पूर्वांचल इलाके की राजनीति कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र हुआ करती थी. पिछले दो दशकों में इसने अपने लिए कुछ नए उपमान गढ़े, कुछ पुरानी पहचानों को त्यागा और अपने सही महत्व को खोया भी. यहां की राजनीति की विशेषताओं और विवशताओं पर निराला की रिपोर्ट
जाति के दो पीछे जाति, जाति के दो आगे जाति
हिंदी के मशहूर कहानीकार काशीनाथ सिंह राजनीति पर ज्यादा बात करने से बचते हैं. जब हम उनके घर से चलने को होते हैं तब वे कहते हैं, ‘अबहीं तो कुछ पता नहीं चल रहा, कुछ दिन बाद चुनावी रंग जमने दो, तबै बात सामने आएगी लेकिन यह तय मानो कि अब उत्तर प्रदेश में भी जाति की राजनीति विदाई की बेला में है. बिहार से ही यहां जाति की राजनीति की लत लगी थी. जब वहां के लोग जाति के खोल से निकलने लगे हैं तो यहां भी उसका असर होगा.’ आखिर में अपने अनुभव और अनुमान का पूरा बल लगाते हुए काशीनाथ सिंह कहते हैं, ‘यह संभव है कि जाति के आधार पर लड़ा जाने वाला उत्तर प्रदेश का आखिरी चुनाव देख रहे हो…!’
काशीनाथ सिंह एक समय में राजनीति से वास्ता रखने वाले नागरिक रहे हैं और उनके रचे साहित्य से यह भी साफ है कि समाज की नब्ज को समझने में भी वे माहिर हैं. लेकिन उनके घर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बनारस कचहरी परिसर में आते-आते उनकी धारणा को जुग्गन मियां जैसे वकील एक सिरे से ध्वस्त करने की कोशिश करते हैं.
अपने चैंबर में तरह-तरह के मुवक्किलों से घिरे मेराज फारूकी जुग्गन सभी मुवक्किलों को थोड़ी देर के लिए बाहर कर फटाफट पांच-दस मिनट में हमें पूर्वांचल की जातिगत राजनीति का ककहरा समझाते हैं. राजनीतिक तौर पर बसपा से जुड़े जुग्गन कहते हैं, ‘आप बनारस में घूमेंगे तो सभी अंसारी आपको अंसारी ही नजर आएंगे. आप उसी के आधार पर अंसारी मतों का गुणा-गणित समझने की कोशिश करेंगे, लेकिन आपका आकलन गलत होगा, आपको यह समझना होगा कि यहां अंसारी एक नहीं दो तरह के हैं. एक मऊ वाले, दूसरे बनारसी. मऊवाले वे जिनके पूर्वज एक जमाने में मऊ से बनारस आकर बसे थे और फिर धीरे-धीरे अपनी धाक जमाकर मूल अंसारियों पर हावी हो गए. बनारसी अंसारी वे जो मूल रूप से बनारस के ही हैं. आप यह समझें कि अंसारी की इन दोनों प्रजातियों में इतना अलगाव है कि बनारसी कभी किसी मऊवाले को प्रतिनिधि नहीं बनने देना चाहता, वह इसके लिए किसी गैर-मुसलिम प्रत्याशी के पक्ष में भी जा सकता है. यही मनोदशा मऊवाले भी बनारसी अंसारी के लिए रखते हैं.’
अंसारियों का गुणा-गणित समझाने के बाद जुग्गन कहते हैं कि यह दलदल अभी और बढ़ाने की कोशिश जारी है. बकौल जुग्गन उत्तर प्रदेश के दलितों में सबसे बड़ी संख्या वाली जाति चमारों के वोट पर मायावती और बसपा का करीब-करीब एकाधिकार समझा जाता है. उस अभेद किले में सेंध लगाने के लिए दूसरे दल चमारों को भी धुसिया, उरील, अहीरवार आदि में बांटने की कोशिश में हैं लेकिन मायावती और बसपा के आगे उनकी यह कोशिश कभी सफल नहीं होगी.
जुग्गन या काशीनाथ सिंह में किसका आकलन ठीक है, किसका नहीं, इसे फिलहाल परे कर दें और समूचे प्रदेश की बजाय पूर्वांचल की ही बात करें तो यहां चुनाव में जातिगत राजनीति के लिए आजादी के पूर्व ही गढ़ा गया एक नारा ‘खून का रंग पानी से ज्यादा गाढ़ा होता है’ उफान मार रहा है. इसी फॉर्मूले को साधने के फेर में कई छोटे-छोटे दल खेल को बहुकोणीय बनाने में लगे हुए हैं. उदाहरण के लिए राजभरों की पार्टी भारतीय समाज पार्टी, बिंदों के बीच आधार वाली प्रगतिशील मानव समाज पार्टी, पटेलों वाला अपना दल या फिर मुख्तार-अफजाल ब्रदर्स के कौमी एकता दल के नाम लिए जा सकते हैं. इनमें से कई जाति के साथ अपराध के गठजोड़ से भी अपनी संभावनाएं बढ़ाने की फिराक में हैं.
अपराधियों को राजनेता बनाने की फैक्टरी
‘अपना दल’ सोनेलाल पटेल के जमाने से ही पटेल मतदाताओं के ध्रुवीकरण की कोशिश में रहा है. इस बार उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल खुद बनारस के रोहनियां से मैदान में हैं और पार्टी के स्तर पर बहुत हद तक पुरानी राह पर चलकर कुछ और कदम आगे बढ़ा चुकी हैं. कभी ‘अपना दल’ बबलू श्रीवास्तव और अतीक अहमद को टिकट देकर चर्चे में आ चुका है. इस बार उसने कुख्यात शूटर मुन्ना बजरंगी को चंदौली के मड़ियाहुं से मैदान में उतारा है. पार्टी की महासचिव अनुप्रिया कहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी मानता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाए तब तक किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता. अभी मुन्ना बजरंगी पर अपराध सिद्ध होना बाकी है.
प्रगतिशील मानव समाज पार्टी का नाम भी इस बार चर्चा में है. वैसे तो यह दल मूलतः बिंदों के मतों के ध्रुवीकरण पर आश्रित रहा है लेकिन इस बार बाहुबली बृजेश सिंह को सैयदराजा से टिकट देने के कारण सुर्खियों में है. पार्टी के महासचिव शिवकुमार बिंद उस अंदाज में जवाब देते हैं जिस अंदाज में भाजपा ने बाबू सिंह कुशवाहा का बचाव किया था, ‘बृजेश सुधरना चाहते हैं तो हम उन्हें टिकट देकर यह मौका दे रहे हैं.’ मुन्ना बजरंगी जेल में हैं और बृजेश भी. मुन्ना बजरंगी की जीत के लिए ठाकुर और पटेलों का कॉकटेल बनाया जा रहा है तो बृजेश सिंह के कार्यकर्ता बिंद और ठाकुरों का नया जादुई रसायन ईजाद करने में लगे हुए हैं.
2001 की जनगणना बताती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 30 लाख मुसलिम मतदाता बुनकरी के काम में लगा हुआ है
सबसे अजीबोगरीब तर्क अतहर जमाल लारी देते हैं जो तीसरे ध्रुव पर खड़ी मुख्तार अंसारी ऐंड ब्रदर्स की पार्टी कौमी एकता दल से ताल्लुक रखते हैं. वे बनारस दक्षिण के प्रत्याशी भी हैं. लारी के मुताबिक जेल जाना राजनीति का जरूरी पड़ाव है और इस देश में गांधी भी जेल में रहे, नेहरू भी जेल में रहे हैं. लारी एक समय में मुख्तार जैसे नेताओं के जेल में रहने की खुलकर मुखालफत करते थे, अब उनके रहमोकरम पर चुनाव लड़ रहे हैं तो भद्दे तर्क गढ़ रहे हैं. मुख्तार का प्रभाव बनारस, मऊ, गाजीपुर के अलावा थोड़ा-बहुत आजमगढ़, चंदौली, और जौनपुर में भी है. मुख्तार ने खुद मऊ और घोसी से परचा भरा है तो उनके बड़े भाई शिफाउतुल्ला गाजीपुर के मोहम्मदाबाद से मैदान में हैं. बड़े भाई अफजाल ने, जो पूर्व सांसद हैं, अपने दोनों भाइयों को लड़वाने के साथ ही पार्टी की कमान भी अपने हाथों में ले रखी हैं. उनके नेतृत्व में कौमी एकता दल गैर-ठाकुर सवर्णों और मुसलमानों को एक करने में लगा हुआ है, इस तर्क के साथ कि ठेके-पट्टे आदि में यदि बृजेश-मुन्ना बजरंगी जैसे ठाकुरों की दबंगई से निजात पानी है तो मुख्तार ही एकमात्र विकल्प हैं.
जेलवासी नेताओं का चुनावी भविष्य क्या होगा, अभी से इसका अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यह साफ है कि पूर्वांचल के इलाके में अपराध और राजनीति के घालमेल वाले इस खेल में अब ऊब की बजाय रोमांच की तलाश की जा रही है. समाजवादी पार्टी के नेता व राज्य के पूर्व मंत्री शतरूद्र प्रसाद कहते हैं, ‘यह एक दिन की देन नहीं है. पूर्वांचल में इसकी शुरुआत दो दशक पहले हरिशंकर तिवारी और विरेंद्र शाही के बीच चली गैंगवार से हुई. गोरखपुर के इलाके में ये दोनों आपस में भिड़ते रहे और इनकी लड़ाइयों का फायदा बाद में राजनीतिक दलों ने ठाकुरों और भूमिहारों के बीच दूरी बढ़ाकर उठाया. इसका एक्सटेंशन बाद में गाजीपुर-बनारस के इलाके में मुख्तार अंसारी और बृजेश सिंह के बीच गैंगवार के रूप में देखा गया. इसे ठाकुरों और मुसलमानों के बीच की जंग मानकर राजनीति की बिसात बिछाई गई.’ शतरूद्र आगे कहते हैं कि आप यह नहीं कह सकते कि पूर्वांचल वाले इसकी परवाह नहीं करते. यहां हरिशंकर तिवारी के बेटे, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी भी चुनाव हार चुके हैं, इसलिए अभी कुछ नहीं कह सकते. शतरूद्र कहते हैं कि असल चुनौती यह है कि उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में पूर्वांचल हाशिये पर चला गया है.
शतरूद्र की बात बहुत हद तक ठीक भी लगती है. कभी पूर्वांचल की राजनीति उत्तर प्रदेश की राजनीति का मुख्य केंद्र हुआ करती थी. संपूर्णानंद, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, रामनरेश यादव, वीपी सिंह, वीर बहादुर सिंह राजनाथ सिंह आदि इसी पूर्वांचल की राजनीति करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री बने. चंद्रशेखर और वीपी सिंह, प्रधानमंत्री भी बने. लेकिन करीब पिछले दो दशक में पूर्वांचल का एक भी नेता राष्ट्रीय राजनीति में उभर नहीं सका है. इस इलाके की पूरी राजनीतिक आकांक्षा आज जाति और अपराध के जरिये अपना मुकाम तलाशने में लगी हुई है. वैसे कहने को तो भाजपा में राजनाथ सिंह चंदौली-मिर्जापुर से ही राजनीति करके पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का सफर तय कर चुके हैं लेकिन राजनाथ को अब अपने इस इलाके से कोई मतलब नहीं रहता वे सांसद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर बसे गाजियाबाद से हैं. भाजपा के ही दूसरे नेता मुरली मनोहर जोशी भी फिलहाल बनारस के सांसद हैं, लेकिन उनकी छवि हमेशा से बाहरी की रही है और कोई भी उन्हें पूर्वांचली नहीं मानता. सपा और बसपा में स्थानीय स्तर पर बड़ा और प्रभाव वाला नेता होने न होने का कोई मतलब नहीं है. इस तरह देखें तो यह दौर राजनीति के शीर्ष नेतृत्व में पूर्वांचलियों के अकाल वाला दौर है.
मसालों के बीच गुम होते मसले
पूर्वांचल को उत्तर प्रदेश का सबसे टफ जोन माना जाता है. कई रूपों में. राजनीति ने पूर्वांचल की नई-नई परिधियां बनाई हैं. अपने-अपने हिसाब से दायरे तय किए हैंः बनारस, गोरखपुर, बलिया, गाजीपुर, देवरिया, जौनपुर, सोनभद्र, कुशीनगर, पडरौना, मऊ, आजमगढ़, भदोही, मिर्जापुर, चंदौली आदि इसके मुख्य हिस्से हैं. एक बड़ा वर्ग इलाहाबाद को भी इसी में मानता है. यह मजदूरों का सबसे बड़ा गढ़ है. खेतिहर मजदूर, आदिवासी, बुनकर और खनन मजदूरों का गढ़, जिनके लिए रोजी, रोटी और गुरबत ही सबसे अहम सवाल हैं. बलिया, गाजीपुर आदि जैसे दियारा क्षेत्र में बसे इलाकों की मुख्य समस्या यह है कि यहां हर साल सरयू, गंगा की कटान से जिंदगियां बेहाल होती हैं. जिंदगियां पानी से जार-जार तो होती ही हैं, खेती-बाड़ी भी उसी की भेंट चढ़ जाती है. लेकिन यह पीड़ा चुनाव में कोई मसला ही नहीं है.
सोनभद्र भी पूर्वांचल का ही हिस्सा है. छत्तीसगढ़, झारखंड से सटा इलाका है इसलिए नक्सलियों से प्रभावित भी है. यहां पहाड़ों का सीना काटकर कुछ लोगों ने तिजोरियां भरी और खाकपति से करोड़पति बन गए. जबकि यहां के आदिवासी विस्थापन की मार झेलते रहते हैं. गरीबी और पिछड़ापन इस कदर है कि हर साल तमाम मौतें मलेरिया की वजह से होती हैं जो कभी सियासी मसला नहीं बनतीं. सोनभद्र को काफी करीब से जाननेवाले पत्रकार आवेश तिवारी कहते हैं इस इलाके में हर साल दो हजार के करीब मौतें होती हैं लेकिन प्रशासन की डायरी में अज्ञात और रहस्यमयी बीमारी से मौत बताकर उनकी जिंदगी का खाता-बही बंद कर दिया जाता है. सोनभद्र के अलावा चंदौली वह इलाका है, जहां नक्सलियों की धमक सुनाई देती रहती है.
चुनावी आंखों के तारे बुनकर
पूर्वांचल की सबसे बड़ी पहचान यहां की बुनकरी है. बनारस की साड़ी, भदोही का कालीन, मऊ का हैंडलूम, राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त हैं. वर्षों से उपेक्षा की मार झेलते- झेलते बुनकर पहले दिहाड़ी मजदूर बने और बाद में रिक्शा-ठेला चलाने वाले समूह में तब्दील हो गए. हालांकि बुनकरी के कारोबार में कई अन्य जातियों के लोग भी शामिल रहे हैं, लेकिन मुख्य रूप से इसमें मुसलिम आबादी ही लगी हुई है. उत्तर प्रदेश में तो वैसे भी मुसलिम मतों का अपना महत्व है, पूर्वांचल के इलाके में तो यहां का सियासी रुख ही इन पर निर्भर करता है. 2001 की जनगणना को आधार बनाकर देखें तो करीब 36.3 प्रतिशत मुसलिम पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहते हैं. एक अनुमान के मुताबिक पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 30 लाख मत सिर्फ बुनकरों का ही है. गोरखपुर, संतकबीर नगर, सिद्धार्थनगर और मऊ की कई सीटों पर बुनकरों की संख्या निर्णायक मानी जाती है. नए परिसीमन के बाद बनारस की आठ सीटों में से भी तीन पर ये निर्णायक होंगे. लेकिन बुनकरों के असल मुद्दे इस चुनाव में भी नदारद है. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने इन्हें लुभाने के लिए सबसे पहला और ठोस पासा फेंका लेकिन वह भी पेंच में फंस गया और अब सबकुछ धुंधलके में चला गया है. कांग्रेस ने बुनकरों को लुभाने के लिए नवंबर 2011 में 6253 करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देने का ऐलान किया लेकिन चुनावी आचार संहिता लागू होने के चलते यह पैकेज बीच में ही फंस गया. कांग्रेस पिछड़े वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण में से 4.5 प्रतिशत मुसलमानों को देने की बात भी कर रही है. सपा मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण की कभी न पूरी हो सकने वाली चाल चल चुकी है. ऐसी ही चालें सभी दल चल रहे हैं.
लेकिन इस बार बुनकर मतदाता खामोश है. अंदर ही अंदर उन्हें कई खंडों में बांट देने की कोशिशें भी जारी है. बनारस के मदनपुरा में मिले एक बुनकर निजाम अंसारी कहते हैं, ‘हम तेल देख रहे हैं और तेल की धार भी. बुनकरों को पैकेज मिलेगा तो उसका लाभ सीधे बुनकरों को थोड़े ही होना है. अब तो बुनकरी के धंधे में दलाल ही बुनकर बन बैठे हैं, मजदूर बुनकर तो दिन भर की मेहनत पर भी 100 रुपये नहीं कमा पाता, उसकी बात कौन कर रहा है.’
एक अपुष्ट आंकड़े के मुताबिक पिछले कुछ सालों में 50 प्रतिशत से अधिक बुनकर पारंपरिक हुनर को त्याग कर दूसरे धंधों में लग गए हैं. हाल के वर्षों में मनरेगा ने भी बुनकर मजदूरों को करघा और लूम से दूर किया है. बुनकर मिट रहे हैं, बुनकरी खत्म हो रही है, सियासी आवाजें उनकी संख्या बढ़ा-बढ़ाकर उन्हें बुनकर के रूप में जिंदा रखने की कोशिश में हैं लेकिन पूर्वांचल की यह सांस्कृतिक पहचान बनी रहे और समृद्ध भी हो, इसके लिए सही तरह से कोशिश कोई दल करता हुआ नहीं दिखता.