वैचारिक बहसें पात्रों के संवादों में सामने आती हैं. संवादधर्मिता इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण विशेषता है.
पात्रों के चयन और कथानक को गढ़ने में लेखक ने काफी सूझ-बूझ का परिचय दिया है. इस उपन्यास में राष्ट्रीय बाल एवं महिला कल्याण परिषद् की अध्यक्ष बहन भाग्यवती, वहां कार्यरत मिसेज मौर्य, ग्रासरूट फाउंडेशन की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सानिया पटेल और सर्वहारा फाउंडेशन चलाने वाला उनका पति कबीर, इंस्टीट्यूट फॉर वीमेंस स्टडीज की डायरेक्टर डॉ. वंदना राव, डॉ. अंबेडकर दलित महिला उद्धार सभा की सुप्रीमो सुमन भारती, अखिल भारतीय अबला मंच की अध्यक्ष सरला बजाज, राहत फाउंडेशन की कर्ता-धर्ता अमीना खान और अपने जमाने की मशहूर अदाकारा एवं हॉरमनी फॉर गोल्डन फाउंडेशन की सीईओ टीना डालमिया के साथ-साथ पुराने गांधीवादी गंगाधर आचार्य तथा पुराने कम्युनिस्ट सोहनलाल ‘प्रचंड’ मुख्य पात्र हैं. उपन्यासकार ने धर्म, जाति, वर्ग, विचारधारा आदि सभी श्रेणियों के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा है. इनमें से लेखक ने गंगाधर आचार्य और सोहनलाल ‘प्रचंड’ को गैरसमझौतावादी तथा अपने मूल्यों और उसूलों पर टिके रहने वाला दिखाया है, जबकि गांधीवादी बहन भाग्यवादी, वामपंथी सानिया पटेल और कबीर, अंबेडकरवादी सुमन भारती, नारीवादी वंदना राव आदि सभी को एक ही जैसे पतनशील कार्यों में लिप्त दिखाया गया है. यानी, उपन्यास में संपूर्ण आस्था नहीं है. उपन्यासकार ने पुरानी पीढ़ी में विश्वास भी व्यक्त किया है. उपन्यास इस बात को अत्यंत सशक्त ढंग से स्थापित करता है कि आचरण के स्तर पर नई पीढ़ी के लिए विचारधारा, मूल्यों और संस्कारों का कोई अर्थ नहीं रह गया है. पूंजी और बाजार ने सबको एक रंग में रंग दिया है. उपन्यास में सरला बजाज के संगठन और सरकारी संस्था राष्ट्रीय बाल एवं महिला कल्याण परिषद् द्वारा आयोजित करवाचौथ उत्सव का दिलचस्प प्रसंग है. वहां गांधीवादी, मार्क्सवादी, नारीवादी, अंबेडकरवादी सभी करवाचौथ के पक्ष में अपने-अपने तर्क दे रही हैं. यह प्रसंग इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि व्यक्तिगत लाभ और लालच ने विचारधारा और मूल्यों को किस तरह देश निकाला दे दिया है.
उपन्यास का एक दलित कोण भी है. इसमें बहन भाग्यवती, उनकी उपसचिव मिसेज मौर्य और सुमन भारती, ये तीनों दलित हैं, और समझौतापरस्त हैं. गांधीवादी गंगाधर आचार्य और कम्युनिस्ट सोहनलाल ‘प्रचंड’ की तरह विचारधारा को मानने वाला कोई अंबेडकरवादी पात्र उपन्यास में नहीं है. इससे भी बड़ी बात यह है कि लेखक ने इन तीनों में आंतरिक एकता दिखलाई है. मुनाफे और लूट की संस्कृति वाले इस दौर में व्यक्तिगत लाभ और हानि से ही संबंध निर्धारित होते हैं, यह एक बड़ा सत्य है पर इस बड़े सत्य के भीतर भी कई छोटे-छोटे सत्यों का अस्तित्व बना रहता है. जातिवाद भी एक ऐसा ही सत्य है. समस्या यह है कि लेखक ने सिर्फ दलितों को ही जातिवादी दिखाया है. यह बहुत संभव है कि इसे लेखक के दलित विरोधी नजरिए के रूप में देखा जाएगा.