करीब 20-25 साल पहले सॢदयों में देर शाम के समय एक सन्त बरेली के एक गाँव में पहुँचे। सन्त क्या थे, हड्डियों का ढाँचा थे। भरी सॢदयों में शरीर पर एक पतला-सा कपड़ा, एक लँगोट और कन्धे पर लटक रही एक छोटी-सी पोटली। न पाँव में चप्पल अथवा खड़ाऊँ, न साथ में ओढऩे-बिछाने की व्यवस्था। इस गाँव में एक छोटी-सी चाय की दुकान पर एक बुज़ुर्ग थे, जो शायद दुकान बढ़ाने की तैयारी में थे और कुछ लावारिस कुत्ते, जो चाय की भट्टी से निकली गर्म कोयले की आग के चारों ओर बैठे थे। सन्त काफी बुज़ुर्ग थे और शायद थके हुए भी, सो दूर से चमकती आग देखकर वहीं पहुँच गये। उन्हें वहाँ देखते ही कुत्ते अपने स्वभाव के अनुसार भौंकने लगे; लेकिन जैसे ही दुकानदार ने उन्हें चुप रहने को कहा, सब एक साथ शान्त हो गये और सन्त को बारी-बारी सूँघ-सूँघकर फिर आग के पास बैठ गये। चाय वाले दुकानदार ने जब सन्त को देखा, तो उनके चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लिया।
सन्त ने दुकान वाले बुज़ुर्ग को दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया और वहीं आग के पास बैठते हुए बोले- ‘बच्चा थोड़ा पानी मिलेगा?’ दुकानदार ने उन्हें एक मग में नल से भरकर साफ पानी दिया और कहा- ‘महाराज चाय तो अब नहीं मिल सकेगी, पर कुछ खाने का प्रबन्ध हो सकता है।’ बाबा ने कहा- ‘उसकी कोई ज़रूरत नहीं बेटा, मेरा काम बन गया’ और यह कहते-कहते अपनी झोली से एक पोटली निकाली, एक टूटी हुई-सी तवानुमा काली प्लेट और एक कटोरा निकालकर उसमें पोटली से आटा निकालकर पानी से गँूथने लगे और उस टूटे तवे को कोयले की तपती आग पर रख दिया। दुकानदार ने कहा भी कि बाबा! आप परेशान न हों, मैं आपके खाने की व्यवस्था करता हूँ; पर सन्त ने कहा कि अपना तो यही भोजन है बेटा। थोड़ी देर में दो मोटी-मोटी रोटियाँ सन्त ने बना लीं और एक रोटी कुत्तों को तोड़कर डालकर एक खुद पानी से खाने लगे। सूखी रोटी खाने से पहले उन्होंने दुकान वाले बुज़ुर्ग से भी खाने को कहा; लेकिन दुकानदार ने मना कर दिया; मगर कुछ और लाकर देने की गुज़ारिश ज़रूर करते रहे और सन्त हर बार मुस्कुराकर मना कर देते। आिखर जब दुकान वाले बुज़ुर्ग से नहीं रुका गया, तो उन्होंने सन्त से कहा- ‘बाबा इस रूखी रोटी से क्या पेट भरा होगा? मैं घर जाकर आपके लिए भोजन की व्यवस्था करता हूँ।’ पर सन्त ने मना कर दिया। दुकानदार दु:ख और अफसोस भरे सकते में था कि सन्त को क्या और कैसे खिलायें कि वह भूखे न रहें। पर कुछ कह नहीं पा रहे थे और चुपचाप वहीं बैठे लाचार-से देखते रहे। सन्त ने जब देखा कि समय ज़्यादा हो गया और दुकानदार वहीं पास में बैठा है, तो बोले बच्चा आज घर नहीं जाओगे? देर हो गयी।
सन्त की बात सुनकर दुकानदार ने आश्चर्य भरी दृष्टि से सन्त को देखा और बोले बाबा! आपकी क्या सेवा करूँ? सन्त ने कहा- ‘नहीं बेटा! बहुत सेवा की आपने, अब घर जाओ’ और अपने शरीर पर पड़ा कपड़ा उतारकर हरि-हरि कहते हुए ज़मीन पर ही लेट गये और उस कपड़े को ओढ़ लिया। बुज़ुर्ग दुकानदार को काफी ठंड लग रही थी, पर घर नहीं जा पा रहे थे। लेकिन घर जाना मजबूरी सो चल दिये। रास्ते में अनगिनत खयाल, सवाल मन में उठने लगे- ‘बहुत पहुँचे हुए सन्त लगते हैं। वरना एक रूखी रोटी खाकर कौन जीवित रह सकता है? इतनी ठंड में तो कोई पहुँचा हुआ सिद्ध ही बिना ओढ़े-बिछाये रह सकता है। आग भी तो ऐसी नहीं थी, वह भी जल्द ही बुझ जाएगी।’ यह सब सोचते-सोचते बुज़ुर्ग के मन में एक दया-भाव जाग गया कि लेकिन वह तो समझ सकता है, तो उन्हें ऐसी कड़क सर्दी में भला क्यों पड़ा रहने दे? वह सन्त है, पर हम तो नहीं, हम उन्हें कष्ट क्यों सहने दें? कौन-सा वे रोज़-रोज़ उसकी दुकान पर आते हैं? इतना सोचते-सोचते बुज़ुर्ग के कदम गाँव में बने मन्दिर की ओर मुड़ गये और वहाँ पहुँचकर मन्दिर के पुजारी को उठाया। इतनी सर्दी में पुजारी की गर्म बिस्तर से निकलने की हिम्मत तो नहीं हो रही थी; लेकिन कोई परेशानी में न हो, यह सोचकर कम्बल लपेटकर दरवाज़ा खोला। सामने चाय वाले बुज़ुर्ग को देखकर बोले- ‘क्या भीमसेन! कोई परेशानी?’ बुज़ुर्ग ने राम-राम करते हुए सारी बात बतायी। पुजारी बोले- ‘तो उनसे मन्दिर में आने को क्यों नहीं कहा?’ बुज़ुर्ग बोले- ‘महाराज! कोशिश की, पर वह आये नहीं। वहीं ज़मीन पर लेट गये नंगे बदन।’ इतना सुनकर पुजारी बुज़ुर्ग के साथ दुकान की ओर चल दिये। वहाँ पहुँचकर देख कि सन्त हरि-हरि जप रहे हैं और कुत्ते बुझ चुकी आग की गर्म राख पर सिमटे बैठे हैं। लोगों की आहट पाकर कुत्ते कुछ चौकन्ने हुए, पर मानो पहचानकर चुपचाप पड़े रहे। दुकानदार ने पास जाकर धीरे से कहा-‘बाबा!’ सन्त उठ बैठे, बोले- ‘अरे तुम इन्हें भी ले आये। क्यों परेशान हो बेटा? मैं ठीक हूँ।’ पुजारी ने राम-राम करके कहा- ‘बाबा! आप मन्दिर में चलें, बहुत ठंड है।’ सन्त ने कहा- ‘बेटा! मुझे सर्दी-गर्मी क्या? हरि रखवाले हैं। आप लोग जाओ।’ इतने में पास से गुज़र रहे एक सज्जन और आ गये, उन्होंने भी यही विनती की; पर सन्त वही बात कहकर शान्त हो गये। पुजारी बोले- ‘बाबा! यहाँ ज़मीन गन्दी है, मन्दिर में चलो, ईश्वर का घर है; प्रसाद पा लेना और आराम से रहना।’
सन्त ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर कहा- ‘बेटा! क्या यह जगह ईश्वर की नहीं है? ऐसी जगह बताओ, जहाँ ईश्वर न हो। मुझे सुख-सम्पदा और अच्छे भोजन से क्या लेना-देना। मेरे लिए अब पूरा संसार ही उसी ईश्वर का घर है, तो मुझे इन दीवारों में बन्द तुम्हारे बनाये हुए ईश्वर से क्या काम? और इन दीवारों से क्या मतलब?’ इतना सुनते ही सब खामोश हो गये और चुपचाप वहाँ से चले गये। सन्त फिर वहीं लेट गये। जब सुबह लोग आये, तो सन्त वहाँ नहीं थे; सब कुछ वैसा ही था।